यह दंतुरहित मुस्कान और फसल
अध्याय – नागार्जुन : सारांश
नागार्जुन का जन्म सन् 1911 में बिहार के दरभंगा जिले के सतलखा गाँव में हुआ। उनका वास्तविक नाम वैद्यनाथ मिश्र था। प्रारंभिक शिक्षा संस्कृत पाठशाला में हुई, बाद में वे बनारस और कलकत्ता पढ़ने गए। सन् 1936 में वे श्रीलंका गए और बौद्ध धर्म में दीक्षित हुए। घुमक्कड़ी स्वभाव के कारण उन्होंने पूरे भारत की यात्राएँ कीं। सन् 1998 में उनका निधन हो गया।
नागार्जुन ने हिंदी और मैथिली दोनों भाषाओं में लेखन किया। मैथिली में वे ‘यात्री’ नाम से प्रसिद्ध हुए। उन्होंने बांग्ला और संस्कृत में भी कविताएँ लिखीं। उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं – युगधारा, सतरंगे पंखों वाली, हज़ार-हज़ार बाँहों वाली, तुमने कहा था, पुरानी जूतियों का कोरस, मैं मिलटरी का बूढ़ा घोड़ा आदि। उपन्यास और गद्य में भी उनका योगदान उल्लेखनीय है। उन्हें भारत भारती पुरस्कार, राजेंद्र प्रसाद पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार सहित अनेक सम्मान प्राप्त हुए।
नागार्जुन को जनकवि कहा जाता है। वे लोकजीवन से गहराई से जुड़े थे। उनकी कविताएँ भ्रष्टाचार, राजनीतिक स्वार्थ और समाज की विसंगतियों पर चोट करती हैं। उनके व्यंग्य की तीव्रता के कारण उन्हें आधुनिक कबीर भी कहा जाता है। गाँव की चौपालों से लेकर साहित्यिक मंचों तक वे समान रूप से लोकप्रिय रहे।
इस अध्याय में उनकी दो कविताएँ दी गई हैं – “यह दंतुरित मुसकान” और “फसल”। पहली कविता में कवि ने एक छोटे बच्चे की निष्कपट मुसकान का चित्रण किया है। यह मुसकान इतनी मनोहारी है कि कठोर से कठोर हृदय को भी पिघला सकती है। कवि को लगता है कि इस मुसकान में जीवन का संदेश छिपा है। माँ के स्नेह और बच्चे की चंचलता से यह सौंदर्य और भी उज्ज्वल हो जाता है।
दूसरी कविता फसल में कवि ने खेतों की लहलहाती फसल के पीछे छिपे श्रम, प्रकृति और विभिन्न तत्वों के योगदान को रेखांकित किया है। फसल केवल अन्न नहीं है, बल्कि यह नदियों के जल, मिट्टी के गुण, सूर्य की किरणों, हवा की गति और किसानों के श्रम का परिणाम है। इस प्रकार कवि हमें कृषि-संस्कृति के महत्व की ओर ध्यान दिलाता है।
कुल मिलाकर, इस अध्याय से नागार्जुन का बहुआयामी व्यक्तित्व, उनकी जनकवि छवि, व्यंग्यपूर्ण शैली और लोकजीवन से जुड़ाव स्पष्ट रूप से सामने आता है। उनकी कविताएँ हमें संवेदनशील बनाती हैं और प्रकृति व श्रम के मूल्य को समझने की प्रेरणा देती हैं।
Leave a Reply