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संविधान की विशेषताएं – Features of the Constitution

भारत के संविधान की प्रमुख विशेषताएं

1. सबसे लंबा लिखित संविधान:- भारत का संविधान दुनिया के सबसे व्यापक और लंबे संविधानों की सूची में शामिल है। हमारे संविधान में 12 अनुसूचियाँ और 448 अनुच्छेद हैं। दुनिया भर के विभिन्न संविधानों के कई अनुच्छेदों को भारत के संविधान में एकीकृत किया गया है। भारतीय संविधान को इतना लंबा बनाने के कई कारण हैं:-

    • विभिन्न विषयों का समावेश: भारतीय संविधान में केवल सरकार की संरचना और शक्तियों का ही उल्लेख नहीं है, बल्कि इसमें नागरिकों के मौलिक अधिकारों, राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों, मौलिक कर्तव्यों, चुनाव प्रणाली, न्यायपालिका, आपातकालीन प्रावधानों आदि सहित कई अन्य विषयों का भी समावेश है।
    • विस्तृत प्रावधान: भारतीय संविधान में कई विषयों पर विस्तृत प्रावधान हैं, जैसे कि नागरिकता, मौलिक अधिकार, अल्पसंख्यकों के अधिकार, भाषाएं, शिक्षा, आदि।
    • संशोधनशीलता: भारतीय संविधान एक लचीला दस्तावेज है जिसे समय के साथ बदलने के लिए संशोधित किया जा सकता है।

2. विभिन्न स्रोतों से लिया गया संविधान:- भारत के संविधान ने अपने अधिकांश प्रावधानों को विभिन्न अन्य देशों के संविधानों के साथ-साथ 1935 के भारत सरकार अधिनियम [1935 अधिनियम के लगभग 250 प्रावधानों को संविधान में शामिल किया गया है] से उधार लिया है।

    • डॉ बी आर अम्बेडकर ने गर्व से कहा कि भारत के संविधान को ‘दुनिया के सभी ज्ञात संविधानों का निचौड़ करने के बाद तैयार किया गया है।
    • संविधान का संरचनात्मक हिस्सा काफी हद तक 1935 के भारत सरकार अधिनियम से लिया गया है।
    • संविधान का दार्शनिक हिस्सा (मौलिक अधिकार और राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत) क्रमशः अमेरिकी और आयरिश संविधानों से प्रेरित हैं।
    • संविधान का राजनीतिक हिस्सा (कैबिनेट सरकार का सिद्धांत और कार्यपालिका और विधायिका के बीच संबंध) काफी हद तक ब्रिटिश संविधान से लिया गया है।

3. कठोरता और लचीलेपन का मिश्रण:- भारतीय संविधान को दुनिया के सबसे लचीले संविधानों में से एक माना जाता है। इसका मतलब यह है कि इसे समय के साथ बदलती परिस्थितियों और आवश्यकताओं के अनुरूप बनाने के लिए संशोधित किया जा सकता है।

यह कठोरता और लचीलेपन का मिश्रण भारत के संविधान को एक मजबूत और टिकाऊ दस्तावेज बनाता है।

कठोर प्रावधान:

    • संप्रभुता, समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और गणतंत्र की स्थापना: ये संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा हैं और इन्हें आसानी से बदला नहीं जा सकता है।
    • मौलिक अधिकार: नागरिकों के मौलिक अधिकारों को संशोधित करने के लिए संसद के दो-तिहाई बहुमत की आवश्यकता होती है।
    • न्यायिक पुनरावलोकन: न्यायपालिका के पास यह तय करने का अधिकार है कि कानून संविधान के अनुरूप हैं या नहीं।

लचीले प्रावधान:

    • राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत: ये सिद्धांत राज्य को सामाजिक और आर्थिक न्याय प्राप्त करने के लिए मार्गदर्शन करते हैं, लेकिन वे न्यायिक रूप से लागू करने योग्य नहीं हैं।
    • संघीय प्रणाली: केंद्र और राज्य सरकारों के बीच शक्तियों का विभाजन संविधान में निर्धारित किया गया है, लेकिन इसे संशोधन द्वारा बदला जा सकता है।
    • चुनाव प्रणाली: चुनाव प्रणाली को संविधान में निर्धारित किया गया है, लेकिन इसे संशोधन द्वारा बदला जा सकता है।

कठोरता और लचीलेपन के मिश्रण के लाभ:

    • यह सुनिश्चित करता है कि संविधान मूल्यों और सिद्धांतों के प्रति वफादार रहे।
    • यह संविधान को समय के साथ बदलती परिस्थितियों के अनुकूल बनाने की अनुमति देता है।
    • यह सरकार को शक्ति का दुरुपयोग करने से रोकता है।
    • यह नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करता है।

4. संघात्मकता और एकात्मकता का मिश्रण:- भारतीय संविधान संघात्मक और एकात्मक शासन प्रणाली के सिद्धांतों का मिश्रण है। इसका मतलब है कि भारत में केंद्र और राज्य सरकारों के बीच शक्तियों का विभाजन होता है, लेकिन केंद्र सरकार के पास कुछ विशेष शक्तियां भी हैं जो इसे एकात्मक शासन की विशेषता देती हैं।

संघात्मक विशेषताएं:

    • शक्तियों का विभाजन: भारतीय संविधान के अनुसार, केंद्र और राज्य सरकारों के बीच शक्तियों का विभाजन तीन सूचियों में किया गया है:
    • केंद्रीय सूची: इसमें रक्षा, विदेश नीति, मुद्रा, बैंकिंग, संचार आदि जैसे विषय शामिल हैं।
    • राज्य सूची: इसमें पुलिस, सार्वजनिक व्यवस्था, स्थानीय सरकार, कृषि, सिंचाई, शिक्षा आदि जैसे विषय शामिल हैं।
    • सम्मिलित सूची: इसमें दोनों केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा किए जा सकने वाले विषयों की सूची शामिल है, जैसे कि अनुबंध, संपत्ति, न्यायालय, विवाह और तलाक आदि।
    • द्विसदनीय विधायिका: भारत में संसद की दो सदन होती है: लोकसभा (निचला सदन) और राज्यसभा (ऊपरी सदन)। लोकसभा का चुनाव सीधे जनता द्वारा किया जाता है, जबकि राज्यसभा के सदस्यों का चुनाव विधायिकाओं द्वारा किया जाता है।
    • स्वतंत्र न्यायपालिका: भारत में एक स्वतंत्र न्यायपालिका है जो संविधान की व्याख्या करने और यह सुनिश्चित करने के लिए जिम्मेदार है कि सभी कानून संविधान के अनुरूप हैं।

एकात्मक विशेषताएं:

    • मजबूत केंद्र सरकार: भारतीय संविधान केंद्र सरकार को कुछ विशेष शक्तियां प्रदान करता है जो इसे एकात्मक शासन की विशेषता देती हैं। इन शक्तियों में शामिल हैं:
    • आपातकालीन शक्तियां: राष्ट्रपति को युद्ध, बाहरी आक्रमण या राज्य में विद्रोह की स्थिति में आपातकाल की घोषणा करने का अधिकार है। आपातकाल के दौरान, केंद्र सरकार को राज्य सरकारों की शक्तियों को अपने हाथों में लेने का अधिकार होता है।
    • अवशिष्ट शक्तियां: वे शक्तियां जो केंद्र और राज्य सूचियों में स्पष्ट रूप से शामिल नहीं हैं, वे केंद्र सरकार के पास निहित हैं।
    • राज्यों का पुनर्गठन: केंद्र सरकार को संसद द्वारा पारित कानून द्वारा राज्यों का पुनर्गठन करने का अधिकार है।

संघात्मकता और एकात्मकता का मिश्रण के लाभ:

    • यह भारत की विविधता को एकजुट करने में मदद करता है।
    • यह केंद्र सरकार को देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए आवश्यक शक्तियां प्रदान करता है।
    • यह राज्य सरकारों को अपनी क्षेत्रीय जरूरतों और आकांक्षाओं के अनुसार शासन करने की अनुमति देता है।

5. सरकार का संसदीय स्वरूप:- भारत सरकार का संसदीय स्वरूप ब्रिटिश संसदीय प्रणाली से प्रेरित है। संसदीय शासन प्रणाली की कुछ प्रमुख विशेषताएं:

    • प्रधानमंत्री सरकार का प्रमुख होता है: प्रधानमंत्री सरकार का मुखिया होता है और वह विधायिका के प्रति जवाबदेह होता है।
    • मंत्रिमंडल प्रणाली: प्रधानमंत्री मंत्रियों की एक परिषद का नेतृत्व करते हैं, जो सरकार के विभिन्न विभागों के लिए जिम्मेदार होते हैं।
    • द्विसदनीय विधायिका: भारत में संसद की दो सदन होती है: लोकसभा (निचला सदन) और राज्यसभा (ऊपरी सदन)।
    • निर्माणात्मक अविश्वास प्रस्ताव: यदि लोकसभा सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पारित करती है, तो सरकार को पद छोड़ना होगा।
    • राष्ट्रपति का औपचारिक पद: राष्ट्रपति राज्य का प्रमुख होता है, लेकिन उसकी भूमिका मुख्य रूप से औपचारिक होती है।

सरकारी संसदीय स्वरूप का महत्व:

    • यह सरकार को अधिक जवाबदेह बनाता है: सरकार विधायिका के प्रति जवाबदेह होती है, जो जनता द्वारा चुनी जाती है। इसका मतलब है कि सरकार को जनता की जरूरतों और आकांक्षाओं के प्रति अधिक उत्तरदायी होना होता है।
    • यह स्थिरता प्रदान करता है: संसदीय प्रणाली आमतौर पर अधिक स्थिर होती है क्योंकि सरकार को तब तक सत्ता में रहने की अनुमति होती है जब तक उसके पास लोकसभा में बहुमत होता है।
    • यह विभिन्न समूहों का प्रतिनिधित्व करता है: संसदीय प्रणाली विभिन्न समूहों के प्रतिनिधित्व को बढ़ावा देती है क्योंकि यह विभिन्न राजनीतिक दलों को सत्ता में आने का अवसर प्रदान करती है।
    • यह मजबूत नेतृत्व प्रदान करता है: प्रधानमंत्री सरकार का प्रमुख होता है और उसके पास मजबूत नेतृत्व प्रदान करने की शक्ति होती है।

6. संसदीय संप्रभुता और न्यायिक सर्वोच्चता:- भारत की संसद की संप्रभुता का सिद्धांत ब्रिटिश संसद से लिया गया है जबकि न्यायिक सर्वोच्चता का सिद्धांत अमेरिकी सुप्रीम से लिया गया है।

    • भारतीय संविधान संसदीय संप्रभुता और न्यायिक सर्वोच्चता के सिद्धांतों के बीच एक अनूठा संतुलन स्थापित करता है।
    • भारतीय संसद में लोकसभा और राज्यसभा शामिल हैं, जो जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों से बनी होती हैं।
    • संसद के पास कानून बनाने, कर लगाने, बजट पारित करने और सरकार को नियंत्रित करने की शक्ति है।
    • न्यायिक सर्वोच्चता का अर्थ है कि न्यायालयों को यह तय करने का अधिकार है कि कानून संविधान के अनुरूप हैं या नहीं।
    • यदि कोई कानून संविधान के अनुरूप नहीं पाया जाता है, तो उसे अमान्य घोषित किया जा सकता है।
    • भारतीय न्यायपालिका में सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय और अधीनस्थ न्यायालय शामिल हैं।

दोनों सिद्धांतों के बीच संतुलन:

    • भारतीय संविधान इन दोनों सिद्धांतों के बीच एक सावधानीपूर्वक संतुलन स्थापित करता है।
    • संसद को व्यापक शक्तियां दी गई हैं, लेकिन उसकी शक्तियां संविधान द्वारा सीमित हैं।
    • न्यायालयों को यह सुनिश्चित करने का अधिकार है कि संविधान का उल्लंघन न हो, लेकिन वे कानून बनाने की प्रक्रिया में हस्तक्षेप नहीं कर सकते।

इस संतुलन के कुछ महत्वपूर्ण पहलू:

    • संविधान संशोधन: संसद के पास संविधान में संशोधन करने की शक्ति है, लेकिन कुछ बुनियादी ढांचे को छूने के लिए विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है।
    • न्यायिक समीक्षा: न्यायालयों के पास यह तय करने का अधिकार है कि कानून संविधान के अनुरूप हैं या नहीं।
    • न्यायिक सक्रियता: न्यायालयों ने कई मामलों में सामाजिक न्याय और मानवाधिकारों की रक्षा के लिए सक्रिय भूमिका निभाई है।

इस संतुलन का महत्व:

    • यह संतुलन भारत में लोकतंत्र को मजबूत बनाने में मदद करता है।
    • यह सुनिश्चित करता है कि सरकार शक्तिशाली न हो और नागरिकों के अधिकारों का उल्लंघन न हो।
    • यह यह भी सुनिश्चित करता है कि न्यायालय विधायिका और कार्यपालिका पर हावी न हो।

7. कानून का शासन:- कानून का शासन एक ऐसी अवधारणा है जिसका अर्थ है कि सभी लोग, चाहे वे कितने भी शक्तिशाली या गरीब क्यों न हों, कानून के अधीन हैं और कानून द्वारा समान व्यवहार किया जाता है।

भारत में कानून का शासन महत्वपूर्ण है क्योंकि:

    • यह मनमानी और निरंकुश शासन को रोकता है।
    • यह नागरिकों के अधिकारों और स्वतंत्रता की रक्षा करता है।
    • यह एक न्यायसंगत और समान समाज बनाने में मदद करता है।
    • यह कानून के प्रति सम्मान और विश्वास को बढ़ावा देता है।
    • यह आर्थिक विकास और समृद्धि के लिए अनुकूल वातावरण बनाता है।

हालांकि, भारत में कानून के शासन को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जिनमें शामिल हैं:

    • कानूनों का जटिल और अस्पष्ट होना: भारत में कानूनों की एक जटिल और अस्पष्ट प्रणाली है, जिसे समझना और पालन करना मुश्किल हो सकता है।
    • कानूनों का धीमा और अक्षम कार्यान्वयन: भारत में कानूनों का कार्यान्वयन धीमा और अक्षम है, जिसके कारण भ्रष्टाचार और अन्याय होता है।
    • कानूनी सहायता की कमी: गरीब और वंचित लोगों को अक्सर कानूनी सहायता तक पहुंच नहीं होती है, जिससे उन्हें न्याय मिलना मुश्किल हो जाता है।
    • न्यायिक प्रणाली पर बोझ: भारत की न्यायिक प्रणाली पर भारी बोझ है, जिसके कारण मामलों का निपटान धीमा होता है।

8. एकीकृत और स्वतंत्र न्यायपालिका:- भारतीय संविधान एक एकीकृत और स्वतंत्र न्यायपालिका स्थापित करता है, जो देश के लोकतंत्र की आधारशिला है।

एकीकृत न्यायपालिका के कुछ प्रमुख विशेषताएं:

    • एकल न्यायालय प्रणाली: भारत में सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय और अधीनस्थ न्यायालयों की एक एकीकृत न्यायालय प्रणाली है।
    • न्यायिक समीक्षा: न्यायालयों को यह तय करने का अधिकार है कि कानून संविधान के अनुरूप हैं या नहीं।
    • न्यायिक सक्रियता: न्यायालयों ने सामाजिक न्याय और मानवाधिकारों की रक्षा के लिए कई मामलों में सक्रिय भूमिका निभाई है।
    • न्यायिक स्वतंत्रता: न्यायाधीशों को कार्यपालिका और विधायिका से स्वतंत्र रूप से कार्य करने का अधिकार है।

स्वतंत्र न्यायपालिका के कुछ प्रमुख विशेषताएं:

    • न्यायाधीशों की नियुक्ति: न्यायाधीशों की नियुक्ति एक कॉलेजियम प्रणाली द्वारा की जाती है, जिसमें मुख्य न्यायाधीश और अन्य वरिष्ठ न्यायाधीश शामिल होते हैं।
    • न्यायाधीशों का कार्यकाल: न्यायाधीशों को निश्चित अवधि के लिए नियुक्त किया जाता है और उन्हें केवल दुराचार के लिए ही हटाया जा सकता है।
    • न्यायालयों की वित्तीय स्वतंत्रता: न्यायालयों को सरकार से स्वतंत्र रूप से धन प्राप्त होता है।

एकीकृत और स्वतंत्र न्यायपालिका का महत्व:

    • यह नागरिकों के अधिकारों और स्वतंत्रता की रक्षा करता है।
    • यह सरकार को मनमानी से रोकता है।
    • यह कानून के शासन को बनाए रखने में मदद करता है।
    • यह न्याय तक पहुंच प्रदान करता है।
    • यह लोकतंत्र में जनता के विश्वास को बनाए रखता है।

9. मौलिक अधिकार:- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 से 32 में नागरिकों को छह मौलिक अधिकार प्रदान किए गए हैं। ये अधिकार नागरिकों को उनकी स्वतंत्रता और गरिमा की रक्षा करते हैं और यह सुनिश्चित करते हैं कि उन्हें सरकार द्वारा मनमाने ढंग से व्यवहार न किया जाए।

मौलिक अधिकारों की सूची:

(i)समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14-18): यह सभी नागरिकों को जाति, धर्म, लिंग, जन्म स्थान या अन्य किसी भी आधार पर भेदभाव के बिना समानता प्रदान करता है।

(ii)स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19-22): यह नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सभा की स्वतंत्रता, आवागमन की स्वतंत्रता, व्यवसाय की स्वतंत्रता, शोषण के खिलाफ अधिकार और गिरफ्तारी और निरोध के खिलाफ अधिकार प्रदान करता है।

(iii)शोषण के खिलाफ अधिकार (अनुच्छेद 23-24): यह मानव तस्करी और बलात्श्रम को प्रतिबंधित करता है।

(iv)धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25-28): यह सभी नागरिकों को अपनी पसंद के धर्म का पालन करने, धार्मिक शिक्षा प्राप्त करने और धार्मिक संस्थानों की स्थापना करने की स्वतंत्रता प्रदान करता है।

(v)सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार (अनुच्छेद 29-30): यह अल्पसंख्यकों को अपनी भाषा, लिपि और संस्कृति को संरक्षित करने का अधिकार प्रदान करता है।

(vi)संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद 32): यह नागरिकों को मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के मामले में सीधे सर्वोच्च न्यायालय जाने का अधिकार प्रदान करता है।

मौलिक अधिकारों का महत्व:

    • वे नागरिकों को उनकी स्वतंत्रता और गरिमा की रक्षा करते हैं।
    • वे सरकार को मनमानी शक्तियों से रोकते हैं।
    • वे सभी नागरिकों के लिए समानता और न्याय सुनिश्चित करते हैं।
    • वे एक मजबूत और जीवंत लोकतंत्र को बनाए रखने में मदद करते हैं।

10. राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत:- भारतीय संविधान का भाग IV (अनुच्छेद 36 से 51)राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों (DPSP) को समर्पित है। ये सिद्धांत सरकार के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत हैं जो यह सुनिश्चित करने के लिए स्थापित किए गए हैं कि सरकार नागरिकों के कल्याण और सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए काम करे।

राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के कुछ मुख्य बिंदु:

    • सामाजिक न्याय: सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय सुनिश्चित करना।
    • समानता: जाति, धर्म, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव के बिना सभी नागरिकों के लिए समान अवसर प्रदान करना।
    • स्वतंत्रता: नागरिकों को शोषण से मुक्ति और जीवन की बुनियादी स्वतंत्रता प्रदान करना।
    • गरीबी उन्मूलन: गरीबी और भूख को मिटाने के लिए प्रयास करना।
    • शिक्षा का अधिकार: सभी नागरिकों को शिक्षा का मौलिक अधिकार प्रदान करना।
    • काम का अधिकार: सभी नागरिकों को उचित काम और मजदूरी का अधिकार प्रदान करना।
    • स्वास्थ्य का अधिकार: सभी नागरिकों को स्वास्थ्य सुविधाओं का अधिकार प्रदान करना।
    • बाल संरक्षण: बच्चों के अधिकारों की रक्षा करना और उनका सर्वांगीण विकास सुनिश्चित करना।
    • पर्यावरण संरक्षण: पर्यावरण की रक्षा करना और प्रदूषण को रोकना।

राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों का महत्व:

    • वे सरकार के लिए एक नैतिक ढांचा प्रदान करते हैं: वे सरकार को यह बताते हैं कि उसे नागरिकों के कल्याण के लिए कैसे काम करना चाहिए।
    • वे सामाजिक न्याय और समानता को बढ़ावा देते हैं: वे सभी नागरिकों के लिए समान अवसर और न्याय सुनिश्चित करने का प्रयास करते हैं।
    • वे सरकार को गरीबी, भूख और अशिक्षा जैसी सामाजिक समस्याओं से निपटने के लिए प्रेरित करते हैं।
    • वे नागरिकों को उनके अधिकारों के बारे में जागरूक करते हैं: वे नागरिकों को सामाजिक-आर्थिक न्याय के लिए आवाज उठाने के लिए प्रेरित करते हैं।

हालांकि, राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों को कानूनी रूप से लागू करने योग्य नहीं माना जाता है। इसका मतलब है कि यदि सरकार इन सिद्धांतों का पालन करने में विफल रहती है, तो न्यायालय उसे मजबूर नहीं कर सकते हैं।

इसके बावजूद, ये सिद्धांत सरकार के लिए नैतिक दायित्व बनाए रखते हैं और नागरिकों को सामाजिक-आर्थिक न्याय के लिए आंदोलन करने के लिए एक मजबूत आधार प्रदान करते हैं।

11. मौलिक कर्तव्य:- भारतीय संविधान के भाग IVA (अनुच्छेद 51A) में नागरिकों के लिए 11 मौलिक कर्तव्यों को शामिल किया गया है। ये कर्तव्य नागरिकों को देश के प्रति उनकी नैतिक जिम्मेदारियों की याद दिलाते हैं और एक मजबूत और समृद्ध राष्ट्र के निर्माण में योगदान करने का आह्वान करते हैं।

मौलिक कर्तव्यों की सूची:

(i)संविधान का सम्मान करना और उसका पालन करना: भारत के संविधान का सम्मान करना और उसके आदर्शों और सिद्धांतों का पालन करना।

(ii)राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रगान का सम्मान करना: राष्ट्रीय ध्वज का सम्मान करना और राष्ट्रगान के समय उठकर खड़ा होना।

(iii)देश की रक्षा करना और आह्वान किये जाने पर राष्ट्र की सेवा करना: देश की रक्षा के लिए तैयार रहना और जब भी आवश्यकता हो राष्ट्र की सेवा करना।

(iv)सांप्रदायिक समरसता और भाईचारा बनाए रखना: सभी धर्मों और समुदायों के लोगों के साथ भाईचारा और सद्भाव बनाए रखना।

(v)विज्ञान और ज्ञान को बढ़ावा देना: वैज्ञानिक सोच और ज्ञान को बढ़ावा देना और अंधविश्वासों और रूढ़िवादिता का विरोध करना।

(vi)पर्यावरण की रक्षा करना: प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा करना और प्रदूषण को रोकने में योगदान देना।

(vii)सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा करना: सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा करना और उसे नुकसान से बचाना।

(viii)बच्चों को शिक्षा का अधिकार प्रदान करना: 6 से 14 वर्ष की आयु के बच्चों को प्राथमिक शिक्षा का अधिकार प्रदान करना।

(ix)महिलाओं का सम्मान करना और उनकी गरिमा की रक्षा करना: महिलाओं का सम्मान करना और उन्हें समान अवसर प्रदान करना।

(x)कमजोर वर्गों का सशक्तिकरण: कमजोर वर्गों, जैसे कि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और विकलांगों का सशक्तिकरण करना।

(xi)नैतिक मूल्यों और राष्ट्रीय संस्कृति को बढ़ावा देना: नैतिक मूल्यों और राष्ट्रीय संस्कृति को बढ़ावा देना।

मौलिक कर्तव्यों का महत्व:

    • वे नागरिकों को देश के प्रति उनकी जिम्मेदारियों की याद दिलाते हैं।
    • वे एक मजबूत और एकजुट राष्ट्र के निर्माण में योगदान करते हैं।
    • वे सामाजिक न्याय और समानता को बढ़ावा देते हैं।
    • वे नागरिकों को एक बेहतर समाज बनाने के लिए प्रेरित करते हैं।

मौलिक कर्तव्य केवल कानूनी दायित्व नहीं हैं, बल्कि नागरिकों की नैतिक जिम्मेदारी भी हैं।

12. भारतीय धर्मनिरपेक्षता:- भारतीय धर्मनिरपेक्षता एक अनूठी अवधारणा है जो राज्य और धर्म के बीच पृथक्करण पर आधारित है। इसका मतलब है कि भारत एक ऐसा देश है जो सभी धर्मों का समान रूप से सम्मान करता है और किसी भी धर्म को राज्य धर्म का दर्जा नहीं देता है।

भारतीय धर्मनिरपेक्षता की विशेषताएं:

    • धर्मनिरपेक्षता: राज्य किसी भी धर्म का समर्थन या पक्षपात नहीं करता है।
    • धार्मिक स्वतंत्रता: सभी नागरिकों को अपनी पसंद के धर्म का पालन करने, प्रचार करने और उसका अभ्यास करने की स्वतंत्रता है।
    • समानता: सभी धर्मों और उनके अनुयायियों को कानून के समक्ष समान माना जाता है।
    • धर्मनिरपेक्ष चरित्र: सार्वजनिक संस्थानों और कानूनों का चरित्र धर्मनिरपेक्ष होना चाहिए।
    • सभी धर्मों का सम्मान: राज्य सभी धर्मों और उनके अनुयायियों का सम्मान करता है।

भारतीय धर्मनिरपेक्षता के महत्व:-

    • यह एकता और राष्ट्रीय अखंडता को बढ़ावा देता है: यह विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व और सद्भाव को सुनिश्चित करता है।
    • यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा करता है: यह सभी नागरिकों को अपनी पसंद के धर्म का पालन करने की स्वतंत्रता प्रदान करता है।
    • यह लोकतंत्र को मजबूत करता है: यह सुनिश्चित करता है कि राज्य किसी भी धार्मिक समूह द्वारा नियंत्रित नहीं है।
    • यह सामाजिक न्याय को बढ़ावा देता है: यह सभी धर्मों के लोगों के लिए समान अवसर सुनिश्चित करता है।

13. सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार:- सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार का अर्थ है कि 18 वर्ष या उससे अधिक आयु के सभी नागरिकों को, उनकी जाति, धर्म, लिंग, शिक्षा या सामाजिक स्थिति की परवाह किए बिना, चुनावों में मतदान करने का अधिकार है।

यह भारत के लोकतंत्र का एक मूलभूत सिद्धांत है और नागरिकों को शासन में भाग लेने और अपने प्रतिनिधियों को चुनने का अधिकार प्रदान करता है।

    • भारतीय संविधान: भारत के संविधान के अनुच्छेद 326 में सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार का प्रावधान है।
    • स्वतंत्रता आंदोलन: भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के लिए एक मजबूत आंदोलन था।
    • महिलाओं का मताधिकार: 1950 में भारत के संविधान के लागू होने के समय महिलाओं को भी मताधिकार प्राप्त हुआ।

भारत में सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार का महत्व:

    • यह सभी नागरिकों को समानता प्रदान करता है: यह सुनिश्चित करता है कि सभी नागरिकों, चाहे उनकी पृष्ठभूमि कुछ भी हो, को चुनावों में भाग लेने का समान अवसर प्राप्त हो।
    • यह लोकतंत्र को मजबूत करता है: यह नागरिकों को शासन में भाग लेने और अपने प्रतिनिधियों को जवाबदेह ठहराने की शक्ति प्रदान करता है।
    • यह राजनीतिक प्रतिनिधित्व में विविधता को बढ़ावा देता है: यह सुनिश्चित करता है कि विभिन्न समुदायों और समूहों के विचारों और दृष्टिकोणों का चुनाव प्रक्रिया में प्रतिनिधित्व किया जाता है।
    • यह सामाजिक न्याय को बढ़ावा देता है: यह हाशिए पर रहने वाले और वंचित समुदायों को अपनी आवाज उठाने और सरकार से जवाबदेही की मांग करने का एक मंच प्रदान करता है।

14. एकल नागरिकता:- एकल नागरिकता का अर्थ है कि किसी व्यक्ति की केवल एक ही देश की नागरिकता हो सकती है। भारत में, एकल नागरिकता भारतीय संविधान का एक मूलभूत सिद्धांत है।

भारत में एकल नागरिकता की विशेषताएं:

    • जन्म के आधार पर नागरिकता: भारत में जन्मे सभी व्यक्ति स्वतः ही भारतीय नागरिक बन जाते हैं।
    • प्राकृतिककरण द्वारा नागरिकता: कुछ शर्तों को पूरा करने वाले विदेशी नागरिक भी भारतीय नागरिकता प्राप्त कर सकते हैं।
    • नागरिकता का त्याग: भारतीय नागरिक अपनी नागरिकता का त्याग कर सकते हैं, लेकिन ऐसा करने के लिए उन्हें कुछ सख्त प्रक्रियाओं का पालन करना होता है।
    • दोहरी नागरिकता का प्रतिबंध: भारत में दोहरी नागरिकता की अनुमति नहीं है, कुछ अपवादों को छोड़कर।

भारत में एकल नागरिकता का महत्व:

    • राष्ट्रीय एकता और अखंडता: यह भारत को एक एकीकृत राष्ट्र के रूप में स्थापित करने और सभी नागरिकों के लिए समानता सुनिश्चित करने में मदद करता है।
    • राष्ट्रीय सुरक्षा: यह देश की राष्ट्रीय सुरक्षा को मजबूत करने में मदद करता है, क्योंकि यह दोहरी निष्ठा के मुद्दों को कम करता है।
    • प्रशासनिक सुविधा: यह नागरिकता से संबंधित कानूनों और प्रक्रियाओं को सरल बनाने में मदद करता है।
    • सामाजिक न्याय: यह यह सुनिश्चित करने में मदद करता है कि सभी नागरिकों को समान अधिकार और अवसर प्राप्त हों, चाहे उनकी मूल पृष्ठभूमि कुछ भी हो।

15. स्वतंत्र निकाय:- भारतीय लोकतंत्र में स्वतंत्र निकाय महत्वपूर्ण स्तंभ हैं। ये संवैधानिक रूप से स्थापित संस्थाएं हैं जो सरकार से स्वतंत्र रूप से कार्य करती हैं और विभिन्न महत्वपूर्ण कार्यों का निर्वहन करती हैं।

स्वतंत्र निकायों के प्रकार:

    • चुनाव संबंधी निकाय: निर्वाचन आयोग, मुख्य निर्वाचन अधिकारी
    • न्यायिक निकाय: उच्च न्यायालय, सर्वोच्च न्यायालय
    • वित्तीय निकाय: भारतीय रिजर्व बैंक, लेखा परीक्षा नियंत्रक और महालेखाकार (CAG)
    • अन्य निकाय: केंद्रीय सूचना आयोग, मानवाधिकार आयोग, लोकपाल

स्वतंत्र निकायों के कार्य:

    • चुनावों का संचालन: निर्वाचन आयोग स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों का संचालन करने के लिए जिम्मेदार है।
    • न्याय का वितरण: न्यायपालिका कानूनों की व्याख्या करती है और न्याय का वितरण करती है।
    • सरकारी खर्चों का ऑडिट: CAG सरकार के खर्चों का ऑडिट करता है और यह सुनिश्चित करता है कि वे कानूनों और विनियमों के अनुसार किए गए हैं।
    • सूचना का अधिकार: केंद्रीय सूचना आयोग नागरिकों को सूचना का अधिकार (RTI) प्रदान करता है।
    • मानवाधिकारों की रक्षा: मानवाधिकार आयोग मानवाधिकारों के उल्लंघन की जांच करता है और पीड़ितों को न्याय दिलाने में मदद करता है।
    • भ्रष्टाचार की जांच: लोकपाल भ्रष्टाचार के मामलों की जांच करता है और सार्वजनिक सेवाओं में ईमानदारी और जवाबदेही को बढ़ावा देता है।

स्वतंत्र निकायों का महत्व:

    • लोकतंत्र को मजबूत करना: वे सरकार को मनमानी शक्तियों से रोकते हैं और शक्ति के पृथक्करण के सिद्धांत को बनाए रखने में मदद करते हैं।
    • जवाबदेही सुनिश्चित करना: वे सरकार को अपने कार्यों के लिए जवाबदेह ठहराते हैं और यह सुनिश्चित करते हैं कि वे कानून और संविधान का पालन करते हैं।
    • न्याय और समानता को बढ़ावा देना: वे सभी नागरिकों के लिए समान अधिकार और अवसर सुनिश्चित करने में मदद करते हैं।
    • सार्वजनिक हित की रक्षा करना: वे सार्वजनिक हित की रक्षा करते हैं और यह सुनिश्चित करते हैं कि सरकार नागरिकों के सर्वोत्तम हितों में कार्य करती है।

16. आपातकालीन प्रावधान:- भारतीय संविधान का भाग XVIII (अनुच्छेद 352 से 360) आपातकालीन प्रावधानों से संबंधित है। ये प्रावधान सरकार को युद्ध, बाहरी आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह जैसी असाधारण परिस्थितियों में देश की सुरक्षा और अखंडता को बनाए रखने के लिए असाधारण शक्तियां प्रदान करते हैं।

प्रकार के आपातकाल:

    • राष्ट्रीय आपातकाल (अनुच्छेद 352): युद्ध या बाहरी आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह के कारण घोषित किया जा सकता है।
    • राज्य में आपातकाल (अनुच्छेद 356): राज्य में संवैधानिक तंत्र के विफल होने पर घोषित किया जा सकता है।
    • वित्तीय आपातकाल (अनुच्छेद 360): भारत या उसके किसी क्षेत्र की वित्तीय स्थिरता या साख के लिए खतरा होने पर घोषित किया जा सकता है।

आपातकाल की घोषणा:

    • राष्ट्रपति किसी भी प्रकार के आपातकाल की घोषणा कर सकते हैं।
    • राज्यपाल राज्य में आपातकाल की घोषणा कर सकते हैं, लेकिन उन्हें राष्ट्रपति से अनुमोदन प्राप्त करना होगा।
    • संसद राष्ट्रपति द्वारा घोषित राष्ट्रीय आपातकाल को अनुमोदित या रद्द कर सकती है।

आपातकाल के दौरान राष्ट्रपति की शक्तियां:

    • कानून बनाना: राष्ट्रपति संसद द्वारा पारित किए गए किसी भी कानून को रद्द कर सकते हैं और संपूर्ण देश या उसके किसी भी भाग पर लागू होने वाले अध्यादेश जारी कर सकते हैं।
    • मौलिक अधिकारों का निलंबन: राष्ट्रपति कुछ मौलिक अधिकारों को निलंबित कर सकते हैं, सिवाय अनुच्छेद 20 और 21 के (जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार)।
    • राज्यों पर शासन: राष्ट्रपति राज्य सरकारों को भंग कर सकते हैं और राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर सकते हैं।

आपातकाल की समाप्ति:

    • राष्ट्रीय आपातकाल: राष्ट्रपति द्वारा घोषणा की तारीख से छह महीने के भीतर समाप्त हो जाता है, जब तक कि संसद द्वारा इसे मंजूरी नहीं दी जाती है।
    • राज्य में आपातकाल: राज्यपाल द्वारा घोषणा की तारीख से छह महीने के भीतर समाप्त हो जाता है, जब तक कि राष्ट्रपति द्वारा इसे मंजूरी नहीं दी जाती है।
    • वित्तीय आपातकाल: राष्ट्रपति द्वारा घोषणा की तारीख से छह महीने के भीतर समाप्त हो जाता है।

आपातकाल का इतिहास:

भारत में केवल तीन बार आपातकाल लागू किया गया है:

    • 1962: चीन-भारत युद्ध के दौरान।
    • 1975-1977: तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा घोषित।
    • 1984: ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद।

17. त्रिस्तरीय सरकार:- भारत में त्रिस्तरीय सरकार शासन की एक प्रणाली है जो शक्ति को केंद्र सरकार, राज्य सरकारों और स्थानीय सरकारों (पंचायतों) के बीच वितरित करती है। यह प्रणाली भारतीय संविधान के 73वें और 74वें संशोधन द्वारा स्थापित की गई थी।

त्रिस्तरीय सरकार के स्तर:

    1. केंद्र सरकार:
      • यह भारत की संपूर्ण सरकार का मुखिया है।
      • यह रक्षा, विदेश नीति, वित्त, मुद्रा, रेलवे, संचार आदि जैसे विषयों के लिए जिम्मेदार है।
    2. राज्य सरकारें:
      • ये भारत के 28 राज्यों और 8 केंद्र शासित प्रदेशों के लिए जिम्मेदार हैं।
      • ये कानून और व्यवस्था, शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, सिंचाई, बिजली आदि जैसे विषयों के लिए जिम्मेदार हैं।
    3. स्थानीय सरकारें (पंचायतें):
      • ये ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में स्थानीय स्तर पर शासन करती हैं।
      • ये शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छता, पेयजल आपूर्ति, सड़क निर्माण आदि जैसी बुनियादी सुविधाओं और सेवाओं के लिए जिम्मेदार हैं।

त्रिस्तरीय सरकार के लाभ:

    • विकास को बढ़ावा देता है: यह स्थानीय स्तर पर विकास योजनाओं और कार्यक्रमों को बेहतर ढंग से लागू करने में मदद करता है।
    • स्थानीय मुद्दों का समाधान: यह स्थानीय लोगों को उनकी आवश्यकताओं और समस्याओं के लिए अधिक प्रभावी ढंग से समाधान खोजने में मदद करता है।
    • सामाजिक न्याय को बढ़ावा देता है: यह हाशिए पर रहने वाले समुदायों और वंचित समूहों को सशक्त बनाने में मदद करता है।
    • लोकतंत्र को मजबूत करता है: यह नागरिकों को शासन में भाग लेने और उन्हें अधिक जवाबदेह बनाने में मदद करता है।

18. सहकारी समितियां– सहकारी समितियां भारत में एक महत्वपूर्ण सामाजिक-आर्थिक आंदोलन हैं जो लोगों को एक साथ आने और अपनी साझा जरूरतों को पूरा करने के लिए स्वैच्छिक रूप से सहयोग करने के लिए प्रोत्साहित करती हैं।

सहकारी समितियों के प्रकार:

    • साख सहकारी समितियां: ये समितियां अपने सदस्यों को ऋण प्रदान करती हैं।
    • उत्पादन सहकारी समितियां: ये समितियां अपने सदस्यों द्वारा उत्पादित वस्तुओं का उत्पादन, प्रसंस्करण और विपणन करती हैं।
    • उपभोक्ता सहकारी समितियां: ये समितियां अपने सदस्यों को आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं की आपूर्ति करती हैं।
    • विपणन सहकारी समितियां: ये समितियां अपने सदस्यों द्वारा उत्पादित वस्तुओं का विपणन करती हैं।
    • सेवा सहकारी समितियां: ये समितियां अपने सदस्यों को विभिन्न प्रकार की सेवाएं प्रदान करती हैं, जैसे स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और आवास।

सहकारी समितियों के सिद्धांत:

    • स्वैच्छिक सदस्यता: सदस्य बनना और समिति छोड़ना स्वैच्छिक है।
    • लोकतांत्रिक नियंत्रण: समिति का प्रबंधन उसके सदस्यों द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों द्वारा किया जाता है।
    • समान भागीदारी: प्रत्येक सदस्य को समिति में समान अधिकार और जिम्मेदारियां होती हैं।
    • आर्थिक योगदान: प्रत्येक सदस्य को समिति में पूंजी का योगदान करना होता है।
    • स्वायत्तता: समिति स्वतंत्र रूप से कार्य करती है और सरकार से हस्तक्षेप से मुक्त है।
    • शिक्षा और प्रशिक्षण: सदस्यों और कर्मचारियों को सहकारी सिद्धांतों और प्रथाओं के बारे में शिक्षित और प्रशिक्षित किया जाता है।
    • सहयोग: समितियां एक दूसरे के साथ सहयोग करती हैं और अपने अनुभवों को साझा करती हैं।

सहकारी समितियों का महत्व:

    • गरीबी उन्मूलन: सहकारी समितियां गरीबों को ऋण, रोजगार और आय के अवसर प्रदान करके गरीबी उन्मूलन में मदद करती हैं।
    • सामाजिक न्याय को बढ़ावा देना: सहकारी समितियां महिलाओं, अल्पसंख्यकों और अन्य वंचित समूहों को सशक्त बनाकर सामाजिक न्याय को बढ़ावा देती हैं।
    • ग्रामीण विकास: सहकारी समितियां ग्रामीण क्षेत्रों में बुनियादी ढांचे के विकास और कृषि उत्पादकता में सुधार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
    • आर्थिक विकास: सहकारी समितियां राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में योगदान देती हैं और रोजगार के अवसर पैदा करती हैं।
    • सशक्तिकरण: सहकारी समितियां लोगों को अपनी नियति को नियंत्रित करने और अपने समुदायों के विकास में भाग लेने के लिए सशक्त बनाती हैं।

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