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शिवाजी की प्रारम्भिक विजय – Shivaji’s Initial Victory

छत्रपति शिवाजी महाराज की विजयें:-

1. प्रतापगढ़ की लड़ाई, 1659:- एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना है, जिसने छत्रपति शिवाजी महाराज की सैन्य रणनीति और साहस को उजागर किया। यह लड़ाई बीजापुर सल्तनत के सुल्तान आदिल शाह द्वारा भेजे गए सेनापति अफ़ज़ल खान और शिवाजी महाराज के बीच लड़ी गई थी।

पृष्ठभूमि:-

    • प्रतापगढ़ की लड़ाई की पृष्ठभूमि में बीजापुर सल्तनत और शिवाजी महाराज के बीच लगातार तनाव था।
    • शिवाजी महाराज ने बीजापुर के कमजोर क्षेत्रों पर कब्ज़ा करना शुरू कर दिया था, जिससे बीजापुर के सुल्तान को शिवाजी की बढ़ती ताकत का अंदेशा हुआ।
    • सुल्तान आदिल शाह ने शिवाजी महाराज को पराजित करने के लिए अपने सेनापति अफ़ज़ल खान को भेजा।

अफ़ज़ल खान की योजना:-

अफ़ज़ल खान एक अनुभवी और क्रूर सेनापति था। उसने सोचा कि वह शिवाजी महाराज को धोखे से मार देगा। उसने शिवाजी महाराज को एक बैठक के लिए आमंत्रित किया, जिसमें उसने दोस्ती का दिखावा किया, लेकिन उसकी योजना शिवाजी को मारने की थी।

शिवाजी महाराज की रणनीति:-

    • शिवाजी महाराज ने अफ़ज़ल खान की योजना को समझ लिया था।
    • उन्होंने इस बैठक के लिए विशेष तैयारी की।
    • शिवाजी महाराज ने अपने वस्त्रों के नीचे लोहे की चेन-बख्तर (कवच) पहना और बाघनख (लोहे के नाखून) और कटार को अपने साथ रखा।

लड़ाई का विवरण:-

    • 10 नवंबर 1659 को प्रतापगढ़ किले के पास एक बैठक का आयोजन किया गया।
    • जब अफ़ज़ल खान ने शिवाजी महाराज को गले लगाया और उन पर हमला करने का प्रयास किया, तो शिवाजी ने बाघनख और कटार से अफ़ज़ल खान पर जवाबी हमला किया, जिससे अफ़ज़ल खान वहीं मारा गया।
    • इसके बाद, शिवाजी महाराज के पहले से तैनात मावले (मराठा सैनिक) ने अफ़ज़ल खान की सेना पर अचानक हमला कर दिया और उन्हें परास्त कर दिया।

लड़ाई के परिणाम:-

    • प्रतापगढ़ की लड़ाई में शिवाजी महाराज की जीत ने उन्हें पश्चिमी भारत में एक महत्वपूर्ण सैन्य नेता के रूप में स्थापित किया।
    • अफ़ज़ल खान की मृत्यु और उसकी सेना की हार ने बीजापुर सल्तनत को गहरा आघात पहुंचाया और शिवाजी महाराज की प्रतिष्ठा को बढ़ाया।
    • इस जीत के बाद, शिवाजी महाराज ने कई और किले और क्षेत्र अपने नियंत्रण में ले लिए।
    • प्रतापगढ़ की लड़ाई ने शिवाजी महाराज की युद्धनीति, रणनीतिक कौशल, और साहस को स्पष्ट किया और उन्हें मराठा साम्राज्य के निर्माण में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला नायक बना दिया।

2. पवन खिंड की लड़ाई, 1660:- पवन खिंड की लड़ाई (1660) मराठा इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है, जिसमें शिवाजी महाराज के सेनापति बाजी प्रभु देशपांडे ने वीरता और बलिदान का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया। इस लड़ाई ने मराठा साम्राज्य की रक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और इसे भारतीय इतिहास में साहस और बलिदान के प्रतीक के रूप में देखा जाता है।

पृष्ठभूमि:-

    • 1660 में, बीजापुर सल्तनत के सेनापति सिद्दी जौहर ने शिवाजी महाराज के प्रमुख किले पन्हाला पर घेराबंदी कर दी।
    • शिवाजी महाराज इस घेराबंदी में फंस गए थे और उनकी स्थिति कमजोर हो रही थी।
    • इस संकट से बाहर निकलने के लिए, शिवाजी महाराज ने पन्हाला किले से भागने और विशाळगढ़ किले तक पहुंचने की योजना बनाई, जहाँ वे सुरक्षित रह सकते थे।

बाजी प्रभु देशपांडे का नेतृत्व:-

    • शिवाजी महाराज ने बाजी प्रभु देशपांडे को आदेश दिया कि वे अपने कुछ सैनिकों के साथ पवन खिंड में बीजापुरी सेना को रोके रखें ताकि शिवाजी महाराज सुरक्षित रूप से विशाळगढ़ पहुँच सकें।
    • बाजी प्रभु देशपांडे ने इस आदेश को वीरता के साथ स्वीकार किया और अपने सैनिकों के साथ पवन खिंड पर मोर्चा संभाल लिया।

लड़ाई का प्रारंभ:-

    • बाजी प्रभु और उनके सैनिकों ने पवन खिंड में दुश्मन सेना का डटकर सामना किया।
    • वे संख्या में कम थे, लेकिन उनके साहस और नेतृत्व ने दुश्मन को कई घंटों तक रोककर रखा।
    • इस दौरान, बाजी प्रभु गंभीर रूप से घायल हो गए, लेकिन उन्होंने लड़ाई जारी रखी ताकि शिवाजी महाराज को भागने का पर्याप्त समय मिल सके।

शिवाजी महाराज का विशाळगढ़ तक पहुंचना:-

    • बाजी प्रभु और उनके सैनिकों की बहादुरी के कारण, शिवाजी महाराज विशाळगढ़ किले तक सुरक्षित पहुँचने में सफल रहे।
    • जैसे ही शिवाजी महाराज विशाळगढ़ पहुंचे, उन्होंने एक संदेश बाजी प्रभु तक पहुँचाया कि वे सुरक्षित हैं।
    • इस संदेश को सुनकर, बाजी प्रभु ने अंतिम सांस ली, लेकिन उनके बलिदान ने मराठा साम्राज्य को सुरक्षित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

लड़ाई का परिणाम और महत्व:-

    • पवन खिंड की लड़ाई में बाजी प्रभु देशपांडे और उनके सैनिकों की वीरता और बलिदान ने शिवाजी महाराज को बीजापुर सल्तनत की सेना से बचने का मौका दिया।
    • इस लड़ाई ने मराठा योद्धाओं की दृढ़ता, वीरता और अपने नेता के प्रति अटूट वफादारी को प्रदर्शित किया।
    • बाजी प्रभु का बलिदान मराठा इतिहास में एक अमर घटना बन गया और यह लड़ाई एक प्रेरणा स्रोत बन गई।

स्मृति और सम्मान:-

    • पवन खिंड की लड़ाई और बाजी प्रभु देशपांडे का बलिदान आज भी महाराष्ट्र और भारत के अन्य हिस्सों में गर्व और सम्मान के साथ याद किया जाता है।
    • इस वीरता के प्रतीक के रूप में पवन खिंड में एक स्मारक स्थापित किया गया है, जो आने वाली पीढ़ियों को बाजी प्रभु और मराठा योद्धाओं के साहस और बलिदान की याद दिलाता है।
    • पवन खिंड की लड़ाई शिवाजी महाराज की सैन्य कौशल, मराठा सेना की वीरता, और अपने राज्य की रक्षा के लिए किए गए बलिदान का एक प्रतीक है, जो भारतीय इतिहास में सदैव स्मरणीय रहेगा।

3. सूरत की लड़ाई, 1664:- सूरत की लड़ाई (1664) शिवाजी महाराज द्वारा मुगलों के खिलाफ की गई एक महत्वपूर्ण सैन्य कार्रवाई थी। यह लड़ाई सूरत शहर पर मराठा सेना द्वारा किए गए छापे के रूप में जानी जाती है। सूरत, उस समय एक समृद्ध और महत्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र था, जहाँ से मुगल साम्राज्य को भारी राजस्व प्राप्त होता था।

पृष्ठभूमि:-

    • 1660 के दशक की शुरुआत में, शिवाजी महाराज ने पश्चिमी भारत में अपनी शक्ति को मजबूत कर लिया था और वे मुगल साम्राज्य के बढ़ते खतरे का सामना कर रहे थे।
    • सूरत शहर मुगल साम्राज्य के लिए एक महत्वपूर्ण आर्थिक केंद्र था, जहाँ से समुद्री व्यापार के माध्यम से बहुत सारा धन अर्जित होता था।
    • शिवाजी महाराज ने सूरत पर हमला करने की योजना बनाई ताकि मुगलों की आर्थिक शक्ति को कमजोर किया जा सके और साथ ही मराठा खजाने को भरने के लिए धन जुटाया जा सके।

शिवाजी महाराज का हमला:-

    • शिवाजी महाराज ने जनवरी 1664 में अपनी सेना के साथ सूरत पर अचानक हमला किया।
    • इस हमले में उनकी सेना ने शहर के भीतर फैले मुगल अधिकारियों और व्यापारियों के बस्तियों को निशाना बनाया।
    • सूरत की कमजोर सुरक्षा व्यवस्था के कारण शिवाजी महाराज की सेना ने आसानी से शहर पर कब्ज़ा कर लिया और बड़े पैमाने पर लूटपाट की।

लूटपाट का विवरण:-

    • शिवाजी महाराज की सेना ने सूरत में कई दिनों तक लूटपाट की।
    • उन्होंने वहां से भारी मात्रा में धन, सोना, चांदी, और अन्य कीमती सामानों को अपने कब्जे में लिया।
    • इस लूट से शिवाजी महाराज ने मराठा खजाने को समृद्ध किया, जो उनके आगे के अभियानों के लिए बहुत उपयोगी साबित हुआ।
    • इस दौरान, शिवाजी महाराज ने यह सुनिश्चित किया कि आम जनता और गरीबों को नुकसान न पहुंचे, और केवल मुगल अधिकारियों और धनी व्यापारियों को ही निशाना बनाया गया।

मुगलों की प्रतिक्रिया:-

    • सूरत पर हुए इस हमले से मुगल बादशाह औरंगजेब बेहद नाराज़ हुआ।
    • शिवाजी महाराज द्वारा किए गए इस छापे ने मुगलों की प्रतिष्ठा को गहरा आघात पहुंचाया, और इसने शिवाजी महाराज की सैन्य शक्ति और रणनीतिक कौशल को भी उजागर किया।
    • औरंगजेब ने शिवाजी महाराज को दंडित करने के लिए अपने सेनापतियों को और अधिक सख्ती से मराठा क्षेत्रों पर आक्रमण करने के आदेश दिए।

लड़ाई का परिणाम और महत्व:-

    • सूरत की लड़ाई ने शिवाजी महाराज की छवि को एक निडर और सक्षम सैन्य नेता के रूप में स्थापित किया।
    • इस लड़ाई ने यह भी साबित किया कि मराठा सेना मुगल साम्राज्य की समृद्धि को चुनौती दे सकती है।
    • इस छापे के बाद, शिवाजी महाराज का प्रभाव पश्चिमी भारत में और बढ़ गया, और उनकी प्रतिष्ठा को नई ऊंचाईयाँ मिलीं।

इतिहास में स्थान:-

    • सूरत की लड़ाई 1664 भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना है, जो शिवाजी महाराज की असाधारण सैन्य रणनीति और उनकी क्षमता को दर्शाती है।
    • यह लड़ाई मराठा साम्राज्य के विस्तार और मुगलों के खिलाफ उनके संघर्ष का एक महत्वपूर्ण चरण थी।

4. पुरंदर की लड़ाई, 1665:-

    • पुरंदर की लड़ाई (Battle of Purandar) औरंगजेब की ओर से मिर्जा राजे जय सिंह द्वारा मराठा साम्राज्य पर किए गए हमले का परिणाम थी।
    • छत्रपति शिवाजी महाराज के बढ़ते वर्चस्व ने आदिलशाही सेना और मुगलों को मुश्किल में डाल दिया था।
    • सन् 1665 तक लगभग आधा भारत हिन्दू स्वराज्य में परिवर्तित हो चुका था। दिल्ली की सरकार को यह डर सताने लगा था कि यदि छत्रपति शिवाजी को नहीं रोका गया तो वह दिन दूर नहीं जब शिवाजी का ध्वज दिल्ली की गद्दी पर फहराया जायेगा।
    • पुरंदर की लड़ाई (battle of purandar who won) महत्वपूर्ण थी क्योंकि पुरंदर किला मराठा प्रतिरोध का प्रतीक था। पुरंदर एक शक्तिशाली किला था जो मराठा लोगों के लिए सामरिक महत्व रखता था।
    • प्रतापगढ़, कोल्हापुर और पवनखंड की लड़ाई जीतने के बाद मुगलों के नियंत्रण से सूरत को लूट लिया और दिल्ली सल्तनत उनसे संपर्क भी नहीं कर सकी।
    • छत्रपति शिवाजी महाराज और उनके मराठा साम्राज्य को मिर्जा राजा जयसिंह और दक्कन के सरदार दलेर खान ने चुनौती दी थी।
    • लगातार युद्ध के कारण मराठा सैनिकों का शौर्य तो बढ़ा, लेकिन उनकी संख्या घटती गई। दिल्ली की सेना, जिसमें 14000-मजबूत सेना थी, छत्रपति शिवाजी को पकड़ने के प्रयास में पुरंदर की ओर बढ़ने लगी।

5. सिंहगढ़ की लड़ाई, 1670:- सिंहगढ़ की लड़ाई (1670) मराठा इतिहास की सबसे प्रसिद्ध और वीरतापूर्ण घटनाओं में से एक है। यह लड़ाई सिंहगढ़ किले पर मराठा योद्धाओं द्वारा कब्जा करने के लिए लड़ी गई थी, जो उस समय मुगलों के नियंत्रण में था। इस लड़ाई ने न केवल मराठा सैन्य कौशल को प्रदर्शित किया, बल्कि तानाजी मालुसरे की अद्वितीय वीरता और बलिदान को भी अमर कर दिया।

पृष्ठभूमि:-

    • 1665 में पुरंदर की संधि के तहत, शिवाजी महाराज को सिंहगढ़ सहित कई किले मुगलों को सौंपने पड़े थे।
    • हालाँकि, शिवाजी महाराज ने इन किलों को पुनः जीतने का संकल्प लिया और इसके लिए उन्होंने 1670 में अभियान शुरू किया।
    • सिंहगढ़ किला (जिसे पहले कोंढाणा किला कहा जाता था) एक रणनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थान था, और इसे पुनः प्राप्त करना मराठों के लिए आवश्यक था।

तानाजी मालुसरे की नियुक्ति:-

    • शिवाजी महाराज ने सिंहगढ़ को पुनः प्राप्त करने का कार्य अपने बचपन के मित्र और विश्वासपात्र योद्धा तानाजी मालुसरे को सौंपा।
    • तानाजी अपने साहस और युद्धकौशल के लिए प्रसिद्ध थे, और उन्होंने इस चुनौती को स्वीकार किया, भले ही उस समय उनके बेटे की शादी होने वाली थी।

लड़ाई का प्रारंभ:-

    • 4 फरवरी 1670 को तानाजी मालुसरे ने अपने मावलियों (मराठा सैनिकों) के साथ रात के अंधेरे में सिंहगढ़ किले पर चढ़ाई शुरू की।
    • सिंहगढ़ किला एक पहाड़ी पर स्थित था, और उस तक पहुंचना अत्यंत कठिन था।
    • तानाजी और उनके सैनिकों ने किले की दीवारों पर चढ़ने के लिए घोड़े की चमड़ी से बनी रस्सियों का इस्तेमाल किया।

लड़ाई का मुख्य हिस्सा:-

    • किले की चढ़ाई के बाद, तानाजी और उनके मावलियों ने मुगल रक्षक उदयभान राठौड़ और उसकी सेना के साथ भीषण संघर्ष किया।
    • इस संघर्ष में तानाजी ने अद्वितीय वीरता का प्रदर्शन किया, लेकिन दुर्भाग्यवश वे गंभीर रूप से घायल हो गए और वीरगति को प्राप्त हुए।
    • तानाजी की मृत्यु के बावजूद, उनके सैनिकों ने हिम्मत नहीं हारी और लड़ाई जारी रखी।

लड़ाई का परिणाम:-

    • तानाजी मालुसरे की मृत्यु के बाद, उनके भाई सूर्याजी मालुसरे ने नेतृत्व संभाला और मराठा सैनिकों को प्रेरित किया।
    • अंततः मराठों ने सिंहगढ़ किले पर कब्जा कर लिया।
    • इस जीत ने मराठा साम्राज्य की शक्ति और प्रभाव को फिर से स्थापित किया।

शिवाजी महाराज की प्रतिक्रिया:-

      • जब शिवाजी महाराज को तानाजी मालुसरे की वीरगति और किले की जीत की खबर मिली, तो उन्होंने दुख और गर्व के मिश्रण में कहा, “गढ़ आला पण सिंह गेला” (किला तो जीत लिया, लेकिन सिंह चला गया)। इस कथन से तानाजी की वीरता और बलिदान की गहराई का पता चलता है।

लड़ाई का महत्व:-

      • सिंहगढ़ की लड़ाई मराठा इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ थी।
      • इस लड़ाई ने मराठा साम्राज्य के लिए एक नई शक्ति और आत्मविश्वास प्रदान किया और उन्हें मुगलों के खिलाफ अपने संघर्ष में आगे बढ़ने का साहस दिया।
      • तानाजी मालुसरे की वीरता और बलिदान ने उन्हें मराठा योद्धाओं के बीच एक आदर्श बना दिया।

इतिहास में स्थान:-

      • सिंहगढ़ की लड़ाई भारतीय इतिहास में साहस, वीरता, और बलिदान का प्रतीक है।
      • तानाजी मालुसरे का नाम मराठा इतिहास में सदैव के लिए अमर हो गया, और सिंहगढ़ किला मराठा गौरव का प्रतीक बन गया।
      • आज भी सिंहगढ़ किला उन सभी को प्रेरणा देता है जो भारतीय इतिहास और संस्कृति की गहराई में जाना चाहते हैं।

6. कल्याण की लड़ाई, 1682-83 :- कल्याण की लड़ाई (1682-83) मराठा साम्राज्य और मुगल साम्राज्य के बीच लड़ी गई एक महत्वपूर्ण लड़ाई थी। यह संघर्ष पश्चिमी भारत के महत्वपूर्ण नगर कल्याण पर नियंत्रण के लिए हुआ। इस लड़ाई ने मराठा-मुगल संघर्ष को और भी तीव्र बना दिया और मुगलों के विस्तार को चुनौती दी।

पृष्ठभूमि:-

      • कल्याण उस समय एक महत्वपूर्ण और समृद्ध बंदरगाह नगर था, जो मराठा साम्राज्य के अधीन था।
      • यह नगर व्यापार और सैन्य दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण था, और इसे नियंत्रित करने का मतलब था समुद्री व्यापार पर प्रभुत्व स्थापित करना।
      • औरंगजेब की योजना थी कि वह मराठों को कमजोर करने के लिए उनके प्रमुख क्षेत्रों पर नियंत्रण स्थापित करे, और कल्याण पर हमला इस रणनीति का हिस्सा था।

मुगल अभियान:-

      • 1682 में, मुगल सेना ने कल्याण पर कब्जा करने के लिए एक बड़ा अभियान शुरू किया।
      • इस अभियान का नेतृत्व मुगल सेनापति खान जहान ने किया।
      • मुगल सेना ने कल्याण को घेर लिया और वहां की मराठा सेना पर हमला किया।
      • यह लड़ाई लंबे समय तक चली, और मराठा सैनिकों ने शहर की रक्षा के लिए दृढ़ प्रतिरोध किया।

मराठा प्रतिरोध:-

      • कल्याण की लड़ाई में मराठा सेना का नेतृत्व चिमाजी अप्पा ने किया, जो शिवाजी महाराज के पुत्र संभाजी महाराज के विश्वसनीय जनरल थे।
      • मराठा सेना ने मुगलों के खिलाफ़ जोरदार प्रतिरोध किया, और कल्याण की रक्षा के लिए अपने सभी संसाधनों का इस्तेमाल किया।
      • मराठा योद्धाओं ने अपनी युद्धकौशल और रणनीति का प्रदर्शन करते हुए मुगल सेना को कई बार पीछे हटने पर मजबूर किया।

लड़ाई का परिणाम:-

      • कल्याण की लड़ाई कई महीनों तक चली, लेकिन अंततः मुगलों को इस शहर पर कब्जा करने में सफलता मिली।
      • मुगल सेना ने कल्याण पर नियंत्रण स्थापित किया, लेकिन इस विजय के बावजूद, मुगलों को भारी हानि उठानी पड़ी।
      • मराठा सेना ने मुगलों को कल्याण में अधिक समय तक टिकने नहीं दिया, और जल्द ही मराठा योद्धाओं ने मुगलों को वहां से खदेड़ने की योजना बनानी शुरू कर दी।

परिणाम और प्रभाव:

      • कल्याण की लड़ाई ने मराठा और मुगल साम्राज्य के बीच संघर्ष को और अधिक तीव्र कर दिया।
      • यह लड़ाई यह दिखाती है कि मराठा साम्राज्य, मुगलों की विशाल सेना और शक्ति के सामने झुकने के लिए तैयार नहीं था।
      • हालांकि मुगलों ने कल्याण पर कब्जा कर लिया, लेकिन यह विजय उनके लिए टिकाऊ नहीं थी, और मराठों ने जल्द ही इस क्षेत्र को पुनः प्राप्त करने के प्रयास शुरू किए।

7. संगमनेर की लड़ाई, 1679:- संगमनेर की लड़ाई (1679) छत्रपति शिवाजी महाराज के जीवनकाल की अंतिम बड़ी लड़ाई मानी जाती है। यह लड़ाई मुगलों और मराठों के बीच संगमनेर नामक स्थान पर हुई थी, और इसने शिवाजी महाराज के सैन्य नेतृत्व और रणनीतिक कौशल को एक बार फिर साबित किया।

पृष्ठभूमि:-

      • 1679 के दौरान, मराठा साम्राज्य और मुगल साम्राज्य के बीच संघर्ष लगातार जारी था।
      • शिवाजी महाराज ने पश्चिमी भारत में अपने राज्य का विस्तार किया और मुगलों के लिए एक बड़ी चुनौती बने रहे।
      • इसी समय, औरंगजेब ने मराठा साम्राज्य को कमजोर करने और शिवाजी महाराज को पराजित करने के लिए कई प्रयास किए।
      • संगमनेर की लड़ाई उसी संघर्ष का एक हिस्सा थी।

लड़ाई का प्रारंभ:-

      • शिवाजी महाराज के संगमनेर से गुजरने के दौरान, मुगलों ने उनकी सेना पर अचानक हमला कर दिया।
      • मुगल सेना की इस घातक हमले के कारण मराठा सेना को सामरिक दृष्टि से असुविधाजनक स्थिति में लड़ाई लड़नी पड़ी।
      • मुगलों की सेना संख्या में अधिक और अच्छी तरह से सुसज्जित थी, जबकि मराठा सेना उस समय थकी हुई और संख्या में कम थी।

शिवाजी महाराज की रणनीति:-

      • शिवाजी महाराज ने स्थिति की गंभीरता को समझते हुए तत्काल निर्णय लिया।
      • उन्होंने अपने सैनिकों को संगमनेर के पास की पहाड़ियों में फैलने का आदेश दिया, जिससे मुगल सेना को भ्रम में डाला जा सके।
      • उन्होंने छोटी-छोटी टुकड़ियों में विभाजित होकर युद्ध छेड़ने की रणनीति अपनाई, जिससे मुगलों को कड़ी टक्कर दी जा सके।
      • शिवाजी महाराज ने अपने कुछ विश्वसनीय सैनिकों के साथ एक कठिन और साहसिक पलायन किया, जिसमें वे मुगल सेना से बचकर सुरक्षित स्थान तक पहुँचने में सफल रहे।

लड़ाई का परिणाम:-

      • संगमनेर की लड़ाई में मराठा सेना को काफी हानि हुई, और यह लड़ाई पूरी तरह से मराठा विजय में परिणत नहीं हो सकी।
      • हालांकि, शिवाजी महाराज की कुशल रणनीति और उनके नेतृत्व में अधिकांश मराठा सेना सुरक्षित बचने में सफल रही।
      • यह लड़ाई मराठा साम्राज्य के लिए एक कठिन परीक्षा थी, लेकिन इसने यह भी दिखाया कि शिवाजी महाराज की नेतृत्व क्षमता और साहसिकता किसी भी चुनौती का सामना कर सकती है।

शिवाजी महाराज की स्थिति:-

      • संगमनेर की लड़ाई के बाद, शिवाजी महाराज ने अपनी सेना को पुनर्गठित किया और अपने राज्य की सुरक्षा के लिए नए कदम उठाए।
      • इस लड़ाई के बाद, हालांकि शिवाजी महाराज का स्वास्थ्य धीरे-धीरे खराब होने लगा, लेकिन उनके राज्य का संगठन और सैन्य व्यवस्था सुदृढ़ रही।

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