नौबतखाने में इबादत
अध्याय – नौबतखाने में इबादत : सारांश
यह पाठ प्रसिद्ध शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ के जीवन और साधना पर आधारित है। लेखक यतींद्र मिश्र ने बड़े भावपूर्ण ढंग से खाँ साहब के व्यक्तित्व, उनके संगीत प्रेम और उनकी सादगी का चित्रण किया है।
बिस्मिल्ला खाँ का जन्म सन् 1916 में बिहार के डुमराँव नामक कस्बे में हुआ था। उनका परिवार पीढ़ियों से शहनाई बजाने का कार्य करता था। बचपन से ही वे अपने नाना और मामाओं को शहनाई बजाते देखते और धीरे-धीरे संगीत की ओर आकर्षित हो गए। काशी आकर उन्होंने बालाजी मंदिर के नौबतखाने में नियमित रियाज़ शुरू किया। इसी साधना ने उन्हें महान शहनाई वादक बना दिया। रसूलनबाई और बतूलनबाई जैसी गायिकाओं के गीतों ने भी उनके भीतर संगीत के प्रति गहरी ललक जगाई।
शहनाई को मंगलध्वनि का वाद्य माना जाता है और बिस्मिल्ला खाँ को इसकी आत्मा कहा जाता है। वे इसे केवल मनोरंजन का साधन नहीं बल्कि इबादत मानते थे। उनका विश्वास था कि सच्चा सुर पाने के लिए गुरु-शिष्य परंपरा, धैर्य और निरंतर अभ्यास ज़रूरी है। अस्सी वर्ष की आयु में भी वे लगातार रियाज़ करते थे और खुदा से दुआ करते – “मालिक, एक सच्चा सुर बख्श दे, ऐसा सुर कि सुनने वालों की आँखों से आँसू निकल आएँ।”
खाँ साहब अपने मज़हब का पालन पूरी निष्ठा से करते थे, लेकिन काशी विश्वनाथ और गंगा मइया के प्रति भी उनकी गहरी श्रद्धा थी। यही कारण है कि वे गंगा-जमुनी तहज़ीब के सच्चे प्रतीक माने जाते हैं। मुहर्रम के अवसर पर वे शहनाई से नौहा बजाते और लोगों की आँखें नम कर देते। वहीं, संकटमोचन मंदिर जैसे आयोजनों में भी उनकी शहनाई गूँजती थी।
उनका जीवन सादगीपूर्ण था। भारत रत्न मिलने के बाद भी वे फटी तहमद पहनते और कहते कि “भारत रत्न हमें शहनईया पर मिला है, लुगिया पर नहीं।” उन्हें फिल्मों, मिठाइयों और कचौड़ियों का भी शौक था, लेकिन इन सबके बीच उनकी सबसे बड़ी लगन केवल शहनाई ही रही।
बिस्मिल्ला खाँ का जीवन इस बात का प्रतीक है कि सच्ची लगन, निरंतर साधना और सादगी से मनुष्य महान ऊँचाइयों तक पहुँच सकता है। वे सिर्फ़ शहनाई के उस्ताद नहीं थे, बल्कि एकता, भाईचारे और भारतीय संस्कृति के जीवंत प्रतीक थे। 21 अगस्त 2006 को उनके निधन के बाद भी उनकी शहनाई आज भी लोगों के दिलों में गूँजती है।
Leave a Reply