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Hindi Class 11 Solution Chapter 11 गद्य खण्ड Bihar Board बिहार बोर्ड

पृथ्वी (नरेश सक्सेना)

प्रश्न 1. कवि को पृथ्वी स्त्री की तरह क्यों लगती है?

उत्तर-
विद्वान कवि नरेश सक्सेना रचित पृथ्वी शीर्षक कविता में पृथ्वी और एक आम स्त्री के गुण-धर्म का साम्य स्थापित किया गया है। ऊपरी तौर पर बात पृथ्वी की हुई है, जबकि तात्पर्य स्त्री से है। कवि को पृथ्वी स्त्री की तरह लगती है, क्योंकि एक स्त्री अपने पूरे जीवनकाल अनेक भूमिकाओं में अनेक केन्द्रों (धूरियों) के चारों तरफ घूमती रहती है। क्षमा, दया, प्यार, ममता, त्याग, तपस्या की प्रति नें बनी स्त्री अपना सर्वस्व औरों को पूर्ण करने में, बुरे को अच्छा बनाने में, गुणी को और अधिक गुणवान बनाने में न्योछावर कर देती है।

इस प्रक्रिया में उसे जो उपेक्षाएँ मिलती हैं तनाव मिलता है, सहानुभूति की जगह आलोचना मिलती है, उससे उसके भीतर आक्रोश-विद्रोह की ज्वाला भी धधकती है। कभी-कभी वह अपना संतुलन खो देती है और अपने ही संसार को बिखरने के कगार पर आ जाता है। किन्तु दूसरे ही क्षण वह अपने आक्रोश-विद्रोह की आग को शिवम् बनाकर, नया रूप देकर ऐसा कुछ सार्थक मूल्यवान प्रस्तुत करती है कि संसार चकित रह जाता है। यही सब कुछ पृथ्वी भी बड़े फलक पर करती है। यही कारण है कि कवि को पृथ्वी स्त्री की तरह लगती है।

प्रश्न 2. पृथ्वी के काँपने का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-
पृथ्वी के भीतर की बनावट स्थायी न होकर परतदार है। हवा, पानी (समुद्र का) और भूगर्भ ताप के प्रभाव से परतों का स्थान बदलता रहता है। जिसके प्रभाव से प्रतिदिन दुनिया के किसी-न-किसी हिस्से में भूकंप के झटके आते रहते हैं। किन्तु जब यह प्रक्रिया बहुत तीव्रता से होती है, तब भयंकर तबाही वाला भूकंप आता है, इसी को कवि ने पृथ्वी का काँपना कहा है|

प्रश्न 3. पृथ्वी की सतह पर जल है और सतह के नीचे भी। लेकिन उसके गर्भ के केन्द्र में अग्नि है। स्त्री के सन्दर्भ में इसका क्या आशय है?

उत्तर-
कविवर सक्सेना ने ‘पृथ्वी’ शीर्षक कविता में नारी की सहनशीलता और उग्रता को पृथ्वी के माध्यम से रेखांकित एवं विश्लेषित किया है। जिस प्रकार पृथ्वी के सतह और सतह के नीचे जल है, ठीक उसी प्रकार नारी का हृदय करुणा, दया, सहनशीलता, ममता का अथाह सागर है। पृथ्वी के गर्भ के केन्द्र में अग्नि है, जो ज्वालामुखी के रूप विस्फोटित होता है। नारी भी जब क्रोधाग्नि से आवेगित होती है, तो गृहस्थी-रूपी गाड़ी चरमरा जाती है। कवि ने नारी के गौरव का अंकन उसके कर्ममय जीवन के आँगन में स्वस्थ रूप में प्रतिबिंबित किया है। पृथ्वी और नारी के रहस्यों का अन्वेषण-कार्य कवि की तकनीकी दृष्टिकोण से कर दोनों के समानता को उद्घाटित किया है।

प्रश्न 4. पृथ्वी कायेलों को हीरों में बदल देती है। क्या इसका कोई लक्ष्यार्थ है? यदि हाँ तो स्पष्ट करें।

उत्तर-
कोयला और हीरा रासायनिक भाषा में कार्बन के अपरूप (Allotropes) है। पृथ्वी के गर्भ में प्राकृतिक वानस्पतिक जीवाश्म जब गर्भस्थ ऊष्मा ऑक्सीजन की अल्पता तथा भूगर्भीय मा दबाव से जब जल जाते हैं तो कोयला बना जाता है। यही जीवाश्म यदि बहुत अधिक दाब और ताप झेलता है तो हीरा जैसी कीमती कठोर पदार्थ बन जाता है।

कवि के इस पंक्ति लक्ष्यार्थ है कि नारी अपने त्याग, अपनी तपस्या और बलिदान की अग्नि में साधारण पात्र को भी सुपात्र बना देती है। संसार में जितनी भी महान् विभूतियाँ हैं। सबका निर्माण माँ रूपी धधकती भट्ठी में ही हुआ है। स्त्रियों ने सारा दुःख गरल अपमान पीकर सहकर एक से बढ़कर एक नवरत्न उत्पन्न किए हैं। कोयले को हीरा अर्थात् मूर्ख को विद्वान बनाने की साधनात्मक कला स्त्रियों को ही आती है।

प्रश्न 5. “रलों से ज्यादा रत्नों के रहस्यों से भरा है तुम्हारा हृदय” -कवि ने इस पंक्ति के माध्यम से क्या कहना चाहा है?

उत्तर-
महाकवि नरेश सक्सेना ने पृथ्वी के विषय में कहा है कि ‘रत्नों से ज्यादा रत्नों के रहस्यों से भरा है, तुम्हारा हृदय’-पृथ्वी की रहस्यों की गूढ़ती को प्रतिबिंबित करता है। पृथ्वी के गर्भ से प्राप्त हीरा, कोयला, सोना, लोहा इत्यादि जैसे दृश्य रत्नों से तो व्यक्ति परिचित हो जाता है, परन्तु पृथ्वी के हृदय (अन्दर) में पानी, अग्नि जो एक दूसरे के प्रबल शत्रु हैं, वे एक साथ कैसे रह पाते हैं। कवि विस्मय प्रकट करते हुए कहता है कि रत्नों का निर्माण प्रक्रिया के दौरान पृथ्वी को कितना दबाव, आर्द्रता और ताप को सहना पड़ता है, यह भी अज्ञात (पृथ्वी की जानता) है।

पृथ्वी के रहस्यों का समय-समय पर जनहित में कुछ महामानव (वैज्ञानिक) उद्घाटित करने का अंशतः प्रयास किया है। अनेकों रहस्यों से परिचित होने के बावजूद अभी भी पृथ्वी के सम्पूर्ण रहस्य को जानना एक अनछुआ पहलू, शोध का विषय है। कवि कहना चाहता है कि पृथ्वी के गर्भ से निकले रत्नों के गुण-दोष से हम परिचित हो जाते हैं परन्तु उसके हृदय के अन्दर व्याप्त रहस्यों का जटिलता से पूर्णत: परिचित होने में हम अब भी असफल हैं।

प्रश्न 6.“तुम घूमती हो तो घूमती चली जाती हो” यहाँ घूमना का क्या अर्थ है?

उत्तर-
कविवर नरेश सक्सेना ने यहाँ पृथ्वी और नारी की समानता का बिंबात्मक चित्र प्रस्तुत किया है। कवि कहता है कि पृथ्वी अपने केन्द्र मे घूती हुई अपनी दैनिक और वार्षिक गति के द्वारा अपने कर्तव्यों का निर्वहन करती है। खनिज सम्पदा, वन सम्पदा और थल सम्पदा को अपने ऊपर निवास करने वाले जीव-जन्तुओं को पृथ्वी मुफ्त में उपहार स्वरूप देकर दनका लालन-पालन में सदा गतिमान रहती है।

कवि के अनुसार नारी भी अपनी गृहस्थी के केन्द्र में गतिमान रहकर अपने कर्तव्यों का निर्वहन करती है। अपनी सेवा, त्याग, ममता, सहिष्णुता, स्नेह की बारिश अपने परिवार को पुष्पित एवं पल्लवित करती है। वह सदा पृथ्वी की तरह बिना थके हुए अपने कर्तव्य-पथ पर घूमती रहती है। कवि ने पृथ्वी और नारी के कर्तव्य निर्वहन को ‘घूमना’ से प्रतिबिंबित किया है।

प्रश्न 7. क्या यह कविता पृथ्वी और स्त्री को अक्स-बर-अक्स रखकर देखने में सफल रही है इस कविता का मूल्यांकन अपने शब्दों में करें।

उत्तर-
आधुनिक संश्लिष्ट जीवन पद्धति के हिस्सेदार विद्वान कवि नरेश सक्सेना का कवि अभियंता एक तीर से दो शिकार सफलतापूर्वक कर लेता है।

पृथ्वी शीर्षक कविता समानान्तर चलने वाली दो कविताओं का संयोजन है। कवि को ऐसा लगता है जैसे पृथ्वी में जितने गुण-अवगुण हैं उसी का लघु संस्करण एक आम स्त्री है। पृथ्वी की जो भी गतिविधियों हैं, जो भी अवदान है ठीक वैसी ही गतिविधियों स्त्री की भी हैं। पृथ्वी भी धारण करती है (इसीलिए इसका एक नाम धरती है) स्त्री भी धारण करती इसलिए इसका भी एक नाम है।

पृथ्वी एक से बढ़कर एक अमूल्य-बहुमूल्य रत्न अपने गर्भ से निकाल कर धरणी दे चुकी है जिससे अपने संतान को उसका जीवन अधिक सुख-सुविधा सम्पन्न हो सका है। पृथ्वी जीवन के उपकरण साधन संसाधन उपलब्ध कराती है। पानी, वायुमंडल, प्राकृतिक सम्पदा सब कुछ पृथ्वी के अवदान हैं।

एक स्त्री पृथ्वी की तरह मसृण भावनाओं संवेदनाओं को अपने हृदय में धारण करती है। आदर्श, सर्वोच्च जीवन मूल्यों की वह उत्पादिका, संरक्षिका और वाहिका है। सृष्टि का वस्तुजगत सत्य है जिसे स्त्री अपनी कल्पना, ममता, कठोरता, अनुशासन, उद्बोधन, प्रेरणा, सहायता, सहचरता आदि के द्वारा सत्यम, शिवम् और सुन्दरम में परिणत कर देती है।

पृथ्वी की गतिद्वय सतत् है और इसी सातत्य के कारण जीवन शेष है जीवन प्रवाहमान है। एक स्त्री का तपसचर्या वाला जीवन भी सतत् है जिसके कारण सृष्टि का सृजन का महत् यज्ञ जारी है।

इस प्रकार निश्चय ही पृथ्वी और स्त्री एक-दूसरे के बिम्ब प्रतिबिम्ब ही हैं।

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