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भारत छोड़ो आंदोलन

भारत छोड़ो आंदोलन गाँधी जी के 3 सबसे प्रमुख आंदोलनों में से एक था (उनके अन्य 2 आंदोलन थे 1920 -22 का असहयोग आंदोलन एवं 1930 का सविनय अवज्ञा आंदोलन) इस आंदोलन में पूर्ण स्वराज की मांग प्रबलता से रखी गई, एक अंतरिम सरकार बनाने का सुझाव दिया गया और अंग्रेजी राज की भारत से समाप्ति के लिए अंतिम आह्वान किया गया | इस आंदोलन को “अगस्त क्रांति” के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि यह 9 अगस्त 1942 को शुरू हुआ था 14 जुलाई, 1942 को वर्धा में हुई कांग्रेस कार्य समिति की बैठक में गाँधी जी को आंदोलन की औपचारिक शुरुआत के लिए अधिकृत किया गया 8 अगस्त, 1942 को बम्बई में कांग्रेस कार्यकारिणी समिति की बैठक हुई जिसमें अंग्रेजों से भारत छोड़ने और एक “कामचलाऊ” (अंतरिम) सरकार के गठन की बात कही गई।

जब अधिवेशन में इस प्रस्ताव पर कुछ विरोध के स्वर उभरे तब उन्हें चुनौती देते हुए महात्मा गाँधी ने इस आंदोलन के प्रति अपनी प्रतिबद्धता प्रदर्शित की और कहा कि “यदि संघर्ष का यह प्रस्ताव नहीं स्वीकार किया गया तो मैं एक मुट्ठी बालू से ही कांग्रेस से भी बड़ा आंदोलन खड़ा कर दूंगा “। 8 अगस्त, 1942 को ऐतिहासिक ग्वालिया टैंक मैदान में बैठक हुई, इसी कार्यकारिणी की बैठक में वर्धा प्रस्ताव की पुष्टि की गई। भारत छोड़ो आंदोलन प्रस्ताव पारित होने के बाद गाँधीजी ने “करो या मरो” (Do or Die) का नारा दिया। इस प्रकार 8 अगस्त 1942 को यह आंदोलन प्रारंभ हो गया।

भारत छोड़ो आन्दोलन के कारण

भारत छोड़ो आंदोलन के निम्नलिखित कारण थे :-

क्रिप्स मिशन की असफलता : 1942 में क्रिप्स मिशन एक बार फिर भारतीयों को संतुष्ट करने में असफल रहा पिछले अन्य कई ब्रिटिश दौरों की तरह क्रिप्स मिशन से भी भारतीयों को कुछ हासिल नहीं हुआ और उनके पास आंदोलन का ही विकल्प बाकी रह गया।

द्वितीय विश्व युद्ध और जापानी आक्रमण का भय : द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटेन और जापान एक दूसरे के परस्पर विरोधी थे गांधीजी और कांग्रेस कार्यसमिति के अन्य नेताओं का मानना था कि यदि अंग्रेजी हुकूमत भारत से चली जाती है तो जापान के पास भारत पर हमला करने का कोई कारण नहीं रहना चाहिए अतः भारत को जापान के संभावित आक्रमण से बचाने के लिए और अंग्रेजी हुकूमत को भारत से समाप्त करने के लिए इस आंदोलन का सुझाव दिया गया।

युद्ध ने भारत की आर्थिक स्थिति खराब कर दी थी ,मुद्रास्फीति चरम पर थी और खाद्द्य पदार्थ की कमी से देश जूझ रहा था इस चौतरफा निराशा और बदहाली के माहौल में जनता ने इस आंदोलन का रास्ता चुना।

ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति बढ़ता अविश्वास : एक समय था जब ब्रिटिश साम्राज्यवाद का महिमामंडन किया जाता था लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध में संघर्षरत, कमजोर होती ब्रिटिश शक्ति को देखकर लोगों को बल मिला लोग अब यह सोचने लगे की अंग्रेजी हुकुमत को हराना कोई असंभव कार्य नहीं।

भारत छोड़ो आन्दोलन का स्वरुप

8 अगस्त सन् 1942 की रात को कांग्रेस कार्यसमिति ने भारत छोड़ो आंदोलन का प्रस्ताव पास किया 9 अगस्त की सुबह-सुबह बंबई में और पूरे देश में अनेक स्थानों पर बहुत सी गिरफ्तारियाँ हुई और ‘ऑपरेशन जीरो आवर’ के तहत कांग्रेस के लगभग सभी बड़े नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया, जिसमे गांधीजी भी शामिल थे । हालांकि गाँधी जी को गिरफ्तार कर लिया गया था, लेकिन देश भर के युवा कार्यकर्ता हड़तालों और तोड़फोड़ की कार्रवाइयों के जरिए आंदोलन चलाते रहे। कांग्रेस में जयप्रकाश नारायण जैसे समाजवादी सदस्य भूमिगत प्रतिरोध गतिविधियों में सबसे ज्यादा सक्रिय थे। पश्चिम में सतारा और पूर्व में मेदिनीपुर जैसे कई जिलों में “स्वतंत्र ” सरकार (प्रति-सरकार) की स्थापना कर दी गई थी। अंग्रेज़ों ने आंदोलन के प्रति काफी सख्त रवैया अपनाया फिर भी इस विद्रोह को दबाने में सरकार को साल भर से ज्यादा समय लग गया। महात्मा गाँधी, कस्तूरबा गाँधी, सरोजिनी नायडू, भूला भाई देसाई को गिरफ्तार कर पूना के आगा खाँ पैलेस में नजरबन्द कर दिया गया। गोविन्द बल्लभ पन्त को गिरफ्तार करके अहमदनगर के किले में रखा। जवाहरलाल नेहरू को अल्मोड़ा जेल, राजेन्द्र प्रसाद को बाँकीपुर तथा मौलाना अबुल कलाम आजाद को बाँकुड़ा जेल में रखा गया। बड़े नेताओं की गिरफ्तारी से आन्दोलन पर यह असर हुआ कि आन्दोलन नेतृत्वविहीन हो गया | फलस्वरूप लोग उग्र प्रदर्शन करने लगे | हड़तालें हुईं। सेना और पुलिस के विरुद्ध तोड़-फोड़ तथा विध्वंस किए गए। टाटा स्टील प्लाण्ट और इस जैसे कई अन्य बड़े कारखाने तरह बन्द हो गए | हड़ताल में मजदूरों की एक ही मांग थी कि वे तब तक काम पर नहीं लौटेंगे जब तक राष्ट्रीय सरकार नहीं बन जाती। अहमदाबाद में कपड़ा मिलों की हड़ताल तीन महीने से भी अधिक समय तक चली

भूमिगत आंदोलन : भारत छोड़ो आंदोलन की एक अहम विशेषता थी व्यापक पैमाने पर भूमिगत आंदोलनों का दृष्टिगोचर होना | सरकार के कठोर दमन के फलस्वरूप संघर्ष का जन आंदोलनत्मक दौर शीघ्र ही समाप्त हो गया और भूमिगत आंदोलनकारी गतिविधियां अधिक तीव्र हो गईं । जयप्रकाश नारायण 9 नवम्बर, 1942 को अपने 5 साथियों (रामानंदन मिश्र, सूरज नारायण सिंह, योगेंद्र शुक्ल, गुलाबी सोनार और शालीग्राम सिंह) के साथ हजारीबाग सेण्ट्रल जेल से फरार हो गए और एक केन्द्रीय संग्राम समिति का गठन किया। बिहार एवं नेपाल सीमा पर जयप्रकाश नारायण तथा रामानन्द मिश्रा ने समानान्तर सरकार का भी गठन किया। भूमिगत आंदोलनकारियों को समाज के हर वर्ग के लोगों से गुप्त सहायता मिलती थी। उदाहरणार्थ, सुमति मुखर्जी जो बाद में भारत की अग्रणी महिला उद्योगपति बनीं, ने अच्युत पटवर्द्धन को को बहुत आर्थिक सहायता दी । भूमिगत आंदोलनकारियों ने गुप्त कांग्रेस रेडियो का भी संचालन किया। ऐसे ही एक गुप्त रेडियो का संचालन बम्बई में उषा मेहता ने किया। इसका एक अन्य प्रसारण केन्द्र नासिक में भी था जिसका संचालन बाबू भाई करते थे। हालाँकि शीघ्र ही बाबू भाई तथा उषा मेहता पकड़े गए तथा उन्हें 4 वर्ष की सजा हुई। गाँधीजी ने सरकारी दमन के विरोध में 10 फरवरी, 1943 से 21 दिनों के लिए जेल में उपवास की घोषणा कर दी जिसकी खबर फैलते ही जनता का आक्रोश और बढ़ गया। वायसराय की कार्यकारिणी के 3 सदस्य एम. एस आणे, एन. आर सरकार और एच. पी मोदी ने गाँधीजी के रिहाई के प्रश्न पर कार्यकारिणी से इस्तीफा दे दिया । जून 1944 में जब विश्व युद्ध समाप्ति की ओर था तो गाँधी जी को स्वास्थ्य कारणों से जेल से रिहा कर दिया गया।

समानांतर सरकार अथवा “प्रति-सरकार” का गठन : भारत छोड़ो आंदोलन की जो सबसे उल्लेखनीय विशेषता थी वह थी देश के कई भागों में समानांतर सरकारों का गठन सबसे पहले अगस्त 1942 में ही उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में चित्तू पांडे के नेतृत्व में प्रथम समानांतर सरकार की घोषणा की गई चित्तू पांडे एक गांधीवादी स्वतंत्रता सेनानी थे बंगाल के मिदनापुर जिले के तामलुक नामक स्थान पर 17 दिसम्बर, 1942 को जातीय सरकार का गठन किया गया, जो 1944 ई. तक चलती रही। लेकिन स्थापित स्वशासित समानान्तर सरकारों में सर्वाधिक लम्बे समय तक चलने वाली सरकार सतारा की थी। यहाँ की सरकार 1943 में गठित की गई और 1945 ई. तक चली जिसके नेता वाई बी चाह्वाण तथा नाना पाटिल थे।

भारत छोड़ो आन्दोलन का महत्त्व

भारत छोड़ो आंदोलन को सही मायने में एक जन- आंदोलन माना जाता है जिसमें लाखों आम भारतियों ने हिस्सा लिया था । इस आंदोलन ने युवाओं,कृषकों ,महिलाओं व मजदूर वर्ग को भी बड़ी संख्या में अपनी ओर आकर्षित किया। यह आन्दोलन कांग्रेस के अन्य पूर्ववर्ती आंदोलनों के विपरीत कुछ हद तक हिंसक था इसका शायद सबसे बड़ा कारण यह रहा होगा कि आंदोलन की घोषणा होते ही कांग्रेस के सभी बड़े नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया और आंदोलन की बागडोर आम जनता के हाथों में आ गई और उन्होंने अपने-अपने ढंग से इसकी विवेचना की इस आंदोलन के 3 स्पष्ट चरण देखे जा सकते हैं पहले चरण में यह आंदोलन मुख्यता शहरों तक सीमित रहा दूसरे चरण में आंदोलन का केंद्र ग्रामीण क्षेत्रों तक विस्तृत हुआ तीसरे चरण में भूमिगत गतिविधियों एवं क्रांतिकारी घटनाओं का वर्चस्व रहा इस जनांदोलन ने देश के हर वर्ग को प्रभावित किया कृषकों की इसमें अहम भूमिका थी हिन्दू महासभा और साम्यवादी दल (communist party) को छोड़ कर लगभग सारे संगठनों ने इसमें हिस्सा लिया इस आन्दोलन के दौरान ही देश में अच्युत पटवर्धन, अरूणा आसफ अली, राम मनोहर लोहिया, सुचेता कृपलानी, छोटूभाई पुरानीक , बीजू पटनायक, आर.पी. गोयनका, जयप्रकाश नारायण, उषा मेहता, सुमति मुखर्जी इत्यादि जैसे नेत्रित्व उभरे हालाँकि आन्दोलन का दमन कर दिया गया , लेकिन अंग्रेजी हुकुमत को एक बार इस बात का एहसास हो गया अब भारत पे शासन करना उनके लिए अत्यंत दुष्कर हो गया है 1943 में लार्ड वेवेल लिनलिथगो की जगह भारत के वाइसराय बन कर आए उन्होंने इस गतिरोध को दूर करने के मकसद से “वेवेल योजना” सामने रखी इस पर वार्ता के लिए कांग्रेस के सभी नेताओं को रिहा कर दिया गया।

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