अब कहाँ दूसरे के दुख से दुखी होने वाले
अध्याय – अब कहाँ दूसरे के दुख से दुखी होने वाले (निदा फ़ाज़ली) : सारांश
निदा फ़ाज़ली (1938–2016) उर्दू साहित्य के प्रसिद्ध कवि और गद्यकार थे। उनकी विशेषता यह थी कि वे आम बोलचाल की भाषा में गहरी बातें बहुत सरलता से कह देते थे। प्रस्तुत गद्यांश उनकी कृति “यहाँ तमाशा मेरे आगे” से लिया गया है। इसमें उन्होंने इंसान और प्रकृति के रिश्ते, मानवीय संवेदनाओं तथा बदलते समय के स्वार्थी व्यवहार को उजागर किया है।
लेखक बताते हैं कि धरती कुदरत ने सभी जीवों के लिए बनाई थी, लेकिन इंसान ने स्वार्थवश इसे अपनी जागीर मान लिया। उसने न केवल पशु-पक्षियों को बेघर किया, बल्कि अब तो अपनी ही जात को भी नुकसान पहुँचाने लगा है। आज के समय में लोग न तो किसी के सुख-दुख में साथ देते हैं और न ही दूसरों की मदद करने की इच्छा रखते हैं।
लेखक कई उदाहरणों से समझाते हैं कि पहले लोग जीव-जंतुओं और प्रकृति के प्रति संवेदनशील थे। जैसे – बाइबिल के सोलोमन (सुलेमान) केवल मनुष्यों के ही नहीं, बल्कि पशु-पक्षियों के भी राजा थे और सबके प्रति दयालु थे। इसी तरह शेख अयाज़ के पिता ने अपनी बाजू पर च्योंटा देखकर उसे उसके घर वापस पहुँचाया। नूह नामक पैगंबर ने जब घायल कुत्ते को दुत्कारा तो कुत्ते ने याद दिलाया कि मनुष्य और पशु – दोनों को ईश्वर ने ही बनाया है।
लेखक कहते हैं कि संसार की रचना चाहे जैसे हुई हो, लेकिन धरती सबकी है – इंसान, पशु, पक्षी, नदी, पहाड़ और समंदर की। मगर इंसान ने अपनी बुद्धि से दीवारें खड़ी कर दी हैं। आबादी बढ़ने से जंगल और समुद्र सिमट गए, प्रदूषण बढ़ गया और परिंदे-बस्तियों से दूर हो गए। प्रकृति का यह असंतुलन ही भूकंप, बाढ़, तूफ़ान और नई बीमारियों का कारण है।
लेखक अपनी माँ के उदाहरण से बताते हैं कि पहले लोग प्रकृति के साथ संवेदनशील रिश्ता रखते थे। उनकी माँ कहती थीं – पेड़ों से पत्ते और फूल अनचाहे समय पर मत तोड़ो, दरिया को सलाम करो, कबूतरों और मुर्गों को मत सताओ। कबूतर के अंडे टूटने पर उन्होंने रोज़ा रखकर खुदा से माफ़ी माँगी।
लेखक ग्वालियर से मुंबई आने के बाद महसूस करते हैं कि समय और परिस्थितियों ने बहुत बदलाव ला दिया है। पहले जंगल और परिंदे थे, अब वहाँ इमारतें हैं। परिंदों का घर छिन गया है। दो कबूतर उनके घर में डेरा डालते हैं, लेकिन उनकी पत्नी परेशानी के कारण खिड़की में जाली लगवा देती है। लेखक को लगता है कि अब न तो सोलोमन हैं जो उनकी जुबान समझ सकें और न ही उनकी माँ जैसी संवेदनशीलता बची है।
कुल मिलाकर, यह पाठ हमें यह सीख देता है कि प्रकृति और जीव-जंतु भी हमारे जैसे ही इस धरती के हिस्सेदार हैं। यदि हम उनकी उपेक्षा करेंगे, तो प्रकृति असंतुलित होकर हमें ही नुकसान पहुँचाएगी। इंसान को चाहिए कि वह संवेदनशील बने और सभी के सुख-दुख में साझेदारी निभाए।
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