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मौर्य साम्राज्य के प्रमुख शासक (चंद्रगुप्त मौर्य) – Major rulers of Maurya Empire (Chandragupta Maurya)

मौर्य साम्राज्य: उत्पत्ति:-

    • मौर्य साम्राज्य की स्थापना से पहले, भारतीय उपमहाद्वीप का एक बड़ा हिस्सा नंद वंश के शासन के अधीन था। नंद साम्राज्य की राजधानी मगध क्षेत्र में पाटलिपुत्र थी। नंद साम्राज्य के लोग अपने शासक धनानंद द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली दमनकारी रणनीति से नाखुश थे।
    • कौटिल्य जिन्हें चाणक्य या विष्णुगुप्त के नाम से भी जाना जाता है, की नंद राजवंश से पुरानी दुश्मनी थी। उन्होंने चंद्रगुप्त मौर्य को बचपन से ही प्रशिक्षित किया था और उन्हें प्रशासनिक कौशल, शासन कौशल और सैन्य कौशल विकसित करने के लिए प्रशिक्षित किया था।
    • चाणक्य की सलाह पर चंद्रगुप्त मौर्य ने मगध पर आक्रमण करने के लिए सेना और संसाधन जुटाने की तैयारी शुरू कर दी। चंद्रगुप्त मौर्य ने नंद साम्राज्य पर विजय पाने के लिए एक अनोखी रणनीति बनाई।
    • एक ओर तो उसने धनानंद के सैनिकों को युद्ध के मैदान में अपनी सेना के साथ युद्ध में व्यस्त रखा, वहीं दूसरी ओर उसने नंद साम्राज्य के भ्रष्ट सैन्य जनरलों के साथ मिलकर गृहयुद्ध शुरू करने की साजिश रची।
    • इस हंगामे में नंद साम्राज्य के सिंहासन के उत्तराधिकारी की मृत्यु हो गई। इस घटना से राज करने वाले राजा धनानंद दुखी हुए और उन्होंने पद छोड़ने का फैसला किया। फिर उन्होंने अपनी सत्ता चंद्रगुप्त मौर्य को सौंप दी। इस तरह नंद राजवंश का शासन खत्म हो गया और 322 ईसा पूर्व में मौर्य साम्राज्य की स्थापना हुई।

मौर्य साम्राज्य का राजनितिक इतिहास:-

    • मौर्य साम्राज्य प्राचीन भारत का एक शक्तिशाली राजवंश था।
    • मौर्य राजवंश ने 137 वर्ष भारत में राज्य किया।
    • अर्थात मौर्य साम्राज्य ने 185 ईसा पूर्व तक शासन किया।
    • इसकी स्थापना का श्रेय चन्द्रगुप्त मौर्य और उसके मंत्री चाणक्य को दिया जाता है।
    • यह साम्राज्य पूर्व में मगध राज्य में गंगा नदी के मैदानों (आज का बिहार एवं बंगाल) से शुरु हुआ।
    • इसकी राजधानी पाटलिपुत्र (आज के पटना शहर के पास) थी।

मौर्य साम्राज्य के प्रमुख शासक:- मौर्य साम्राज्य में कुछ ऐसे शासक थे जो अपने शासनकाल के लिए प्रसिद्ध थे। वे है- 1.चंद्रगुप्त मौर्य(324/321- 297 ईसा पूर्व), 2.बिंदुसार (297 – 272 ईसा पूर्व) तथा 3.अशोका (268 – 232 ईसा पूर्व) ।

चंद्रगुप्त मौर्य:- उनके परिवार के बारे में

    • चन्द्रगुप्त मौर्य का विवाह दुर्धरा से हुआ था।
    • चन्द्रगुप्त मौर्य का एक पुत्र बिन्दुसार था।
    • अशोक, सुसीमा, विताशोक चंद्रगुप्त मौर्य के पोते थे।
    • बाद में उनके पोते अशोक महान भारत के महानतम सम्राटों में से एक बने।

चन्द्रगुप्त मौर्य इतिहास- प्रारंभिक जीवन

    • ऐसा माना जाता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य का जन्म लगभग 340 ईसा पूर्व पटना (आधुनिक बिहार, भारत) में हुआ था।
    • कुछ ग्रंथों से पता चलता है कि चंद्रगुप्त के माता-पिता दोनों क्षत्रिय (योद्धा या राजकुमार) जाति के सदस्य थे। इसके विपरीत, अन्य लोग दावा करते हैं कि उनके पिता एक राजा थे और उनकी माँ एक शूद्र (नंदा साम्राज्य की सेवा सर्वार्थसिद्धि) थीं, जो चंद्रगुप्त मौर्य के पिता थे।
    • चन्द्रगुप्त के पौत्र अशोक महान ने अंततः सिद्धार्थ गौतम बुद्ध के साथ रक्त संबंध का दावा किया, लेकिन यह दावा कभी सिद्ध नहीं हुआ।

चंद्रगुप्त और चाणक्य की भेंट:-

    • चाणक्य ने अपनी दिव्यदृष्टि से तुरन्त इस ग्रामीण अनाथ बालक में राजत्व की प्रतिभा तथा चिह्न देखे और वहीं पर 1,000 कार्षापण देकर उसे उसके पालक-माता से ख़रीद लिया। उस समय चंद्रगुप्त आठ या नौ वर्ष का बालक रहा होगा।
    • चाणक्य जिसे तक्षशिला नामक नगर का निवासी (तक्कसिलानगर-वासी) बताया गया है, बालक को लेकर अपने नगर लौटा और 7 या 8 वर्ष तक उस प्रख्यात विद्यापीठ में उसे शिक्षा दिलाई, जहाँ जातककथाओं के अनुसार, उस समय की समस्त ‘विधाएँ तथा कलाएँ’ सिखाई जाती थीं।
    • वहाँ चाणक्य ने उसे अप्राविधिक(Unofficial) विषयों और व्यावहारिक तथा प्राविधिक कलाओं की भी सर्वांगीण शिक्षा दिलाई
    • मगध के राजा जाति-नियमों को वैसे ही विशेष महत्त्व नहीं देते थे; मौर्य तो आदिवासी मूल अथवा मिश्रित वंश के थे, यद्यपि उनका आर्यीकरण हो चुका था।
    • चन्द्रगुप्त प्रारंभ से ही बहुत साहसी व्यक्ति था। जब वह किशोर ही था, उसने पंजाब में पड़ाव डाले हुए यवन (यूनानी) विजेता सिकंदर से भेंट की।
    • उसने अपनी स्पष्टवादिता से सिकंदर को नाराज़ कर दिया।
    • सिकंदर ने उसे बंदी बना लेने का आदेश दिया, लेकिन वह अपने शौर्य का प्रदर्शन करता हुआ सिकंदर के शिकंजे से भाग निकला और कहा जाता है कि इसके बाद ही उसकी भेंट तक्षशिला के एक आचार्य चाणक्य या कौटिल्य-से हुई।

चंद्रगुप्त की शिक्षा

    • जातककथाओं से हमें पता चलता है कि उस समय के राजा अपने राजकुमारों को विद्योपार्जन के लिए तक्षशिला भेजा करते थे, जहाँ विश्व-विख्यात अध्यापक थे।
    • सारे भारत से क्षत्रियों तथा ब्राह्मणों के पुत्र इन अध्यापकों से विभिन्न कलाएँ सीखने आते थे।
    • ” तक्षशिला प्राथमिक शिक्षा का ही नहीं, बल्कि उच्च शिक्षा का केन्द्र भी था।
    • वहाँ बालकों को 16 वर्ष की अवस्था में अर्थात् ‘किशोरावस्था में प्रवेश करने पर’ भरती किया जाता था।
    • इससे बड़ी अवस्था के छात्र अथवा गृहस्थ लोग भी यहाँ शिक्षा प्राप्त करते थे।
    • हमें तक्षशिला के एक ऐसे अध्यापक का भी उल्लेख मिलता है, जिसकी पाठशाला में केवल राजकुमार ही पढ़ते थे, “उस समय भारत में इन राजकुमारों की संख्या 101 थी।”
    • वहीं जिन विषयों की शिक्षा दी जाती थी, उनमें तीन वेदों तथा 18 ‘सिप्पों’ अर्थात् शिल्पों का उल्लेख मिलता है, जिनमें धनुर्विद्या (इस्सत्थ-सिप्प), आखेट तथा हाथियों से सम्बन्धित ज्ञान (हत्थिसुत्त) का उल्लेख किया गया है, जिन्हें राजकुमारों के लिए उपयुक्त समझा जाता था। सिद्धान्त तथा व्यवहार दोनों ही की शिक्षा दी जाती थी।
    • तक्षशिला अपनी विधिशास्त्र, चिकित्सा विज्ञान तथा सैन्यविद्या की अलग-अलग पाठशालाओं के लिए प्रख्यात था।
    • तक्षशिला की सैनिक अकादमी का भी उल्लेख मिलता है, जिसमें 103 राजकुमार शिक्षा पाते थे।
    • एक जगह पर यह विवरण मिलता है कि किस प्रकार एक शिष्य को सैन्यविद्या की शिक्षा समाप्त कर लेने के बाद उसके गुरु ने प्रमाणपत्र के रूप में स्वंय अपनी “तलवार, एक धनुष और बाण, एक कवच तथा एक हीरा” दिया और उससे कहा कि वह उसके स्थान पर सैन्यविद्या की शिक्षा प्राप्त करने वाले 500 शिष्यों की पाठशाला के प्रधान का पद ग्रहण करे, क्योंकि वह वृद्ध हो गया है और अवकाश ग्रहण करना चाहता है।
    • चाणक्य अपने अल्पवयस्क शिष्य की शिक्षा का इससे अच्छा कोई दूसरा प्रबंध नहीं कर सकता था कि उसे विद्योपार्जन के लिए तक्षशिला में भरती करा दे।

घनांनद

    • पालि ग्रन्थों में मगध के तत्कालीन शासक का नाम घनांनद बताया गया है।
    • इसका उल्लेख संस्कृत ग्रन्थों में केवल ‘नंद’ के नाम से किया गया है।
    • इसके अतिरिक्त पालि ग्रन्थों में नौ नंदों के नाम तथा उनके जीवन से सम्बन्धित कुछ बातें भी बताई गई हैं।
    • नंदवंश के नौ राजा, जो सब भाई थे, बारी-बारी से अपनी आयु के क्रम से गद्दी पर बैठे।
    • घनांनद उनमें सबसे छोटा था।
    • सबसे बड़े भाई का नाम उग्रसेननंद बताया गया है; वही नंदवंश का संस्थापक था।

घनांनद द्वारा चाणक्य का अपमान:- आचार्य चाणक्य ने नंद वंश का अंत कर एक साधारण से बालक चंद्रगुप्त को मौर्य वंश का सम्राट बनाया था

    1. आचार्य चाणक्य को कौटिल्य नाम से भी जाना जाता है और वह चंद्रगुप्त मौर्य के महामंत्री थे. उनका जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था और उनका असली नाम विष्णुगुप्त था. आचार्य चाणक्य का गौत्र कोटिल था और इसलिए उनका नाम कौटिल्य भी पड़ गया.
    2. आचार्य चाणक्य को लगभग हर विषय की जानकारी थी और खगोल विज्ञान का तो पूरा ज्ञान था. यहां तक कि उन्होंने समुद्र शास्त्र में ही महारथ हासिल की थी और व्यक्ति के चेहरे व हाव-भाव को देखकर उसका व्यक्तित्व बता देते थे.
    3. अपने ज्ञान के दम पर आचार्य चाणक्य मगध साम्राज्य में न्यायालय विद्वान बने. एक बार चाणक्य मगध राज्य में आयोजित हुए किसी यज्ञ में शामिल होने गए और वहां प्रधान आसन पर जाकर बैठ गए. नंद वंश के राजा धनानंद ने आसन पर बैठे चाणक्य की वेशभूषा देखकर उसका अपमान किया और आसन से उठने का आदेश दिया. भरी सभी में हुए इस अपमान से क्रोधित होकर चाणक्य ने अपनी चोटी खोल दी और कसम खाई कि जब तक मैं नंद वंश का नाश नहीं करूंगा तब तक चोटी नहीं बांधूंगा. बस अपने इस अपमान का बदला लेने के लिए ही चाणक्य ने नंद वंश का नाश करने के लिए नीतियां बनाईं.
    4. अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए चाणक्य ने एक साधारण के बालक चंद्रगुप्त को शिक्षा-दिक्षा दी और मौर्य वंश की स्था​पना की. फिर उसे बच्चे को मौर्य वंश का सम्राट बनाकर गद्दी पर बैठाया. इस दौरान चाणक्य अपने अपमान का बदला लेने के लिए नई-नई नीतियां बनाने लगे और पोरस समेत कई राजाओं को अपने साथ मिला लिया. कई देश के राजाओं को साथ मिलाकर चाणक्य ने नंद वंश के राजा घनानंद पर आक्रमण कर दिया जीत हासिल की.

अलक्षेन्द्र (सिकन्दर) का हमला:-

  • भारत पर सिकन्दर का आक्रमण मई 327 ई.पू. से मई 324 ई.पू. तक रहा।
  • चंद्रगुप्त सिकन्दर का समकालीन था और स्वंय सिकन्दर से मिला भी था।
  • यह बात हमें प्लूटार्क की रचनाओं से मालूम होती है जिसने लिखा है- ‘ऐंड्रोकोट्टोस (चन्द्रगुप्त) , जो उस समय नवयुवक ही था, स्वंय सिकन्दर से मिला था।’
  • सिकन्दर ने सबसे पहले ग्रीक राज्यों को जीता और फिर वह एशिया माइनर (आधुनिक तुर्की) की तरफ बढ़ा। उस क्षेत्र पर उस समय फ़ारस का शासन था।
  • फ़ारसी साम्राज्य मिस्र से लेकर पश्चिमोत्तर भारत तक फैला था।
  • फ़ारस के शाह दारा तृतीय को उसने तीन अलग-अलग युद्धों में पराजित किया हालाँकि उसकी तथाकथित ‘विश्व-विजय’ फ़ारस विजय से अधिक नहीं थी पर उसे शाह दारा के अलावा अन्य स्थानीय प्रांतपालों से भी युद्ध करना पड़ा था।
  • भारत पर सिकन्दर के आक्रमण के समय चाणक्य तक्षशिला में प्राध्यापक था।
  • तक्षशिला और गान्धार के राजा आम्भि ने सिकन्दर से समझौता कर लिया।
  • चाणक्य ने भारत की संस्कृति को विदेशियों से बचाने के लिए सभी राजाओं से आग्रह किया किन्तु सिकन्दर से लड़ने कोई नहीं आया।
  • पुरु ने सिकन्दर से युद्ध किया किन्तु हार गया।
  • सिकन्दर के आक्रमण ने पंजाब की इन स्वतंत्र जातियों की रणक्षमता तथा वीरता को प्रकट कर दिया।
  • सिकन्दर के आक्रमणों के विरुद्ध उनके प्रतिरोध की कहानी सिकन्दर की विजय की कहानी से कम प्रेरणाप्रद नहीं है।
  • भारत के विभिन्न स्थानों में सिकन्दर का जो विरोध किया गया, उसका मूल्यांकन स्वंय यूनानियों द्वारा उल्लिखित तथ्यों तथा आंकड़ों के आधार पर किया जा सकता है।
    • स्त्राबो : इसका जीवनकाल लगभग 64 ई.पू. से 19 ई. तक था। इसने भूगोल की एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पुस्तक लिखी है। इस पुस्तक के 15वें भाग का प्रथम अध्याय भारत के बारे में है, इसमें सिकन्दर के साथियों तथा मेगास्थनीज़ की रचनाओं से ली गई सामग्री के आधार पर भारत के भूगोल, उसके निवासियों के रहन-सहन तथा रीति-रिवाजों का वर्णन किया गया है।
    • डियोडोरस 36 ई.पू. तक जीवित रहा। इसने मेगास्थनीज़ की रचनाओं के आधार पर भारत का एक वृत्तांत लिखा।
    • प्लिनी ज्येष्ठ, जो नेचरल हिस्ट्री (प्रकृति वृत्त) नामक विशद ज्ञानकोष का रचयिता है। उसकी यह रचना लगभग 75 ई. में प्रकाशित हुई थी। इसमें यूनानी रचनाओं तथा व्यापारियों के नवीनतम विवरणों के आधार पर भारत का विवरण दिया गया था।
    • एर्रियान : इसका जन्म लगभग 130 ई. में हुआ था। यह कम से कम 172 ई. तक जीवित रहा। इसने सिकन्दर के अभियानों का सबसे अच्छा वृत्तांत (ऐनाबेसिस) लिखा और निआर्कस,
    • मेगास्थनीज़ तथा भूगोलवेत्ता एराटोस्थनीज़ (276-195 ई.पू.) की रचनाओं के आधार पर भारत, उसके भूगोल, वहाँ के रहन-सहन तथा रीति-रिवाजों के बारे में एक छोटी-सी पुस्तक लिखी है।
    • प्लूटार्क (लगभग 45-125 ई.), जिसकी लाइव्स (जीवनियाँ) नामक रचना के 57वें से 67वें अध्यायों तक सिकन्दर की जीवनी दी गई है। उन अध्यायों में भारत का भी विवरण मिलता है।[29]
    • जस्टिन : यह दूसरी शताब्दी ईसवी में हुआ था। इसने एक एपिटोम (सारसंग्रह) की रचना की थी जिसके 12वें खंड में भारत में सिकन्दर के विजय-अभियानों का विवरण दिया गया है। लेखकों के वृत्तांत मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त को नंद वंश के उन्मूलन तथा पंजाब-सिंध में विदेशी शासन का अंत करने का ही श्रेय नहीं है वरन् उसने भारत के अधिकांश भाग पर अपना आधिपत्य स्थापित किया।
    • प्लूटार्क ने लिखा है कि चंद्रगुप्त ने 6 लाख सेना लेकर समूचे भारत पर अपना आधिपत्य स्थापित किया।
    • जस्टिन के अनुसार सारा भारत उसके क़ब्ज़े में था। महावंश में कहा गया है कि कौटिल्य ने चंद्रगुप्त को जंबूद्वीप का सम्राट बनाया।
    • प्लिनी ने, जिसका वृत्तान्त मैगस्थनीज़ की इंडिका पर आधारित है, लिखा है कि मगध की सीमा सिंधु नदी है। पश्चिम में सौराष्ट्र चंद्रगुप्त के अधिकार में था। इसकी पुष्टि शक महाक्षत्रप रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख से होती है।

योग्य शासक:-

    • चंद्रगुप्त एक कुशल योद्धा, सेनानायक तथा महान् विजेता ही नहीं था, वरन् एक योग्य शासक भी था।
    • इतने बड़े साम्राज्य की शासन – व्यवस्था कोई सरल कार्य नहीं था।
    • अतः अपने मुख्यमंत्री कौटिल्य की सहायता से उसने एक ऐसी शासन – व्यवस्था का निर्माण किया जो उस समय के अनुकूल थी।
    • यह शासन व्यवस्था एक हद तक मगध के पूर्वगामी शासकों द्वारा विकसित शासनतंत्र पर आधारित थी किन्तु इसका अधिक श्रेय चंद्रगुप्त और कौटिल्य की सृजनात्मक क्षमता को ही दिया जाना चाहिए।
    • कौटिल्य ने लिखा है कि उस समय शासन तंत्र पर जो भी ग्रंथ उपलब्ध थे और भिन्न-भिन्न राज्यों में शासन – प्रणालियाँ प्रचलित थीं उन सबका भली-भाँति अध्ययन करने के बाद उसने अपना प्रसिद्ध ग्रंथ “अर्थशास्त्र” लिखा।
    • विद्वानों का विचार है कि मौर्य शासन व्यवस्था पर तत्कालीन यूनानी तथा आखमीनी शासन प्रणाली का भी कुछ प्रभाव पड़ा। चंद्रगुप्त ने ऐसी शासन व्यवस्था स्थापित की जिसे परवर्ती भारतीय शासकों ने भी अपनाया।
    • इस शासन की मुख्य विशेषताएँ थीं –
    1. सत्ता का अत्यधिक केन्द्रीकरण,
    2. विकसित आधिकारिक तंत्र,
    3. उचित न्याय व्यवस्था,
    4. नगर-शासन, कृषि, शिल्प उद्योग, संचार, वाणिज्य एवं व्यापार की वृद्धि के लिए राज्य के द्वारा अनेक कारगर उपाय।

चन्द्रगुप्त मौर्य साम्राज्य प्रशासन:-

    • मौर्य प्रशासन यथासंभव केन्द्रीकृत प्रशासन था। सेना, गुप्तचर व्यवस्था, न्यायपालिका, राजस्व आदि के लिए विभागाध्यक्ष थे, लेकिन इन सभी विभागों का नेतृत्व सामान्यतः राजा करता था। उसका निर्णय अंतिम और सीमित होता था। राजा अपनी प्रजा को मनुष्य नहीं बल्कि बच्चे समझता था। वह उनकी आवश्यकताओं का ध्यान रखने और उन्हें किसी भी प्रकार के आक्रमण और खतरों से बचाने के लिए बाध्य था।
    • चंद्रगुप्त ने एक जटिल शाही प्रशासन संरचना की स्थापना की। उसके पास अधिकांश शक्ति थी, और उसे अपने कर्तव्यों में मंत्रियों की एक परिषद द्वारा सहायता प्रदान की जाती थी।
    • राजकुमार पूरे साम्राज्य में वायसराय के रूप में काम करते थे, जो प्रांतों में विभाजित था। इससे राजघरानों को, खास तौर पर उन लोगों को जो बाद में सम्राट बने, आवश्यक प्रशासनिक अनुभव प्राप्त हुआ।
    • प्रांतों को छोटी-छोटी इकाइयों में विभाजित किया गया और शहरी तथा ग्रामीण दोनों क्षेत्रों के लिए प्रशासनिक व्यवस्था की गई। इनमें राजधानी पाटलिपुत्र सबसे प्रसिद्ध थी।
    • प्रशासन का काम छह आयोगों द्वारा किया जाता था, जिनमें से प्रत्येक में पाँच सदस्य होते थे। स्वच्छता सेवाओं का रखरखाव, विदेशियों के साथ व्यवहार, जन्म और मृत्यु पंजीकरण, वजन और माप नियंत्रण और अन्य कार्य उन्हें सौंपे गए थे। इस समय अवधि के दौरान इस्तेमाल किए जाने वाले वजन के कई रूप अलग-अलग स्थानों पर पाए गए हैं।

धार्मिक रुचि:-

    • चंद्रगुप्त धर्म में भी रुचि रखता था।
    • यूनानी लेखकों के अनुसार जिन चार अवसरों पर राजा महल से बाहर जाता था, उनमें एक था यज्ञ करना।
    • कौटिल्य उसका पुरोहित तथा मुख्यमंत्री था। हेमचंद्र ने भी लिखा है कि वह ब्राह्मणों का आदर करता है।
    • जैनियों का दावा है कि चंद्रगुप्त ने अपने जीवन के अंतिम समय में जैन मत स्वीकार कर लिया था और अपने पुत्र को राज्य देकर संन्यासी हो गया था।
    • एक जैन मुनि और अनेक अन्य साधुओं के साथ वह दक्षिण भारत गया, जहाँ उसने जैन धर्म की परंपरागत रीति से धीरे-धीरे अनाहार द्वारा अपने जीवन का अंत कर लिया।
    • जैन अनुयायियों के अनुसार जीवन के अन्तिम चरण में चंद्रगुप्त ने जैन धर्म स्वीकार कर लिया।
    • जब मगध में 12 वर्ष का दुर्भिक्ष पड़ा तो चंद्रगुप्त राज्य त्यागकर जैन आचार्य भद्रबाहु के साथ श्रवण बेल्गोला (मैसूर के निकट) चला गया और एक सच्चे जैन भिक्षु की भाँति उसने निराहार समाधिस्थ होकर ‘प्रायोपवेश’ प्रक्रिया से प्राणत्याग किया (अर्थात् कैवल्य प्राप्त किया)।
    • 900 ई. के बाद के अनेक अभिलेख भद्रबाहु और चंद्रगुप्त का एक साथ उल्लेख करते हैं।
      • सिकंदर की मृत्यु के बाद उसका सेनापति सेल्यूकस यूनानी साम्राज्य का शासक बना और उसने चंद्रगुप्त मौर्य पर आक्रमण कर दिया। पर उसे मुँह की खानी पड़ी। काबुल, हेरात, कंधार, और बलूचिस्तान के प्रदेश देने के साथ-साथ वह अपनी पुत्री हेलना का विवाह चंद्रगुप्त से करने के लिए बाध्य हुआ। इस पराजय के बाद अगले सौ वर्षो तक यूनानियों को भारत की ओर मुँह करने का साहस नहीं हुआ।
      • चंद्रगुप्त मौर्य का शासन-प्रबंध बड़ा व्यवस्थित था।
      • इसका परिचय यूनानी राजदूत मेगस्थनीज़ के विवरण और कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ से मिलता है।
      • लगभग-300 ई. पू. में चंद्रगुप्त ने अपने पुत्र बिंदुसार को गद्दी सौंप दी।

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