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वैदिक साहित्य – Vedic Literature

    • वैदिक साहित्य का तात्पर्य उस ग्रन्थ से है, जिसमें वैदिक संहिताएँ, ब्राह्मण ग्रन्थ, अरण्यक, उपनिषद् और वेदांग आते हैं। इनमें वैदिक संहिता को सबसे प्राचीन माना जाता हैं।
    • वैदिक संहिताओं में चारों वेद ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद आते है। ऋग्वेद सबसे प्राचीनतम वैदिक साहित्य है तथा शेष तीन वेद- यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का संकलन बाद में हुआ है।
    • वैदिक साहित्य को ‘श्रुति’ भी कहा जाता है, क्योंकि ब्रह्मा ने विराटपुरुष भगवान् की वेदध्वनि को सुनकर ही प्राप्त किया है। अन्य ऋषियों ने भी इस साहित्य को श्रवण परम्परा से ही ग्रहण किया था तथा आगे की पीढ़ियों में भी ये श्रवण द्वारा पीढ़ी दर पीढ़ी स्थान्तरित होते गए। श्रुति परम्परा पर आधारित होने के कारण ही इन्हे श्रुति साहित्य कहा जाता है।
    • वेदों की रचना कब हुई और उनमें किस काल की सभ्यता का वर्णन मिलता है, इसको लेकर मतभेद है। भारतीय वेदों को अपौरुषेय (किसी पुरुष द्वारा न बनाया हुआ) मानकर ईश्वर की रचना मानते हैं। किन्तु पश्चिमी विद्वान इन्हें ऋषियों की रचना मानते हैं और इनके लेखन काल के सम्बन्ध में उन्होंने अनेक कल्पनाएँ की हैं।
    • मैक्समूलर के अनुसार वैदिक साहित्य का काल 1200 ई. पू. से 600 ई. पू. माना है। अर्थात आर्यों के भारत आगमन के समय ही वेदों की रचना हुई इसलिए आर्यों द्वारा विकसित सभ्यता को वैदिक सभ्यता कहा जाता है।
    • वैदिक साहित्य के अंतर्गत चार वेद,(ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद) ब्राह्मण ग्रन्थ, अरण्यक, उपनिषद्, वेदांग और सूत्र-साहित्य आते हैं।

वैदिक साहित्य के प्रकार :-

  • वैदिक साहित्य को मोटे तौर पर दो मुख्य प्रकारों में वर्गीकृत किया जाता है: श्रुति साहित्य और स्मृति साहित्य, जो सबसे पुराने हिंदू लेखन और सबसे पुराने संस्कृत साहित्य का निर्माण करते हैं। वेदों को मूल ग्रंथ माना जाता है, जो मौखिक परंपरा के माध्यम से पीढ़ियों से प्रसारित होते आ रहे हैं।
  • श्रुति साहित्य में वे रचनाएँ शामिल हैं जो हिंदू धर्म में मौलिक महत्व रखती हैं, अपनी गहन अंतर्दृष्टि के लिए पहचानी जाती हैं और निर्विवाद सत्यों के भंडार के रूप में मानी जाती हैं।
  • वेद: मूल और सबसे पुराने ग्रंथ, वेदों को चार भागों में विभाजित किया गया है – ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद। प्रत्येक वेद में संहिता (भजन), ब्राह्मण (अनुष्ठान और समारोह), आरण्यक (वन ग्रंथ) और उपनिषद (दार्शनिक शिक्षाएँ) शामिल हैं।

ऋग्वेद:-

    • ऋग्वेद, चार वेदों में सबसे प्राचीन और पवित्र ग्रंथ, संस्कृत भाषा में लिखा गया भजनों (सूक्त) का संग्रह है। इसकी रचना 1500 ई०पू० – 1000ई०पू० माना जाता है। महाभाष्य में ऋग्वेद की 21 शाखाओं का उल्लेख है, जिनमें पाँच शाखाएँ शाकल, वाष्कल, शांखायन, आश्वलायन और माण्डूकेय प्रमुख हैं।
    • ऋग्वेद का विभाजन मण्डलों में, मण्डल का विभाजन अनुवाकों में, अनुवाक का विभाजन सूक्तों में एवं सूक्त का विभाजन मंत्रों (ऋचाओं) में किया गया है। ऋग्वेद में 10 मण्डल, 85 अनुवाक, 1028 सूक्त (बाल खिल्य के 11 सूक्त को जोड़ने पर) एवं 10,627 (निश्चित ज्ञात नहीं) मंत्र (ऋचाएँ) हैं।
    • ऋग्वेद में कुल वर्गों की संख्या 2024 हैं और मन्त्रों की संख्या 10,627 हैं। ऋग्वेद के वैदिक मंत्रों का आख्यान करने वाले और कर्मकांड करवाने वाले पुरोहित को ‘होतृ’ कहा जाता था।
    • ऋग्वेद के अधिकांश मंत्रों की रचना ऋषियों ने की है लेकिन कुछ मंत्रों की रचना ऋषिकाओं (स्त्रियों) ने की है जिनके नाम लोपामुद्रा, अपाला, रोमशा, घोषा आदि हैं।
    • ऋग्वेद के 10 मंडलो में से 2 से लेकर 8 तक प्राचीनतम मण्डल हैं वहीं प्रथम और 10वां मण्डल सबसे नवीनतम माना जाता है।
    • ऋग्वेद में कुल 25 नदियों का उल्लेख किया गया है। ऋग्वेद के दसवें मंडल के नदी सूक्त में 21 नदियों का उल्लेख है। इनमें सबसे पहले स्थान पर गंगा नदी का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद के अनुसार, सिंधु आर्यों की सबसे प्रमुख नदी मानी गई है, जबकि सरस्वती को सबसे पवित्र और दूसरी सबसे महत्वपूर्ण नदी माना गया है। सरस्वती नदी ऋग्वेद में ‘नदीतमा/मातेतमा/देवीतमा ‘ अर्थात ‘नदियों की माता कहा गया है।
    • ऋग्वेद के दसवें मंडल के पुरुष सूक्त में एक विराट पुरुष द्वारा चार वर्णों की उत्पत्ति का उल्लेख मिलता है। इसके अनुसार, विराट पुरुष के मुख से ब्राह्मण की, भुजाओं से क्षत्रिय की, जांघों से वैश्य की और पैरों से शूद्र की उत्पत्ति हुई है।
    • गायत्री मंत्र का उल्लेख ऋग्वेद के तीसरे मंडल में है। यह सूर्य देवता सावित्री को समर्पित है।
    • ऋग्वेद में अनेक वर्तमान नदियों के वैदिक नामों का उल्लेख हैं। ऋग्वेद में नदियों को उनके प्राचीन नामो में वर्णित किया गया है
    • ऋग्वैदिक कालीन समाज पितृसत्तात्मक हुआ करता था। इस दौरान पिता की संपत्ति का उत्तराधिकारी सदैव पुत्र ही होता था। इस काल में नारी को माता के रूप में अत्यधिक सम्मान प्राप्त था। ऋग्वैदिक काल में सती प्रथा, बाल विवाह, पर्दा प्रथा जैसी कुरीतियां मौजूद नहीं थी।
    • वैदिक काल में इंद्र को सबसे प्रमुख देवता माना गया है। ऋग्वेद के दूसरे मंडल में इंद्र का सबसे अधिक 250 बार उल्लेख किया गया है। इंद्र के बाद अग्नि को दूसरा प्रमुख देवता माना गया है और अग्नि का उल्लेख ऋग्वेद में 200 बार किया गया है। इसके अलावा, ऋग्वेद में वरुण, सोम, मरूत, पर्जन्य, सूर्य पूषन इत्यादि देवताओं का उल्लेख भी मिलता है।
    • ऋग्वैदिक कालीन आर्यों का मुख्य व्यवसाय पशुपालन होता था। इस दौरान कृषि का पूर्ण विकास नहीं हो पाया था और ये लोग घुमक्कड़ जीवन जीते थे।
    • ऋग्वेद 500 ईस्वी तक नहीं लिखा गया था। 2000 ईसा पूर्व से 1900 ईस्वी तक, ब्राह्मणों ने मौखिक रूप से ऋग्वेद को पीढ़ी से पीढ़ी तक प्रसारित किया।

सामवेद:-

    • साम का अर्थ है गायन। यज्ञ के अवसर पर सामवेद में संकलित मंत्रों को देवताओं की स्तुति के समय गाया जाता था। सामवेद में कुल 1875 ऋचायें हैं, प्रायः ऋचाएँ ही गाई जाती थीं। अतः समस्त सामवेद में गायन ऋचाएँ ही हैं। इनमें से केवल 75 ही नई हैं, बाकी सब ऋग्वेद से ली गईं हैं।
    • भारतीय संगीत का आदिग्रन्थ सामवेद को कहा जाता है। सामवेद का उच्चारण करने वाले पुरोहित को ‘उदगातृ’ या उदगाता कहा जाता था।
    • सामवेद की तीन शाखाएँ कौथम, राणायनीय और जैमिनीय शाखाएँ मिलती है। पतंजलि के महाभाष्य और पुराणों में सामवेद की एक हजार शाखाओं का उल्लेख मिलता है।
    • बौद्ध ग्रन्थ दिव्यावदान में सामवेद की 1080 शाखाओं का उल्लेख प्राप्त हैं, किन्तु इन भाषाओं में अधिकांश के नाम तक नहीं प्राप्त होते हैं।
    • वेद के उद्गाता, गायन करने वाले जो कि सामग (साम गान करने वाले) कहलाते थे। उन्होंने वेदगान में केवल तीन स्वरों के प्रयोग का उल्लेख किया है जो उदात्त, अनुदात्त तथा स्वरित कहलाते हैं।
    • सामवेद के गान चार प्रकार के हैं- 1. ग्राम गान (ग्राम या सार्वजनिक स्थलों पर गाये जाने वाले गान), 2. आरण्य गान (अरण्य या वनों में गाये जाने वाले गाना), 3. उह गान (ग्राम गान का परिवर्तित एवं परिवर्द्धित रूप) एवं 4. उह्य गान (आरण्य गान का परिवर्तित एवं परिवर्द्धित रूप)। इस प्रकार सामवेद का संगीत की दृष्टि से बहुत अधिक महत्व है। साम गायन संगीत शास्त्र की आधारशिला मानी जाती है। सामवेद को भारतीय संगीत का जनक कहा जाता है।

यजुर्वेद-

    • यजुर्वेद में यज्ञ-विषयक मन्त्रों का संग्रह है। इनका प्रयोग यज्ञ के समय अध्वर्यु नामक पुरोहित किया करता था। यजुर्वेद में 40 अध्याय हैं। तथा 1975 मन्त्र निहित है। पाश्चात्य विद्वान इसे ऋग्वेद से काफी समय बाद का मानते हैं।
    • जटिल कर्मकाण्ड में उपयोगी होने के कारण यजुर्वेद अन्य सभी वेदों की अपेक्षा अधिक लोकप्रिय है। यज्ञ में कहे जाने वाले गद्यात्मक मन्त्रों को ‘यजुस’ कहा जाता है।। यज्ञ के अवसर पर जिन मन्त्रों के द्वारा देवताओं का यजन किया जाता था उसे यजुर्वेद के अन्तर्गत संकलित किया गया है।
    • यजुर्वेद के दो प्रमुख रूप/शाखा मिलते हैं। शुक्ल यजुर्वेद और कृष्ण यजुर्वेद।
    • `शुक्ल यजुर्वेद पद्यात्मक है जबकि कृष्ण यजुर्वेद में गद्य और पद्य दोनों का मिश्रण है। कृष्ण यजुर्वेद में मंत्रों के साथ साथ उनकी व्याख्या भी मिलती है।
    • यजुर्वेद के पद्यात्मक मन्त्र ऋग्वेद या अथर्ववेद से लिये गये है।
    • इनमें स्वतन्त्र पद्यात्मक मन्त्र बहुत कम हैं।
    • यजुर्वेद में यज्ञों और हवनों के नियम और विधान हैं।
    • यह ग्रन्थ कर्मकाण्ड प्रधान है।
    • यदि ऋग्वेद की रचना सप्त-सिन्धु क्षेत्र में हुई थी तो यजुर्वेद की रचना कुरुक्षेत्र के प्रदेश में हुई थी।
    • इस ग्रन्थ से आर्यों के सामाजिक और धार्मिक जीवन पर प्रकाश पड़ता है।
    • वर्ण-व्यवस्था तथा वर्णाश्रम की झाँकी भी इसमें है।

अथर्ववेद-

    • अथर्ववेद अन्य तीनों वेदों से भिन्न है। इसमें आयुर्वेद सम्बन्धी सामग्री अधिक है। इसका प्रतिपाद्य विषय विभिन्न प्रकार की ओषधियाँ, ज्वर, पीलिया, सर्पदंश, विष-प्रभाव को दूर करने के मन्त्र सूर्य की स्वास्थ्य-शक्ति, रोगोत्पादक कीटाणुओ के शमन अदि का वर्णन है।
    • इस वेद में यज्ञ करने के लाभ को तथा यज्ञ से पर्यावरण की रक्षा का भी वर्णन है। इसमें 20 काण्ड, 34 प्रपाठक, 111 अनुवाक, 731 सूक्त तथा 5,977 मन्त्र हैं, इनमें 1200 के लगभग मन्त्र ऋग्वेद से लिए गए हैं। अथर्ववेद का उच्चारण करने वाले पुरोहित को ‘ब्रह्म’ कहा जाता था
    • पतञ्जलि ने महाभाष्य में अथर्ववेद की नौ शाखाओं का उल्लेख किया है, जिनमें पिप्पलाट, शौनक मौद जाजल, देवदर्श, चारण विद्या. स्त्रीद, जलद और ब्रह्मवद संहिताएँ है। इन संहिताओं में शौनक और पिप्पलाद संहिता ही उपलब्ध हैं। अथर्ववेद की शौनक संहिता अधिक प्रामाणिक मानी जाती है, इसमें 20 काण्ड, 731 सूक्त और 5987 मंत्र संग्रहीत हैं।
    • इन मन्त्रों में कुछ मन्त्र ऋग्वेद से ग्रहण किये गये हैं। इनमें से 1200 मंत्र (लगभग 20%) ऋग्वेद (के 1ले, 8वें एवं 10वें मण्डल) से लिये गये हैं। अथर्ववेद को उसके रचयिताओं के नाम पर अथर्वांगीरस वेद कहा जाता है।
    • इसे अक्सर जादुई सूत्रों के वेद के रूप में संदर्भित किया जाता है। इसमें ऐसे भजन, मंत्र और जादू शामिल हैं जो यज्ञ (बलिदान) के दायरे से बाहर हैं।

ब्राह्मण ग्रन्थ- चारों वेदों के संस्कृत भाषा में प्राचीन समय में जो अनुवाद थे ‘मन्त्रब्राह्मणयोः वेदनामधेयम्’ के अनुसार वे ब्राह्मण ग्रंथ कहे जाते हैं।

    • चार मुख्य ब्राह्मण ग्रंथ ऐतरेय, शतपथ, साम और गोपथ हैं |
    • वेद संहिताओं के बाद ब्राह्मण-ग्रन्थों का निर्माण हुआ है।
    • इनमें यज्ञों के कर्मकाण्ड का विस्तृत वर्णन है, साथ ही शब्दों की व्युत्पत्तियाँ तथा प्राचीन राजाओं और ऋषियों की कथाएँ तथा सृष्टि-सम्बन्धी विचार हैं।
    • प्रत्येक वेद के अपने ब्राह्मण हैं।

अरण्यक – ब्राह्मणों के अन्त में कुछ ऐसे अध्याय मिलते हैं जो गाँवों या नगरों में नहीं पढ़े जाते थे।

    • इनका अध्ययन-अध्यापन गाँवों से दूर (अरण्यों/वनों) में होता था, अतः इन्हें आरण्यक कहते हैं।
    • गृहस्थाश्रम में यज्ञविधि का निर्देश करने के लिए ब्राह्मण-ग्रन्थ उपयोगी थे और उसके बाद वानप्रस्थ आश्रम में संन्यासी आर्य यज्ञ के रहस्यों और दार्शनिक तत्त्वों का विवेचन करने वाले आरण्यकों का अध्ययन करते थे।
    • उपनिषदों का इन्हीं आरण्यकों से विकास हुआ।
    • आरण्यको का मुख्य विषय आध्यात्मिक तथा दार्शनिक चिंतन है।
    • आरण्यकों में उपनिषदों के बीज मौजूद हैं, जो आत्मा, ब्रह्म और ब्रह्मांड की प्रकृति जैसे दार्शनिक विषयों पर गहन विचार करते हैं।
    • आरण्यक कर्मकांडों के बाहरी महत्व पर ध्यान केंद्रित करते हुए, आध्यात्मिक ज्ञान और आत्म-साक्षात्कार के महत्व पर भी बल देते हैं।

उपनिषद् –

    • उपनिषदों में मानव-जीवन और विश्व के गूढ़तम प्रश्नों को सुलझाने का प्रयत्न किया गया है। ये भारतीय अध्यात्म-शास्त्र के देदीप्यमान रत्न हैं। इनका मुख्य विषय ब्रह्म-विद्या का प्रतिपादन है। वैदिक साहित्य में इनका स्थान सबसे अन्त में होने से ये ‘वेदान्त’ भी कहलाते हैं।
    • इनमें जीव और ब्रह्म की एकता के प्रतिपादन द्वारा ऊँची-से-ऊँची दार्शनिक उड़ाने ली गई है। भारतीय ऋषियों ने गम्भीरतम चिन्तन से जिन आध्यात्मिक तत्त्वों का साक्षात्कार किया, उपनिषद उनका अमूल्य कोष हैं। इनमें अनेक शतकों की तत्त्व-चिन्ता का परिणाम है।
    • चारों वेदों से सम्बद्ध 108 उपनिषद् गिनाये गए हैं, किन्तु 11 उपनिषद् ही अधिक प्रसिद्ध हैं- ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य, बृहदारण्यक और श्वेताश्वतर इनमें छान्दोग्य और बृहदारण्यक अधिक प्राचीन और महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं।
    • भारत का आदर्श वाक्य ‘सत्यमेव जयते’ मुंडकोपनिषद से लिया गया है।

वेदांग –

    • काफी समय बीतने के बाद वैदिक साहित्य जटिल एवं कठिन प्रतीत होने लगा था। उस समय वेद के अर्थ तथा विषयों का स्पष्टीकरण करने के लिए अनेक सूत्र-ग्रन्थ लिखे जाने लगे। इसलिए इन्हें वेदांग कहा गया।
    • वेदांग छः हैं-
      • शिक्षा,
      • छन्द,
      • व्याकरण,
      • निरुक्त,
      • कल्प और
      • ज्योतिष।
    • पहले चार वेदांग, मन्त्रों के शुद्ध उच्चारण और अर्थ समझने के लिए तथा अन्तिम दो वेदांग धार्मिक कर्मकाण्ड और यज्ञों का समय जानने के लिए आवश्यक हैं।
    • व्याकरण को वेद का मुख कहा जाता है, ज्योतिष को नेत्र, निरुक्त को श्रोत्र, कल्प को हाथ, शिक्षा को नासिका तथा छन्द को दोनों पैर कहा जाता है।

सूत्र-साहित्य-

    • वैदिक साहित्य के विशाल एवं जटिल होने पर कर्मकाण्ड से सम्बद्ध सिद्धान्तों को एक नवीन रूप दिया गया। कम-से-कम शब्दों में अधिक-से-अधिक अर्थ-प्रतिपादन करने वाले छोटे-छोटे वाक्यों में सब महत्त्वपूर्ण विधि-विधान प्रकट किये जाने लगे। इन सारगर्भित वाक्यों को सूत्र कहा जाता था।
    • कर्मकाण्ड-सम्बन्धी सूत्र-साहित्य को चार भागों में बाँटा गया है-

1. श्रौत सूत्र

2. गृह्य सूत्र

3. धर्म सूत्र

4. शुल्ब सूत्र

    • पहले में वैदिक यज्ञ सम्बन्धी कर्मकाण्ड का वर्णन, दूसरे में गृहस्थ के दैनिक यज्ञों का, तीसरे में सामाजिक नियमों का और चौथे में यज्ञ-वेदियों के निर्माण का वर्णन है।

स्मृति वैदिक साहित्य:- इसके विपरीत, स्मृति साहित्य वैदिक काल के बाद रचित रचनाओं को संदर्भित करता है और इसे अक्सर स्मरणीय या पारंपरिक साहित्य माना जाता है। इस श्रेणी में शामिल हैं:

    • पुराण:- ये मिथकों, किंवदंतियों और देवी-देवताओं और नायकों की वंशावली का विशाल संकलन हैं। पुराण धार्मिक और नैतिक शिक्षाओं को कथात्मक रूप में प्रसारित करने का काम करते हैं।
    • उपांग:- वेदों के पूरक अंग, उपांग व्याकरण, मापविज्ञान, खगोल विज्ञान और कानून सहित विभिन्न विषयों को कवर करते हैं।
    • तंत्र:- अनुष्ठान, ध्यान और पूजा पर केंद्रित तंत्र विभिन्न आध्यात्मिक प्रथाओं के लिए निर्देश प्रदान करते हैं।
    • उपवेद:- प्रत्येक वेद से संबंधित चार विद्याएं – आयुर्वेद (चिकित्सा से संबंधित), धनुर्वेद (धनुर्वेद और युद्ध), गंधर्ववेद (संगीत और प्रदर्शन कला), और स्थापत्यवेद (वास्तुकला)।
    • महाकाव्य:-
      • रामायण:- रामायण को भारत का राष्ट्रीय महाकाव्य माना जाता है। यह भगवान राम की कहानी है, जो एक आदर्श राजा और पुरुष के रूप में प्रतिष्ठित हैं।
      • महाभारत:- महाभारत दुनिया का सबसे लंबा महाकाव्य है। यह कौरवों और पांडवों के बीच युद्ध की कहानी है, जो दो भाईयों के वंश हैं।

वैदिक साहित्य का महत्व:-

    • आध्यात्मिक ज्ञान: वेदों, विशेषकर उपनिषदों में गहन दार्शनिक अंतर्दृष्टि और आध्यात्मिक शिक्षाएं निहित हैं।
    • धार्मिक मार्गदर्शन: वैदिक साहित्य हिंदू अनुष्ठानों, समारोहों और बलिदानों के लिए विस्तृत निर्देश प्रदान करता है।
    • नैतिक शिक्षा: पुराण और इतिहास पौराणिक कथाओं में नैतिक और आचारिक शिक्षाएं समाहित करते हैं।
    • ऐतिहासिक अभिलेख: प्राचीन भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक पहलुओं और जीवनशैली की झलकियां प्रस्तुत करता है, तथा ऐतिहासिक पुनर्निर्माण में सहायता करता है।
    • भाषाई आधार: वेदांग, विशेषकर व्याकरण, संस्कृत भाषाविज्ञान और व्याकरण के विकास में योगदान देते हैं।
    • ज्योतिषीय और वैज्ञानिक अंतर्दृष्टि: वैदिक साहित्य में ज्योतिष प्राचीन भारतीय खगोल विज्ञान और वैज्ञानिक ज्ञान प्रदान करता है।
    • बाद के ग्रंथों का आधार: कई बाद के हिंदू धर्मग्रंथ वैदिक साहित्य से प्रेरणा और संदर्भ लेते हैं।

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