मनुष्यता
अध्याय – मनुष्यता (मैथिलीशरण गुप्त) : सारांश
मैथिलीशरण गुप्त का जन्म 1886 ई. में झाँसी के पास चिरगाँव में हुआ था। वे राष्ट्रकवि के रूप में प्रसिद्ध हुए। उनकी कविताओं में भारतीय संस्कृति, इतिहास और आदर्श जीवन मूल्यों का चित्रण मिलता है। प्रस्तुत कविता “मनुष्यता” में कवि ने सच्चे मनुष्य की पहचान और जीवन का उद्देश्य बताया है।
कवि कहते हैं कि मनुष्य और पशु में सबसे बड़ा अंतर उसकी चेतना और परोपकार की भावना है। पशु केवल अपने लिए जीते हैं, जबकि मनुष्य का कर्तव्य है कि वह दूसरों के लिए जिए और यदि आवश्यक हो तो दूसरों के लिए प्राणों का बलिदान भी करे। ऐसी मृत्यु को ही सुमृत्यु कहा जा सकता है, जो समाज और मानवता के हित में हो।
कविता में अनेक ऐतिहासिक और पौराणिक उदाहरण दिए गए हैं – जैसे दानी राजा रंतिदेव जिन्होंने भूख के बावजूद अपना भोजन दान कर दिया, ऋषि दधीचि जिन्होंने असुरों से देवताओं की रक्षा के लिए अपनी हड्डियाँ दान कर दीं, राजा उशीनर जिन्होंने अपना मांस दान किया और कर्ण जिन्होंने अपना कवच और कुंडल भी दान कर दिए। ये सब उदाहरण बताते हैं कि परोपकार ही सच्ची मनुष्यता है।
कवि का मानना है कि सच्चा मनुष्य वही है जो सहानुभूति रखता है, गर्व और अहंकार से दूर रहता है और सबको भाई मानकर चलता है। उसके लिए धन, वैभव और पद नहीं, बल्कि मानवता और दूसरों का कल्याण ही सर्वोपरि होना चाहिए। ऐसे लोग मरकर भी अमर रहते हैं और समाज में उनकी कीर्ति सदा गूँजती रहती है।
अंत में कवि यह संदेश देते हैं कि हमें जीवन पथ पर एकता, प्रेम और सहयोग के साथ आगे बढ़ना चाहिए। सच्चा जीवन वही है जो केवल अपने लिए नहीं, बल्कि सबके लिए हो। यही मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म और सबसे बड़ी उपलब्धि है।
कुल मिलाकर, यह कविता त्याग, परोपकार, सहानुभूति और मानवता का आदर्श प्रस्तुत करती है और हमें सिखाती है कि मनुष्य वही कहलाने योग्य है जो मनुष्य मात्र के लिए जिए और मरे।
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