औद्योगीकरण का युग
परिचय
- सन् 1900 में “डॉन ऑफ द सेंचुरी” नामक चित्र में नई सदी के उदय को दर्शाया गया।
 - इस चित्र में एक देवी प्रगति का प्रतीक है, जो हाथ में ध्वजा लिए भविष्य की ओर उड़ान भर रही है।
 - उसके चारों ओर उन्नति के प्रतीक – रेलवे, कैमरा, मशीनें, प्रिंटिंग प्रेस और कारखाने हैं।
 - यह चित्र आधुनिकता और औद्योगिक प्रगति की कहानी कहता है।
 - औद्योगीकरण को समाज की उन्नति, आधुनिकता और विकास का प्रतीक माना गया।
 - अध्याय में ब्रिटेन (दुनिया का पहला औद्योगिक राष्ट्र) और भारत (औपनिवेशिक शासन के अधीन) में औद्योगीकरण का अध्ययन किया गया है।
 
1. औद्योगिक क्रांति से पहले
1.1 आदि-औद्योगीकरण (Proto-Industrialisation)
- औद्योगीकरण की शुरुआत फैक्ट्रियों से पहले ही हो चुकी थी।
 - सत्रहवीं और अठारहवीं सदी में यूरोपीय व्यापारी गाँवों में जाकर किसानों व कारीगरों से अंतर्राष्ट्रीय बाजार के लिए उत्पादन करवाते थे।
 - व्यापारी किसानों को पेशगी राशि (advance) देते थे और उनसे माल बनवाते थे।
 - उत्पादन घरों में होता था, कारखानों में नहीं।
 - इस समय गिल्ड्स (कारीगरों के संगठन) शहरों में शक्तिशाली थे, जो नए व्यापारियों को रोकते थे।
 - इसलिए व्यापारी गाँवों में जाकर काम करवाने लगे।
 
परिणाम:
- ग्रामीण गरीब किसानों को अतिरिक्त आमदनी मिली।
 - किसान खेती के साथ-साथ औद्योगिक वस्तुएँ बनाने लगे।
 - इससे शहर और गाँव के बीच मजबूत आर्थिक संबंध बने।
 
नए शब्द:
- प्राच्य: पूर्वी देश, जिन्हें पश्चिमी लोग पारंपरिक और रहस्यमय मानते थे।
 - स्टेपलर: ऊन को गुणवत्ता के अनुसार छाँटने वाला व्यक्ति।
 - फुलर: कपड़ों को समेटने या सिकोड़ने का काम करने वाला व्यक्ति।
 - कार्डिंग: रेशों को कताई के लिए तैयार करने की प्रक्रिया।
 
2. कारखानों का उदय
2.1 फैक्ट्री सिस्टम की शुरुआत
- इंग्लैंड में पहले कारखाने 1730 के दशक में खुले।
 - कपास उद्योग नए युग का प्रतीक था।
 - 1760 में ब्रिटेन ने 25 लाख पौंड कच्चा कपास आयात किया, जो 1787 तक 220 लाख पौंड हो गया।
 - नई मशीनों ने उत्पादन की दक्षता बढ़ाई।
 - रिचर्ड आर्कराइट ने सूती कपड़ा मिल का प्रारूप प्रस्तुत किया।
 - अब पूरा उत्पादन एक ही छत के नीचे होने लगा।
 - इससे गुणवत्ता, निगरानी और उत्पादकता बढ़ी।
 - 19वीं सदी की शुरुआत तक इंग्लैंड के परिदृश्य में कारखाने प्रमुख बन गए।
 
3. औद्योगिक परिवर्तन की रफ्तार
- औद्योगिक क्रांति की गति समान नहीं थी।
 - कपास उद्योग सबसे बड़ा उद्योग था, पर धीरे-धीरे लोहा व इस्पात उद्योग भी विकसित हुए।
 - 1840-1873 तक लोहे और स्टील का निर्यात दोगुना हो गया।
 - फिर भी अधिकांश मजदूर पारंपरिक उद्योगों में ही कार्यरत थे।
 - नई मशीनें महंगी थीं, जल्दी खराब होती थीं और सभी व्यापारी इन्हें नहीं अपनाते थे।
 - जेम्स वॉट ने भाप इंजन में सुधार किया लेकिन इसका उपयोग धीरे-धीरे फैला।
 
निष्कर्ष:औद्योगिक क्रांति एक धीमी प्रक्रिया थी, न कि अचानक होने वाला परिवर्तन।
4. हाथ का श्रम और वाष्प शक्ति
- विक्टोरियन ब्रिटेन में मजदूरों की बहुतायत थी।
 - सस्ते श्रम के कारण मशीनों की आवश्यकता नहीं समझी गई।
 - कुछ वस्तुएँ केवल हाथ से ही बन सकती थीं जैसे – सुंदर डिज़ाइन, बारीक औज़ार।
 - अमीर वर्ग हाथ से बनी वस्तुओं को अधिक पसंद करता था।
 - मजदूर मौसमी कार्यों में लगे रहते थे।
 - इसलिए मशीनों की बजाय मानव श्रम पर अधिक निर्भरता रही।
 
5. मजदूरों की स्थिति
- ग्रामीण लोग रोज़गार की तलाश में शहरों की ओर बढ़े।
 - नौकरी रिश्तों व जान-पहचान पर निर्भर थी।
 - बहुत से मजदूर अस्थायी झोपड़ियों या रैनबसेरों में रहते थे।
 - काम मौसमी था – जाड़ों या त्यौहारों में अधिक काम मिलता था।
 - मजदूरी बहुत कम थी और बेरोजगारी अधिक।
 - नई मशीनों (जैसे स्पिनिंग जेनी) के कारण हाथ से काम करने वालों की नौकरियाँ चली गईं।
 - मजदूरों ने मशीनों के विरुद्ध विरोध और विद्रोह किया।
 
6. भारत में औद्योगीकरण
6.1 भारतीय कपड़े का स्वर्ण युग
- मशीन उद्योग से पहले भारत का कपड़ा अंतरराष्ट्रीय बाजार में प्रसिद्ध था।
 - भारत का कपास महीन और उच्च गुणवत्ता वाला होता था।
 - सूरत, मछलीपटनम और हुगली बंदरगाहों से व्यापार होता था।
 - यूरोपीय कंपनियों (ईस्ट इंडिया कंपनी) के आने से भारतीय व्यापारिक नेटवर्क टूट गया।
 - सूरत व हुगली का व्यापार घटा और कलकत्ता व बंबई का बढ़ा।
 
6.2 बुनकरों की दुर्दशा
- ईस्ट इंडिया कंपनी ने गुमाश्तों को नियुक्त किया जो बुनकरों पर नियंत्रण रखते थे।
 - बुनकरों को पेशगी दी जाती थी, जिससे वे कंपनी से बंध जाते थे।
 - उन्हें अन्य व्यापारियों को माल बेचने की अनुमति नहीं थी।
 - गुमाश्ते अत्याचारी होते थे – बुनकरों को पीटा जाता था, कोड़े मारे जाते थे।
 - बुनकरों ने विरोध किया, कई गाँव छोड़कर मजदूरी करने लगे।
 - ब्रिटेन के मशीन उत्पादों ने भारतीय कपड़ा उद्योग को नुकसान पहुँचाया।
 
6.3 मैनचेस्टर का प्रभाव
- 1811-12 में कपड़ा निर्यात 33% था, 1850-51 में घटकर 3% रह गया।
 - ब्रिटेन के उद्योगपतियों ने भारतीय बाजार पर कब्जा कर लिया।
 - सस्ते मशीन निर्मित कपड़े आने से भारतीय बुनकर बेरोजगार हो गए।
 - अमेरिकी गृहयुद्ध (1860s) के कारण कपास की कीमत बढ़ गई और भारतीय बुनकरों को कच्चा माल नहीं मिला।
 
नतीजा:भारत का पारंपरिक कपड़ा उद्योग ढह गया।
7. भारत में फैक्ट्रियों का आगमन
- पहली कपड़ा मिल: 1854, बंबई में।
 - पहली जूट मिल: 1855, बंगाल में।
 - अन्य मिलें: कानपुर (एल्गिन मिल), अहमदाबाद, मद्रास।
 - उद्योग लगाने वाले प्रमुख भारतीय व्यापारी:
- जमशेदजी टाटा (इस्पात उद्योग)
 - द्वारकानाथ टैगोर
 - सेठ हुकुमचंद
 - डिनशॉ पेटिट
 
 
8. मजदूर वर्ग का विकास
- फैक्ट्रियों के विस्तार से मजदूरों की संख्या बढ़ी।
 - मजदूर मुख्यतः आसपास के गाँवों से आते थे।
 - “जॉबर” नामक व्यक्ति मजदूरों की भर्ती करता था – वही काम, आवास, और सहायता तय करता था।
 - काम के घंटे बहुत लंबे (10 घंटे तक)।
 - मजदूरी कम, कार्य स्थितियाँ कठिन।
 - फिर भी ग्रामीण बेरोजगारी के कारण मजदूर मिलों की ओर आकर्षित हुए।
 
9. औद्योगिक विकास की विशेषताएँ
- यूरोपीय कंपनियाँ (Bird Heiglars, Andrew Yule) भारतीय उद्योगों पर नियंत्रण रखती थीं।
 - भारतीय व्यापारी मुख्यतः कच्चा माल (कपास, जूट, अफ़ीम, नील) निर्यात करते थे।
 - स्वदेशी आंदोलन (1905 के बाद) से विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार बढ़ा और भारतीय उद्योगों को प्रोत्साहन मिला।
 - प्रथम विश्व युद्ध (1914-18) के दौरान ब्रिटिश उत्पादन घटा, भारत में उत्पादन बढ़ा।
 - युद्ध के बाद भारत का औद्योगिक विकास स्थायी रूप से मजबूत हुआ।
 
10. लघु उद्योगों का विकास
- 1911 में केवल 5% मजदूर फैक्ट्रियों में कार्यरत थे।
 - हथकरघा उद्योग अब भी कायम था।
 - “फ्लाई शटल” जैसी तकनीक ने हाथ के काम को तेज़ और प्रभावी बनाया।
 - 1900-1940 के बीच हाथ से बनने वाले कपड़ों का उत्पादन तीन गुना हुआ।
 - बनारसी, मद्रास और बालूचरी साड़ियों जैसी बुनाई मिलों के लिए कठिन थी।
 
📖 फ्लाई शटल: रस्सियों व पुलियों से चलने वाला यांत्रिक औजार जो ताना-बाना बुनाई में मदद करता है।
11. वस्तुओं के बाजार और विज्ञापन
- मैनचेस्टर के कपड़े बेचने के लिए विज्ञापन और लेबल का प्रयोग किया गया।
 - लेबलों पर भारतीय देवी-देवताओं, जैसे लक्ष्मी, सरस्वती, कृष्ण की तस्वीरें छापी जाती थीं।
 - उद्देश्य था – भारतीय उपभोक्ताओं को आकर्षित करना।
 - 19वीं सदी के अंत में कैलेंडर, पोस्टर और अखबारों में विज्ञापन बढ़े।
 - स्वदेशी आंदोलन के समय विज्ञापनों में राष्ट्रवादी संदेश आने लगे – “भारतीय वस्त्र अपनाओ”।
 

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