संगतकार
अध्याय – मंगलेश डबराल : सारांश
मंगलेश डबराल का जन्म सन् 1948 में उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल जिले के काफलपानी गाँव में हुआ। उनकी शिक्षा देहरादून में हुई। साहित्य और पत्रकारिता दोनों क्षेत्रों में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा। उन्होंने हिंदी पेट्रियट, प्रतिपक्ष, आसपास जैसे पत्रों में काम किया, फिर पूर्वग्रह पत्रिका के सहायक संपादक बने। बाद में जनसत्ता में साहित्य संपादक रहे और सहारा समय व नेशनल बुक ट्रस्ट से भी जुड़े रहे। उनका निधन सन् 2020 में हुआ।
उनके प्रमुख कविता संग्रह हैं – पहाड़ पर लालटेन, घर का रास्ता, हम जो देखते हैं और आवाज़ भी एक जगह है। उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार और पहल सम्मान मिला। उनकी कविताओं का कई भारतीय भाषाओं के साथ-साथ अंग्रेज़ी, रूसी, जर्मन, स्पानी आदि विदेशी भाषाओं में भी अनुवाद हुआ। कविता के अतिरिक्त उन्होंने साहित्य, सिनेमा, संचार माध्यम और संस्कृति पर भी लगातार लेखन किया। उनकी कविताओं में सामंती मानसिकता और पूँजीवादी छल का विरोध मिलता है, लेकिन यह विरोध शोर-शराबे में नहीं बल्कि एक सुंदर स्वप्न रचकर प्रकट होता है।
इस अध्याय में उनकी कविता “संगतकार” दी गई है। इसमें कवि ने मुख्य गायक के साथ देने वाले संगतकार की भूमिका का वर्णन किया है। मुख्य गायक जब कठिन तानों में उलझ जाता है या स्वर लड़खड़ाने लगता है, तब संगतकार उसे सँभालता है और यह अहसास कराता है कि वह अकेला नहीं है। संगतकार का स्वर भले ही धीमा और काँपता हुआ हो, पर उसकी उपस्थिति मुख्य गायक के लिए ढाँढ़स और सहारा बनती है। कवि का मानना है कि संगतकार की हिचक या स्वर का ऊँचा न उठना उसकी कमजोरी नहीं, बल्कि उसकी मानवीयता है।
कुल मिलाकर, इस अध्याय से हमें यह शिक्षा मिलती है कि समाज और जीवन में केवल बड़े और चर्चित व्यक्तियों का ही योगदान महत्वपूर्ण नहीं होता, बल्कि उनके पीछे काम करने वाले अनेक सहयोगी भी उतने ही जरूरी होते हैं। मंगलेश डबराल की कविता हमें उन अदृश्य सहयोगियों के महत्त्व को पहचानने की संवेदनशीलता देती है।
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