हरिहर काका
अध्याय – हरिहर काका : सारांश
यह कहानी समाज में हो रहे स्वार्थ, छल और धर्म के नाम पर होने वाले शोषण को उजागर करती है। हरिहर काका गाँव के एक सरल, ईमानदार और धर्मनिष्ठ किसान हैं। उनके कोई संतान नहीं है, इसलिए वे भाइयों के परिवार के साथ रहते हैं। जीवन भर भाइयों की सेवा और सहारा बनने के बाद भी उन्हें परिवार से उचित स्नेह और आदर नहीं मिलता। बीमारी या परेशानी में उन्हें अकेले ही संघर्ष करना पड़ता है।
एक बार घर की उपेक्षा और अपमान से आहत होकर हरिहर काका गुस्से में ठाकुरबारी जाते हैं। वहाँ के महंत उन्हें समझाते हैं कि परिवार कोई अपना नहीं होता, सब स्वार्थ के रिश्ते हैं। वे उन्हें बहकाकर उनकी ज़मीन ठाकुरजी के नाम लिखने को कहते हैं। महंत के चिकने-चुपड़े शब्दों में फँसकर हरिहर काका कुछ समय के लिए विचलित हो जाते हैं, लेकिन उनके मन में परिवार और खून के रिश्तों को धोखा देने का भय भी बना रहता है।
महंत और भाइयों दोनों की नज़र हरिहर काका की ज़मीन पर है। महंत धोखे और बल प्रयोग से उनसे कागज़ों पर अँगूठे के निशान लेने की कोशिश करते हैं, वहीं उनके भाई भी उन्हें ज़मीन अपने नाम लिखने के लिए दबाव डालते हैं। स्थिति यहाँ तक पहुँच जाती है कि दोनों पक्ष जबरन हरिहर काका को उठाकर ले जाते हैं और उन पर अत्याचार करते हैं।
आख़िरकार पुलिस की दखल से हरिहर काका बच तो जाते हैं, लेकिन टूटे मन और गहरी चोट के कारण वे गूँगेपन जैसी स्थिति में पहुँच जाते हैं। अब वे किसी पर विश्वास नहीं करते और अकेलेपन में जीवन बिताने लगते हैं।
इस कहानी के माध्यम से लेखक यह संदेश देते हैं कि समाज में रिश्तों और धर्म के नाम पर अक्सर स्वार्थ ही हावी होता है। असली मूल्य मानवता, सच्चा अपनापन और न्याय में है, न कि लालच और ढोंग में। हरिहर काका का मौन उनके साथ हुए अन्याय और समाज की खोखली नैतिकता का प्रतीक है।
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