पद
अध्याय – 1 का सारांश
इस पाठ में सबसे पहले 1857 की आज़ादी की जंग के सैनिकों द्वारा गाया गया कौमी गीत दिया गया है, जिसमें भारत माता की सुंदरता, उसकी महानता और स्वतंत्रता के लिए शहीद हुए वीरों को नमन किया गया है। इसमें गंगा-जमुना की धारा, हिमालय पर्वत और सागर की गूंज के माध्यम से भारत की महिमा का वर्णन किया गया है। साथ ही यह भी कहा गया है कि अंग्रेजों ने छल से भारत को गुलाम बनाया, इसलिए शहीदों ने अपने देशवासियों को जागरूक किया कि गुलामी की जंजीरें तोड़ो और भाईचारे के साथ स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हो।
इसके बाद सूरदास के जीवन और रचनाओं का परिचय मिलता है। उनका जन्म 1478 ई. में माना जाता है और वे महाप्रभु वल्लभाचार्य के शिष्य थे। सूरदास अष्टछाप के सबसे प्रसिद्ध कवि थे। उनकी रचनाओं में सूरसागर सबसे लोकप्रिय है। सूरदास ने अपनी कविताओं में उस समय के ग्रामीण जीवन, पशुपालन, खेती-बाड़ी और मानव स्वभाव का सुंदर चित्रण किया है। वे ‘वात्सल्य’ और ‘श्रृंगार’ रस के श्रेष्ठ कवि माने जाते हैं। उन्होंने श्रीकृष्ण और गोपियों के सहज मानवीय प्रेम को कविता के माध्यम से प्रतिष्ठा दी। उनकी भाषा ब्रजभाषा है जो लोकगीत परंपरा से जुड़ी हुई है।
इस अध्याय में सूरसागर के प्रसिद्ध भ्रमरगीत से चार पद लिए गए हैं। इसमें वर्णन है कि जब कृष्ण मथुरा चले गए तो उन्होंने उद्धव को संदेशवाहक बनाकर गोपियों के पास भेजा। उद्धव ने उन्हें योग और ज्ञान की बातें समझाईं, लेकिन गोपियाँ प्रेम को ही श्रेष्ठ मानती थीं। वे कहती हैं कि जिसने प्रेम का अनुभव नहीं किया वह विरह की वेदना नहीं समझ सकता। उन्होंने उद्धव की शिक्षा को कड़वी ककड़ी जैसा बताया और व्यंग्यपूर्वक कृष्ण पर भी ताना मारा कि वे अब राजनीति पढ़ आए हैं। अंत में उन्होंने उद्धव को याद दिलाया कि सच्चा राजधर्म प्रजा का हित करना है, न कि उसे कष्ट देना।
इस प्रकार इस पाठ के माध्यम से हमें शहीदों की बलिदानी भावना, सूरदास के जीवन-परिचय, उनकी रचनात्मकता और गोपियों के सच्चे प्रेम तथा वाक्चातुर्य की झलक मिलती है। यह अध्याय देशभक्ति, प्रेम और मानवीय मूल्यों का संदेश देता है।
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