स्वातंत्र्योत्तर भारत के राष्ट्र निर्माण और पुनर्गठन का दौर भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण और चुनौतीपूर्ण चरण था। 15 अगस्त 1947 को ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद, भारत के सामने न केवल राजनीतिक स्वतंत्रता को बनाए रखने की चुनौती थी, बल्कि एक नए राष्ट्र के निर्माण और पुनर्गठन की जिम्मेदारी भी थी।
1. संविधान का निर्माण और लोकतांत्रिक व्यवस्था की स्थापना
- भारतीय संविधान का निर्माण: स्वतंत्रता के बाद, भारत के लिए एक संविधान का निर्माण आवश्यक था जो एक संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, और लोकतांत्रिक गणराज्य की स्थापना की नींव रख सके। संविधान सभा का गठन किया गया, जिसमें विभिन्न क्षेत्रों, जातियों, और धर्मों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया। डॉ. बी.आर. अंबेडकर की अध्यक्षता में संविधान सभा ने 26 नवंबर 1949 को भारतीय संविधान को अपनाया, जो 26 जनवरी 1950 को प्रभावी हुआ। भारतीय संविधान ने एक लोकतांत्रिक ढांचे की स्थापना की, जिसमें न्याय, स्वतंत्रता, समानता, और बंधुत्व के मूल सिद्धांतों पर आधारित सरकार का प्रावधान किया गया।
- संघीय ढांचा: भारतीय संविधान ने संघीय ढांचे की स्थापना की, जिसमें केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का बंटवारा किया गया। यह ढांचा भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए आवश्यक था।
2. राज्यों का पुनर्गठन
- राज्य पुनर्गठन आयोग: स्वतंत्रता के बाद, भाषा और सांस्कृतिक विविधता के आधार पर राज्यों की पुनर्संरचना की मांग जोर पकड़ने लगी। 1953 में आंध्र प्रदेश की स्थापना के बाद, केंद्र सरकार ने 1955 में राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन किया। आयोग ने 1956 में अपनी रिपोर्ट दी, जिसमें भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की सिफारिश की गई। इसके परिणामस्वरूप, 1956 में राज्य पुनर्गठन अधिनियम पारित किया गया, जिससे भारत के राज्यों का नया भूगोल तैयार हुआ।
- भाषाई आधार पर राज्यों का गठन: भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन से विभिन्न भाषाई समूहों को अपनी सांस्कृतिक पहचान बनाए रखने और राजनीतिक प्रतिनिधित्व प्राप्त करने का अवसर मिला। इससे राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने में मदद मिली।
3. आर्थिक पुनर्निर्माण और योजनाबद्ध विकास
- पंचवर्षीय योजनाएँ: स्वतंत्रता के बाद भारत की आर्थिक पुनर्निर्माण की प्रक्रिया को व्यवस्थित और योजनाबद्ध तरीके से संचालित करने के लिए पंचवर्षीय योजनाओं की शुरुआत की गई। 1951 में पहली पंचवर्षीय योजना लागू की गई, जिसका मुख्य उद्देश्य कृषि उत्पादन बढ़ाना और भुखमरी की समस्या का समाधान करना था।
- उद्योग और अवसंरचना का विकास: पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से भारत में औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया को तेज किया गया। भारी उद्योगों, सिंचाई परियोजनाओं, बिजली उत्पादन, और परिवहन अवसंरचना पर विशेष ध्यान दिया गया। इससे भारत में औद्योगिक आधार का विकास हुआ और रोजगार के नए अवसर पैदा हुए।
4. सामाजिक और शैक्षिक सुधार
- सामाजिक सुधार: स्वतंत्रता के बाद सामाजिक सुधारों पर भी जोर दिया गया। जातिगत भेदभाव, छुआछूत, और सामाजिक असमानताओं के खिलाफ कानून बनाए गए। महिलाओं के अधिकारों को सुरक्षित करने के लिए विशेष प्रावधान किए गए, और बाल विवाह, दहेज प्रथा जैसी सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ कानूनी कदम उठाए गए।
- शैक्षिक सुधार: शिक्षा के क्षेत्र में भी व्यापक सुधार किए गए। प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के प्रसार के लिए विशेष योजनाएँ बनाई गईं। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT) और भारतीय प्रबंधन संस्थान (IIM) जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों की स्थापना की गई।
5. राष्ट्रीय एकता और सांप्रदायिक सद्भावना
- सांप्रदायिकता का मुकाबला: स्वतंत्रता के बाद भारत में सांप्रदायिक तनाव और विभाजन की चुनौतियाँ भी थीं। महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, और अन्य नेताओं ने सांप्रदायिक सद्भावना को बनाए रखने और धार्मिक सहिष्णुता को बढ़ावा देने के लिए लगातार प्रयास किए।
- राष्ट्रीय एकता: राष्ट्रीय एकता को बनाए रखने के लिए विभिन्न भाषाओं, संस्कृतियों, और धर्मों के बीच समन्वय और सह-अस्तित्व को प्रोत्साहित किया गया।
6. वैदेशिक नीति और गुटनिरपेक्षता
- गुटनिरपेक्षता की नीति: भारत की वैदेशिक नीति का मुख्य सिद्धांत गुटनिरपेक्षता था। पं. जवाहरलाल नेहरू ने गुटनिरपेक्ष आंदोलन का नेतृत्व किया, जिसका उद्देश्य शीत युद्ध के दौरान किसी भी शक्ति समूह से जुड़ने से बचना और स्वतंत्र एवं तटस्थ नीति अपनाना था।
- वैश्विक मंच पर भारत की भूमिका: स्वतंत्रता के बाद भारत ने वैश्विक मंच पर अपनी महत्वपूर्ण भूमिका स्थापित की। भारत ने शांति और अंतरराष्ट्रीय सहयोग के सिद्धांतों को बढ़ावा दिया और विकासशील देशों के अधिकारों की आवाज उठाई।
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