संस्कृति
अध्याय – संस्कृति : सारांश
भदंत आनंद कौसल्यायन का जन्म सन् 1905 में पंजाब के अंबाला जिले के सोहाना गाँव में हुआ। उनका बचपन का नाम हरनाम दास था। वे बौद्ध भिक्षु बने और आजीवन बौद्ध धर्म तथा हिंदी भाषा-साहित्य के प्रचार-प्रसार में लगे रहे। उन्होंने अनेक देशों की यात्राएँ कीं और बीस से अधिक पुस्तकें लिखीं। उनके निबंध सहज, सरल और गहरी जीवनदृष्टि से युक्त होते हैं।
प्रस्तुत निबंध “संस्कृति” में लेखक ने सभ्यता और संस्कृति के बीच का अंतर स्पष्ट किया है। वे बताते हैं कि ये दोनों शब्द अक्सर गड्ड-मड्ड हो जाते हैं और लोग इन्हें एक-दूसरे का पर्याय मानते हैं। वास्तव में संस्कृति मनुष्य की वह आंतरिक योग्यता, प्रेरणा और चिंतन है, जिसके बल पर वह नए आविष्कार करता है, जबकि सभ्यता उन आविष्कारों और खोजों का बाहरी रूप है जिनका प्रयोग हम जीवन में करते हैं।
लेखक ने उदाहरण देकर समझाया है – आग और सुई-धागे का आविष्कार। आग का आविष्कार करने वाले व्यक्ति की खोजी प्रवृत्ति संस्कृति है, जबकि आग स्वयं सभ्यता है। उसी तरह न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत खोज लेना उनकी संस्कृति है, जबकि आज के विद्यार्थी द्वारा उस ज्ञान का उपयोग करना सभ्यता है। यानी संस्कृति स्रोत है और सभ्यता उसका परिणाम।
संस्कृति केवल भौतिक आविष्कारों तक सीमित नहीं है। जब कोई व्यक्ति अपने सुख का त्याग कर दूसरों के लिए बलिदान करता है, तो यह भी संस्कृति है। जैसे – माँ का बच्चे के लिए रातभर जागना, लेनिन का अपना भोजन दूसरों को दे देना, कार्ल मार्क्स का मजदूरों की भलाई के लिए जीवन बिताना, और भगवान बुद्ध का मानवता की शांति के लिए गृहत्याग करना – ये सब संस्कृति के ही रूप हैं।
लेखक की दृष्टि में संस्कृति तभी तक संस्कृति है जब तक वह मानव कल्याण से जुड़ी है। यदि संस्कृति से कल्याण का तत्व हट जाए तो वह असंस्कृति बन जाती है और उसका परिणाम असभ्यता ही होता है। इसलिए मानव संस्कृति को बाँटने की कोशिश निरर्थक है, क्योंकि यह एक अविभाज्य वस्तु है।
इस प्रकार यह निबंध हमें सिखाता है कि सभ्यता बाहरी साधनों और सुविधाओं का नाम है, जबकि संस्कृति वह आंतरिक चेतना और मानवीय मूल्य हैं, जो मानवता के कल्याण की दिशा में प्रेरित करते हैं
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