रानी दुर्गावती
दुर्गावती का जन्म 5 अक्टूबर 1524 को कालिंजर के किले में हुआ था ।
उनका जन्म चंदेला राजपूत राजा शालभम के परिवार में हुआ था , जिन्होंने महोबा राज्य पर शासन किया था।
1542 में, उन्होंने गढ़ा साम्राज्य के राजा संग्राम शाह के सबसे बड़े बेटे दलपत शाह से विवाह किया।
इस विवाह के माध्यम से महोबा के चंदेल और गढ़ा-मंडला राजवंश के राजगोंड सहयोगी बन गए।
रानी दुर्गावती (5 अक्टूबर 1524 – 24 जून 1564) 1550-1564 ई. में गोंडवाना की रानी थीं।
अपने बेटे वीर नारायण के नाबालिग होने के दौरान उन्होंने 1550 से 1564 तक गोंडवाना की रीजेंट के रूप में काम किया। उन्हें मुख्य रूप से मुगल साम्राज्य के खिलाफ गोंडवाना की रक्षा करने के लिए याद किया जाता है ।
शासन:
1550 में, राजा दलपत शाह की मृत्यु हो गई, जिसके बाद रानी दुर्गावती ने अपने पुत्र वीर नारायण के लिए रीजेंट के रूप में शासन करना शुरू किया। उन्होंने गोंडवाना राज्य को एक मजबूत और समृद्ध राज्य बनाया।
रानी दुर्गावती का मुगलों से युद्ध भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय है। यह युद्ध रानी दुर्गावती और मुगल जनरल आसफ खान के बीच हुआ था। इस युद्ध की मुख्य घटनाएँ निम्नलिखित हैं:
युद्ध की पृष्ठभूमि
अकबर ने अपने साम्राज्य का विस्तार करने के उद्देश्य से गोंडवाना पर आक्रमण करने का निर्णय लिया। गोंडवाना उस समय रानी दुर्गावती के नेतृत्व में था, जिन्होंने अपने पति राजा दलपतिशाह की मृत्यु के बाद राज्य का संचालन संभाला था।
युद्ध की घटनाएँ
- मुगल सेना का आगमन: 1564 में, अकबर ने अपने जनरल आसफ खान को गोंडवाना पर आक्रमण करने के लिए भेजा। मुगल सेना बड़ी और संगठित थी, जबकि रानी दुर्गावती की सेना अपेक्षाकृत छोटी थी।
- प्रथम युद्ध: रानी दुर्गावती ने अपने वीरता और सैन्य कौशल से पहली लड़ाई में मुगल सेना को रोक दिया। उन्होंने पहाड़ी इलाकों और जंगलों का फायदा उठाया और मुगल सेना को कड़ी टक्कर दी।
- दूसरा युद्ध: दूसरी लड़ाई में, मुगल सेना ने एक विशाल सेना के साथ पुनः आक्रमण किया। इस बार, मुगल सेना की संख्या और संसाधन बहुत अधिक थे। रानी दुर्गावती ने वीरता से लड़ाई की, लेकिन मुगल सेना की विशालता और उनके संसाधनों के सामने टिक नहीं सकीं।
- अंतिम संघर्ष: जब रानी दुर्गावती ने देखा कि हार निकट है और उनकी सेना बुरी तरह से पराजित हो रही है, तो उन्होंने आत्मसमर्पण करने के बजाय युद्धभूमि में अपने प्राण त्यागने का निर्णय लिया। उन्होंने अपने पुत्र वीर नारायण को सुरक्षित स्थान पर भेज दिया और स्वयं अंतिम समय तक लड़ती रहीं।
युद्ध का परिणाम
रानी दुर्गावती की वीरता और बलिदान भारतीय इतिहास में अमर हो गए।
उनका संघर्ष और आत्मबलिदान भारतीय नारी शक्ति और साहस का प्रतीक बन गया।
मुगलों ने गोंडवाना पर कब्जा कर लिया, लेकिन रानी दुर्गावती की वीरता और उनके आत्मबलिदान की कहानी हमेशा के लिए अमर हो गई।
रानी दुर्गावती का यह युद्ध यह सिखाता है कि विपरीत परिस्थितियों में भी धैर्य और साहस के साथ संघर्ष करना महत्वपूर्ण होता है, और उनकी वीरता आज भी प्रेरणा का स्रोत है।
वीर कुंवर सिंह
वीर कुंवर सिंह का जन्म 23 अप्रैल 1777 को बिहार के भोजपुर जिले के जगदीशपुर के एक क्षत्रिय परिवार में हुआ था।
इनके पिता राजा साहबजादा सिंह और माताजी का नाम पंचरत्न कुंवर था वह बिहार में अंग्रजों के खिलाफ लड़ाई के मुख्य महानायक थे।
उन्हें वीर कुंवर सिंह के नाम से जाना जाता है। वीर कुंवर सिंह ने बिहार में वर्ष 1857 के भारतीय विद्रोह का नेतृत्व किया।
वह तब लगभग 80 वर्ष के थे जब उन्हें हथियार उठाने के लिये बुलाया गया और उनका स्वास्थ्य भी खराब था।
उनके भाई, बाबू अमर सिंह और उनके सेनापति, हरे कृष्ण सिंह दोनों ने उनकी सहायता की थी। कुछ लोगों का मानना है कि कुंवर सिंह की प्रारंभिक सैन्य सफलता के पीछे का असली कारण यही था।
1857 का स्वतंत्रता संग्राम
जब 1857 में भारतीय सिपाहियों ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह किया, तो कुंवर सिंह ने भी इस आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई। उस समय उनकी आयु 80 वर्ष थी, लेकिन उनकी देशभक्ति और वीरता में कोई कमी नहीं थी।
- आरा की लड़ाई: कुंवर सिंह ने अपने सैनिकों के साथ आरा शहर पर हमला किया और ब्रिटिश सेना को हराया। इस विजय ने ब्रिटिश अधिकारियों को हैरान कर दिया और कुंवर सिंह की प्रतिष्ठा बढ़ा दी।
- पटना की ओर प्रस्थान: कुंवर सिंह ने पटना की ओर प्रस्थान किया और वहां के विद्रोही सैनिकों के साथ मिलकर ब्रिटिश सेना के खिलाफ लड़ाई लड़ी। उन्होंने कई स्थानों पर ब्रिटिश सेना को कड़ी टक्कर दी।
- गंगा नदी की लड़ाई: गंगा नदी पार करते समय कुंवर सिंह घायल हो गए थे। ब्रिटिश सेना ने उनकी कलाई पर गोली मारी, जिसके बाद उन्होंने अपनी कलाई को काट कर नदी में फेंक दिया ताकि जहर उनके शरीर में न फैले। यह घटना उनकी अद्वितीय वीरता और साहस का प्रतीक बन गई।
अंतिम संघर्ष और मृत्यु
कुंवर सिंह ने 23 अप्रैल 1858 में, जगदीशपुर के पास अंतिम लड़ाई लड़ी। ईस्ट इंडिया कंपनी के भाड़े के सैनिकों को इन्होंने पूरी तरह खदेड़ दिया। उस दिन बुरी तरह घायल होने पर भी इस बहादुर ने जगदीशपुर किले से “यूनियन जैक” नाम का झंडा उतार कर ही दम लिया। वहाँ से अपने किले में लौटने के बाद 26 अप्रैल 1858 को इन्होंने वीरगति पाई।
मृत्यु के बाद
पुराने मुखिया की जिम्मेदारी अब उनके भाई अमर सिंह द्वितीय पर थी और उनके भाई हरे कृष्ण सिंह उनके अधीन काम करते रहे।
अमर सिंह ने काफी समय तक शाहाबाद जिले में समानांतर सरकार का नेतृत्व किया।
बाद में अक्टूबर 1859 में वे नेपाल तराई में विद्रोही नेताओं में शामिल हो गए। 1859 में ब्रिटिश सैनिकों द्वारा पकड़े जाने और फांसी दिए जाने के बाद हरे कृष्ण सिंह की मृत्यु हो गई
वीर कुंवर सिंह की विरासत:
वीर कुंवर सिंह को भारत के स्वतंत्रता संग्राम के सबसे महान नायकों में से एक माना जाता है। उनकी वीरता और देशभक्ति की कहानियां आज भी पूरे भारत में सुनाई जाती हैं। उनके नाम पर कई स्कूल, कॉलेज और स्मारक बनाए गए हैं।
भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में उनके योगदान के लिये 23 अप्रैल 1966 को भारत गणराज्य द्वारा उनके सम्मान में एक स्मारक डाक टिकट जारी किया गया। वर्ष 1992 में बिहार सरकार द्वारा वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय, आरा की स्थापना की गई।
- वर्ष 2017 में वीर कुंवर सिंह सेतु, जिसे आरा-छपरा ब्रिज के नाम से भी जाना जाता है, का उद्घाटन उत्तर और दक्षिण बिहार को जोड़ने के लिये किया गया था।
- वर्ष 2018 में कुंवर सिंह की मृत्यु की 160वीं वर्षगाँठ मनाने के लिये बिहार सरकार ने उनकी एक प्रतिमा को हार्डिंग पार्क में स्थानांतरित कर दिया था। पार्क को आधिकारिक तौर पर ‘वीर कुंवर सिंह आज़ादी पार्क’ का नाम भी दिया गया था।
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