सपनों के-से दिन
अध्याय – सपनों के-से दिन : सारांश
इस आत्मकथात्मक संस्मरण में लेखक ने अपने बचपन और स्कूली दिनों की यादों को बड़े सहज और मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है। वे बताते हैं कि उनके साथ खेलने वाले ज़्यादातर बच्चे गरीब परिवारों से थे। सब नंगे पाँव, फटे-पुराने कपड़े पहने रहते, खेलते समय गिरकर चोट खाते, लेकिन फिर भी अगले दिन खेलने आ जाते। बच्चों की यह जिजीविषा और खेलों के प्रति उनका आकर्षण लेखक को आज भी याद है।
उनके मोहल्ले में अधिकतर लोग आस-पास के गाँवों से आकर बसे थे। कई बच्चे स्कूल भी नहीं जाते थे, और जो जाते, वे पढ़ाई में रुचि न होने के कारण जल्दी ही छोड़ देते। माता-पिता भी बच्चों को पढ़ाने की बजाय उन्हें दुकान या खेती-बाड़ी के काम में लगाना बेहतर समझते थे।
लेखक बचपन की सुखद अनुभूतियों का उल्लेख करते हैं – जैसे स्कूल के रास्ते में लगे पेड़ों की महक, क्यारियों में खिले फूलों की सुगंध, ननिहाल जाकर तालाब में नहाना, रेत पर खेलना और छुट्टियों का आनंद लेना। छुट्टियों के शुरुआती दिन तो मज़ेदार होते, लेकिन जैसे-जैसे आख़िर में काम का बोझ और मास्टरों की डाँट का डर सामने आता, छुट्टियों का आकर्षण कम हो जाता।
स्कूल का जीवन भी लेखक के लिए कई अनुभव लेकर आया। प्रार्थना के समय कतारों में खड़ा होना, पीटी सर की सख़्ती और अनुशासन, स्काउटिंग की परेड में झंडियाँ लहराना और “शाबाश” सुनना उन्हें गर्व से भर देता। पीटी सर बेहद कठोर और डरावने थे, लेकिन उनकी एक “शाबाश” सभी मेहनत और तकलीफ़ों पर भारी पड़ती थी। इसके विपरीत हेडमास्टर शर्मा जी कोमल स्वभाव के थे और बच्चों पर हाथ नहीं उठाते थे।
लेखक को नई किताबों और कॉपियों की गंध से उदासी महसूस होती थी, शायद इसलिए कि उसमें आगे की कठिन पढ़ाई और मास्टरों की डाँट का डर छिपा होता था। इसके बावजूद स्काउटिंग, परेड और फ़ौजी जवानों जैसी अनुभूति उन्हें स्कूल से जोड़ती रही।
कहानी के अंत में लेखक यह बताते हैं कि उनके समय में शिक्षा और अनुशासन के तरीक़े कठोर थे, लेकिन उन्हीं अनुभवों ने उनके जीवन को गहराई से प्रभावित किया।
कुल मिलाकर, यह पाठ बचपन के खेल, ग्रामीण-शहरी जीवन, स्कूल की अनुशासन-व्यवस्था और मासूम दिनों की खट्टी-मीठी स्मृतियों का सजीव चित्रण है, जो पाठकों को भी अपने बीते दिनों की याद दिला देता है।
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