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खिलाफत और असहयोग आंदोलन – Khilafat and Non-Cooperation Movement

परिचय

  • जन आंदोलन: वर्ष 1919-1922 में भारत में ब्रिटिश शासन का विरोध करने हेतु खिलाफत और असहयोग, दो जन आंदोलन आयोजित किये गए थे।

    • दोनों ही आंदोलनों में भिन्न-भिन्न मुद्दें होने के बावज़ूद अहिंसा और असहयोग की एक एकीकृत योजना को अपनाया गया।
    • इस अवधि में कॉन्ग्रेस और मुस्लिम लीग का एकीकरण देखा गया। इन दोनों पार्टियों के संयुक्त प्रयास के तहत कई राजनीतिक प्रदर्शन आयोजित किये गए।
  • आंदोलनों के कारण: निम्नलिखित कारकों ने दो आंदोलनों की पृष्ठभूमि के रूप में कार्य किया:

    • सरकार के क्रूरतापूर्ण कार्य: रॉलेट एक्ट (Rowlatt Act), पंजाब में मार्शल लॉ लागू करने और जलियांवाला बाग हत्याकांड (Jallianwala Bagh Massacre) ने विदेशी शासन के क्रूर और असभ्य चेहरे को उजागर करने का कार्य किया।

      • पंजाब में हो रहे अत्याचारों की जाँच हेतु गठित हंटर आयोग (Hunter Commission) की पक्षपातपूर्ण रिपोर्ट।
      • हाउस ऑफ लॉर्ड्स (ब्रिटिश संसद के) में जलियांवाला बाग हत्याकांड को लेकर जनरल डायर की कार्रवाई को उचित ठराया जाना।
    • असंतुष्ट भारतीय: द्वैध शासन की अपनी कुविचारित योजना के साथ मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार (Montagu-Chelmsford Reforms) भारतीयों की स्वशासन की बढ़ती मांग को पूरा करने में विफल रहे।
    • आर्थिक कठिनाइयाँ: प्रथम विश्व युद्ध के बाद के वर्षों में देश की आर्थिक स्थिति विशेषकर वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि, भारतीय उद्योगों के उत्पादन में कमी, करों और किराये के बोझ में वृद्धि आदि के साथ और खतरनाक हो गई थी।

      • समाज के लगभग सभी वर्गों को युद्ध के कारण आर्थिक कठिनाई का सामना करना पड़ा रहा था जिससे लोगों में ब्रिटिश विरोधी रवैया और मज़बूत हो गया।

खिलाफत का मुद्दा:

  • अंग्रेजों के खिलाफ तुर्की का गठबंधन: भारत सहित विश्व भर के मुसलमान तुर्की के सुल्तान को अपना आध्यात्मिक नेता खलीफा (खलीफा) मानते थे।

    • प्रथम विश्व युद्ध के दौरान तुर्की ने अंग्रेजों के खिलाफ जर्मनी और ऑस्ट्रिया के साथ गठबंधन किया था।
  • असंतुष्ट भारतीय मुसलमान: भारतीय मुसलमानों ने प्रथम विश्व युद्ध के दौरान इस विश्वास के साथ ब्रिटिश सरकार का समर्थन किया कि तुर्क साम्राज्य (Ottoman Empire) के पवित्र स्थान खलीफा को दे दिये जाएगे।

    • हालांँकि प्रथम विश्व युद्ध के बाद तुर्क साम्राज्य विभाजित हो गया और तुर्की को अलग कर दिया गया तथा खलीफा को सत्ता से हटा दिया गया था।
    • इससे मुस्लिम नाराज हो गए तथा इसे खलीफा का अपमान माना। अली भाइयों, शौकत अली और मोहम्मद अली ने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ खिलाफत आंदोलन को शुरू कर दिया।
      • वर्ष 1919 से 1924 के मध्य यह आंदोलन हुआ।
  • खिलाफत समिति: वर्ष 1919 की शुरुआत में अली बंदुओं, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद (Maulana Abul Kalam Azad), अजमल खान और हसरत मोहानी के नेतृत्व में अखिल भारतीय खिलाफत समिति का गठन किया गया था ताकि ब्रिटिश सरकार को तुर्की के प्रति अपना रवैया बदलने हेतु मजबूर किया जा सके।
  • इस प्रकार देशव्यापी आंदोलन हेतु एक आधार निर्मित किया गया।
    • नवंबर 1919 में दिल्ली में अखिल भारतीय खिलाफत सम्मेलन आयोजित किया गया जिसमे ब्रिटिश सामानों के बहिष्कार का आह्वान किया गया।
  • भारतीय मुसलमानों की मांगें: भारत में मुसलमानों ने अंग्रेजों से निम्नलिखित माँगें की:

    • मुस्लिम पवित्र स्थानों पर खलीफा का नियंत्रण बरकरार रखा जाना चाहिये।
    • क्षेत्रीय व्यवस्था (Territorial Arrangements) के बाद खलीफा को पर्याप्त क्षेत्रों दिया जाना चाहिये।
  • कॉन्ग्रेस का प्रारंभिक रुख: खिलाफत आंदोलन की सफल बनाने हेतु कॉन्ग्रेस का सहयोग आवश्यक था।

    • हालांँकि महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) खिलाफत के मुद्दे पर सरकार के खिलाफ सत्याग्रह और असहयोग शुरू करने के पक्ष में थे, लेकिन कॉन्ग्रेस इस तरह की राजनीतिक कार्रवाई पर एकजुट नहीं थी।
    • बाद में कॉन्ग्रेस ने अपना समर्थन देने की इच्छा ज़ाहिर की क्योंकि यह हिंदुओं और मुसलमानों को एकजुट करने और ऐसे जन आंदोलनों में मुस्लिम भागीदारी को शामिल करने का एक सुनहरा अवसर था।
    • मुस्लिम लीग ने भी राजनीतिक सवालों पर कॉन्ग्रेस और उसके आंदोलन को पूर्ण समर्थन देने का फैसला किया गया।

असहयोग-खिलाफत आंदोलन:

महात्मा गांधी की भूमिका:

  • गांधीवादी आंदोलनों की शुरुआत: असहयोग आंदोलन अंग्रेजों के खिलाफ गांधीवादी आंदोलन की एक शुरुआत थी।

    • वर्ष 1915 में महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका से भारत लौट आए तथा भारतीयों पर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ खेड़ा (Kheda), चंपारण (Champaran) और अहमदाबाद में किसानों और मज़दूरों के विरोध प्रदर्शनों का आयोजन करना शुरू कर दिया।
  • असहयोग की शुरुआत: जलियांवाला बाग हत्याकांड में दमनकारी कार्यवाहियों और उचित न होने पर गांन्यायिक धी ने कहा, कि “राष्ट्रीय सम्मान की पुष्टि करने और भविष्य में गलतियों की पुनरावृत्ति को रोकने हेतु एकमात्र प्रभावी साधन स्वराज की स्थापना है”।

    • नतीजतन, 1 अगस्त, 1919 को महात्मा गांधी द्वारा असहयोग आंदोलन की घोषणा की गई।
    • इसे खिलाफत आंदोलन के समर्थन में शुरू किया गया था।

आंदोलन के दौरान कार्यक्रम:

  • अहिंसा के संदेश का प्रसार:आंदोलन की घोषणा के दिन लाखों देशवासियों ने गांधी को समर्थन देने और सरकार के प्रतिविरोध प्रदर्शित करने हुए कोई कार्य नहीं किया।

    • गांधी ने अली-बंदुओं के साथ राष्ट्रीय एकता का प्रसार करने और सरकार के साथ असहयोग करने के संदेश का प्रचार करने हेतु व्यापक दौरे किये।
  • ब्रिटिश उपाधियों और वस्तुओं का बहिष्कार: असहयोग के कार्यक्रम में ब्रिटिश उपाधियों और सम्मानों का बहिष्कार, ब्रिटिश न्यायालयों, विधायिकाओं तथा शैक्षणिक संस्थानों का बहिष्कार के साथ ही विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार भी शामिल था।

    • लोगों द्वारा विदेशी कपड़ों को सार्वजनिक रूप से जलाया गया जिसके कारण वर्ष 1920 और 1922 के मध्य विदेशी कपड़े के आयात में भारी गिरावट दर्ज़ की गई।
  • स्वदेशी का प्रचार: बहिष्कार ने स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग को बढ़ावा दिया, विशेष रूप से हाथ की कताई (चरखे द्वारा) और हाथ से बुने हुए खादी वस्त्रों के उपयोग को बढ़ावा मिला।अस्पृश्यता को दूर करने तथा हिंदू-मुस्लिम एकता को बढ़ावा देने हेतु प्रयास किये गए। मादक पेय पदार्थों का बहिष्कार किया गया।

    • चरखा एक महत्त्वपूर्ण घरेलू सामान बन गया।

आंदोलन के प्रति लोगों की प्रतिक्रिया:

  • छात्र: हजारों छात्रों ने सरकार द्वारा स्थापित स्कूलों और कॉलेजों को छोड़ दिया और बड़ी संख्या में आंदोलन में शामिल हो गए।
  • मध्यम वर्ग: शुरू में आंदोलन का नेतृत्व किया लेकिन बाद में माध्यम वर्ग द्वारा गांधी के कार्यक्रम के प्रति आपत्तियांँ दिखाईं गई।
  • व्यवसायी वर्ग: आर्थिक बहिष्कार की निति को भारतीय व्यापारिक समूह का समर्थन प्राप्त हुआ क्योंकि स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग से उन्हें लाभ प्राप्त हुआ।
  • कृषक वर्ग: आंदोलन में किसानों की बड़ी तादात में भागीदारी देखी गई थी। हालाँकि, इसने आगे चलकर ‘निम्न और उच्च जातियों’ के बीच टकराव को जन्म दिया।

    • आंदोलन ने जनता को अंग्रेजों के साथ-साथ उनके भारतीय आकाओं और उत्पीड़कों के खिलाफ अपनी वास्तविक भावनाओं को व्यक्त करने का अवसर दिया।
  • महिलाएंँ: महिलाओं ने बड़ी संख्या में आंदोलन में भाग लिया गया उनके द्वारा पर्दा प्रथा का त्याग किया गया तथा तिलक कोष के गठन हेतु अपने गहने तक दे दिये।

    • महिलाओं द्वारा विदेशी कपड़ों, शराब की दुकानों के सामने धरना प्रदर्शन में सक्रिय भाग लिया गया।
    • असहयोग आंदोलन की शुरुआत के एक वर्ष बाद महात्मा गांधी द्वारा तिलक स्वराज कोष की घोषणा की गई थी।
    • यह फंड बाल गंगाधर तिलक को उनकी पहली पुण्यतिथि पर श्रद्धांजलि थी, जिसका उद्देश्य भारत के स्वतंत्रता संग्राम और ब्रिटिश शासन के प्रतिरोध में सहायता हेतु 1 करोड़ रुपये एकत्र करना था।
  • सरकार की प्रतिक्रिया: आंदोलन के दमन हेतु पुलिस द्वारा फायरिंग का सहारा लिया गया जिसमें कई लोगों की जान चली गई।

    • कॉन्ग्रेस और खिलाफत स्वयंसेवी संगठनों को गैरकानूनी और अवैध घोषित कर दिया गया।
    • सार्वजनिक सभाओं पर प्रतिबंध लगा दिया गया और गांधी को छोड़कर अधिकांश नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया।

शामिल महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व:

  • सी राजगोपालाचारी, वल्लभभाई पटेल, गोपबंधु दास, अज़मल खान, सुभाष चंद्र बोस और जवाहरलाल नेहरू जैसे प्रख्यात व्यक्तियों ने आंदोलन में भाग लिया गया।
  • मोतीलाल नेहरू और चितरंजन दास भी अपना कानूनी पेशा छोड़कर आंदोलन में शामिल हो गए।
  • असहयोग आंदोलन को वापस लेना/समाप्ति: फरवरी 1922 में, उत्तर प्रदेश के चौरी-चौरा (Chauri Chaura) स्थान पर, भीड़ और थाने के पुलिसकर्मियों के मध्य हुए संघर्ष के बाद हिंसक भीड़ द्वारा 22 पुलिसकर्मियों की बेरहमी से हत्या कर दी गई थी।
  • इस खबर ने गांधी को बहुत झकझोर कर रख दिया। आंदोलन में तेजी से बढ़ती हिंसक प्रवृत्ति से नाखुश होकर उन्होंने तुरंत आंदोलन को वापस लेने की घोषणा कर दी।
  • हालांँकि, सी.आर. दास, मोतीलाल नेहरू, सुभाष बोस, जवाहरलाल नेहरू सहित अधिकांश राष्ट्रवादी नेताओं ने आंदोलन को वापस लेने के गांधी के फैसले पर अपनी असहमति व्यक्त की।
  • मार्च 1922 में गांधी को गिरफ्तार कर लिया गया तथा छह वर्ष के कारावास की सजा सुनाई गई।

आंदोलन की विफलता के कारण:

  • सरकार द्वारा बातचीत का अभाव: सरकार द्वारा आंदोलनकारियों से बात करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई गई जिससे आंदोलन की गति धीमी होने लगी अत: ऐसी स्थिति में एक लंबे समय तक आंदोलन में ऊर्जा और जोश को बनाए रखना संभव नहीं था।
  • खिलाफत के मुद्दे की प्रासंगिकता की समाप्ति: आंदोलन का केंद्रीय विषय, खिलाफत का प्रश्न था जो शीघ्र ही समाप्त हो गया।

    • नवंबर 1922 में, तुर्की के लोग मुस्तफा कमाल पाशा के अधीन उठ कड़े हुए और सुल्तान को राजनीतिक सत्ता से वंचित कर दिया। तुर्की को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित कर दिया गया।
    • तुर्की में कानूनी प्रणाली की एक यूरोपीय शैली की स्थापना की गई तथा महिलाओं को व्यापक अधिकार दिये गए।
    • शिक्षा का राष्ट्रीयकरण किया गया तथा आधुनिक कृषि और उद्योगों का विकास हुआ।
    • वर्ष 1924 में खिलाफत आंदोलन को समाप्त कर दिया गया।
  • सक्रिय प्रतिक्रिया का अभाव: कलकत्ता, बॉम्बे और मद्रास जैसी जगहों पर, जो कुलीन राजनेताओं के केंद्र थे, गांधी द्वारा आह्वान किये जाने पर बहुत सीमित प्रतिक्रिया ही देखी गई।

    • लोगों द्वारा सरकारी सेवा से त्यागपत्र, उपाधियों के समर्पण आदि के आह्वान पर प्रतिक्रिया को गंभीरता से नहीं लिया गया।
  • हिंसा का प्रयोग: लोगों ने अहिंसा की विधि को न तो सीखा था और न ही पूरी तरह समझा था।

    • चौरी-चौरा की घटना ने आंदोलन की भावना को प्रभावित किया जिसके कारण असहयोग आंदोलन को वापस ले लिया गया।

असहयोग आंदोलन का प्रभाव:

  • आंदोलन का अधिकतम प्रसार: असहयोग आंदोलन के साथ, राष्ट्रवादी भावनाएंँ देश के कोने-कोने में पहुंँच गईं और आबादी के प्रतिएक वर्ग का राजनीतिकरण किया जिसमे कारीगर, किसान, छात्र, शहरी गरीब, महिलाएंँ, व्यापारी आदि शामिल थे।
  • स्वराज और स्वदेशी संस्थानों की स्थापना: गुजरात विद्यापीठ, काशी विद्यापीठ, बिहार विद्यापीठ, बंगाल राष्ट्रीय विश्वविद्यालय, जामिया मिल्लिया इस्लामिया और राष्ट्रीय मुस्लिम विश्वविद्यालय जैसे राष्ट्रीय संस्थानों की स्थापना की गई।

    • इसने स्वराज, खादी के उपयोग के प्रति प्रेम और स्वदेशी बनने की मज़बूत विचार को जन्म दिया।
  • भारतीयों के मध्य एकता स्थापित करना: गांधी को सदी के एकमात्र निर्विवाद नेता के रूप में पेश करने वाले अंग्रेजों के खिलाफ विरोधी भावनाओं, शिकायतों से देश एकजुट हो गया ।

    • खिलाफत का मुद्दा सीधे तौर पर भारतीय राजनीति से नहीं जुड़ा था, लेकिन इसने आंदोलन को तत्काल एक घोषित उद्देश्य प्रदान किया तथा ब्रितानियों के खिलाफ हिंदू-मुस्लिम एकता को मजबूत करने का लाभ जोड़ा।
  • आर्थिक मोर्चे पर प्रभाव: विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया गया जिसके चलते वर्ष 1921 और 1922 के मध्य विदेशी कपड़े का आयात आधा हो गया।

    • कई स्थानों पर व्यापारियों और सट्टेबाजों ने विदेशी वस्तुओं के व्यापार या विदेशी व्यापार के वित्तपोषण से इनकार कर दिया।

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