टोपी शुक्ला
अध्याय – टोपी शुक्ला : सारांश
“टोपी शुक्ला” उपन्यास का यह अंश समाज में पनप रही संकीर्ण मानसिकता, धार्मिक भेदभाव और पारिवारिक उपेक्षा को उजागर करता है। कहानी का नायक बलभद्र नारायण शुक्ला (टोपी) है, जिसका पहला और सबसे गहरा दोस्त इफ़्फ़न (सय्यद जरगाम मुरतुजा) था। दोनों अलग-अलग धर्म और परिवार से थे, फिर भी उनकी दोस्ती गहरी थी। इफ़्फ़न की दादी का स्नेह टोपी को अपनी ओर खींचता था, क्योंकि अपने घर में उसे ऐसी आत्मीयता नहीं मिलती थी। इफ़्फ़न की दादी कहानियाँ सुनातीं और स्नेह से भर देतीं, जबकि टोपी की दादी और माँ उसे अक्सर डाँटते-पीटते थे। यही कारण था कि टोपी ने मज़ाक में इफ़्फ़न से दादी बदलने की इच्छा भी जताई।
टोपी के घरवालों को तब झटका लगा जब उसने खाने की मेज़ पर “अम्मी” शब्द का प्रयोग किया, जो उसने इफ़्फ़न के घर सीखा था। परिवार ने इसे धार्मिक भेदभाव की नज़र से देखा और टोपी को डाँट-मार सहनी पड़ी। इस प्रसंग से यह स्पष्ट होता है कि समाज किस तरह छोटी-सी बात को भी धर्म और परंपरा के चश्मे से देखता है।
इफ़्फ़न की दादी की मृत्यु के बाद टोपी को गहरा अकेलापन महसूस हुआ। यद्यपि उसने दादी का नाम तक नहीं जाना था, परंतु उनके स्नेह से उसका हृदय जुड़ गया था। उसे लगा जैसे इफ़्फ़न का घर दादी के बिना खाली हो गया हो। दोनों बच्चे एक-दूसरे के दुख-सुख में रोते और सहारा पाते रहे।
टोपी की पढ़ाई भी कठिनाइयों से घिरी रही। घर में कोई उसे पढ़ने नहीं देता था। बड़े भाई मुन्नी बाबू और भैरव उसे नीचा दिखाते, उसकी किताबें बिगाड़ देते। माँ और दादी भी काम के लिए टोकते रहते। कई बार बीमार पड़ने और उपेक्षा झेलने के कारण वह लगातार फ़ेल हुआ और कक्षा में पीछे रह गया। इसका असर उसके आत्मसम्मान पर पड़ा, और वह घर और स्कूल – दोनों जगह अकेला और उपेक्षित महसूस करने लगा।
यह रचना केवल दो बच्चों की दोस्ती की कहानी नहीं है, बल्कि इसमें भारतीय समाज की साम्प्रदायिक सोच, परिवारों के भीतर व्याप्त भेदभाव और शिक्षा व्यवस्था की खामियों पर भी गहरी टिप्पणी की गई है। टोपी और इफ़्फ़न की दोस्ती एक संदेश देती है कि सच्चे रिश्ते धर्म और जाति से नहीं, बल्कि स्नेह, विश्वास और आत्मीयता से बनते हैं।
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