साखी
अध्याय – कबीर की साखियाँ : सारांश
कबीर का जन्म सन् 1398 में काशी में हुआ माना जाता है। वे संत रामानंद के शिष्य थे और लगभग 120 वर्ष तक जीवित रहे। अपने जीवन के अंतिम समय में वे मगहर में रहे और वहीं देहत्याग किया। कबीर ऐसे समय में प्रकट हुए जब समाज में धार्मिक ढोंग, पाखंड और बाहरी आडंबर बहुत बढ़ गए थे। उनकी कविताओं ने इन बुराइयों पर तीखा प्रहार किया। वे क्रांतिदर्शी कवि थे, जिनकी वाणी सीधी, सरल और हृदय को छू लेने वाली थी।
कबीर शास्त्रों के ज्ञान से अधिक अनुभवजन्य ज्ञान को महत्व देते थे। वे मानते थे कि ईश्वर एक है, वह निराकार और निर्विकार है। उन्होंने लोगों को समझाया कि ईश्वर की प्राप्ति मंदिर-मस्जिद के चक्कर लगाने से नहीं, बल्कि आत्मज्ञान और सच्चे भक्ति मार्ग से होती है। कबीर सत्संग और सच्चे गुरु की शिक्षा को आवश्यक मानते थे।
उनकी भाषा मिश्रित थी जिसमें अवधी, भोजपुरी, राजस्थानी और पंजाबी के शब्द मिलते थे। इसलिए उनकी भाषा को ‘सधुक्कड़ी’ या ‘पचमेल खिचड़ी’ कहा जाता है। उनकी साखियाँ दोहा छंद में हैं, जिनमें जीवन के गहरे सत्य और मानवता के संदेश बड़ी सहजता से व्यक्त किए गए हैं।
इस अध्याय में दी गई साखियों से हमें कई शिक्षाएँ मिलती हैं –
इंसान को मीठी और विनम्र वाणी बोलनी चाहिए जिससे अपने मन को शांति और दूसरों को सुख मिले।
ईश्वर हर कण में मौजूद है, परंतु अज्ञानवश लोग उसे पहचान नहीं पाते।
जब तक मनुष्य अहंकार में डूबा है, वह ईश्वर को नहीं पा सकता।
सच्चा भक्त वही है जो रात-दिन ईश्वर की याद में व्याकुल रहता है।
निंदा करने वाले को पास रखना चाहिए क्योंकि वह बिना साबुन-पानी के ही हमारे स्वभाव को शुद्ध कर देता है।
केवल ग्रंथ पढ़ने से कोई विद्वान नहीं बनता, वास्तविक ज्ञान अनुभव और प्रेम से आता है।
इन साखियों में कबीर ने जीवन की गहरी सच्चाइयों को सहज और व्यावहारिक रूप में प्रस्तुत किया है। वे दिखावे और पाखंड से दूर, सच्चे प्रेम, आत्मज्ञान और ईश्वर की भक्ति को ही मानव जीवन का सार मानते थे।
कुल मिलाकर, यह अध्याय हमें सिखाता है कि सच्चा धर्म मानवीयता, विनम्रता और प्रेम में है, न कि बाहरी आडंबरों में।
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