कर चले हम फ़िदा
अध्याय – कर चले हम फ़िदा (कैफ़ी आज़मी) : सारांश
कैफ़ी आज़मी (1919–2002) प्रगतिशील उर्दू कवियों की पहली पंक्ति में गिने जाते हैं। उनका जन्म उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ ज़िले के मजमां गाँव में हुआ था। वे अपनी कविताओं में सामाजिक चेतना, राजनीतिक दृष्टि और मानवीय संवेदनाओं का सुंदर संगम प्रस्तुत करते थे। उन्होंने मुशायरों में प्रसिद्धि पाने के साथ-साथ फ़िल्मों के लिए भी सैकड़ों गीत लिखे। उनके कविता संग्रह झंकार, आखिर-ए-शब, आवारा सजदे, सरमाया और मेरी आवाज़ सुनो प्रसिद्ध हैं। अपने योगदान के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार सहित कई सम्मान मिले।
प्रस्तुत कविता “कर चले हम फ़िदा” फ़िल्म हकीकत (1962 के भारत-चीन युद्ध की पृष्ठभूमि) के लिए लिखी गई थी। इसमें कवि ने सैनिकों की वीरता, त्याग और देशभक्ति का गीत गाया है। सैनिक जानते हैं कि युद्ध में मृत्यु निश्चित है, फिर भी वे निर्भीक होकर लड़ते हैं। उनका उद्देश्य अपनी जान देकर भी देश की आज़ादी और सम्मान की रक्षा करना है। वे कहते हैं कि “हम तो प्राण न्योछावर कर चुके, अब यह वतन तुम्हारे हवाले है।”
कविता में हिमालय को देश की शान और गौरव का प्रतीक बताया गया है। सैनिक कहते हैं कि हमने अपने प्राण गँवा दिए, लेकिन हिमालय यानी देश का मस्तक कभी झुकने नहीं दिया। धरती को दुलहन के रूप में चित्रित किया गया है, जो सैनिकों के बलिदान के कारण सज-धज कर गौरवान्वित हो उठी है।
कवि यह भी कहते हैं कि बलिदान की राह कभी सूनी नहीं होनी चाहिए। नए काफ़िले यानी आने वाली पीढ़ियाँ हमेशा इस पर आगे बढ़ती रहें। विजय का सच्चा उत्सव तभी संभव है जब त्याग और कुर्बानी की परंपरा बनी रहे। सैनिकों का “सर पर कफ़न बाँधना” इस बात का प्रतीक है कि वे मृत्यु को भी हँसते-हँसते गले लगा लेते हैं।
अंतिम पदों में कवि सैनिकों को राम और लक्ष्मण की संज्ञा देते हुए माँ भारती (सीता) की रक्षा करने का आह्वान करते हैं। वे कहते हैं कि अपने खून से ज़मीन पर ऐसी लकीर खींच दो कि कोई रावण (दुश्मन) इस पार न आ सके। यदि कोई माँ भारती के सम्मान को ठेस पहुँचाए, तो उसका हाथ काट दो।
कुल मिलाकर, यह कविता देश की रक्षा के लिए सैनिकों के साहस, त्याग और अदम्य देशभक्ति की अमर गाथा है। यह हमें याद दिलाती है कि आज़ादी की असली रक्षा तभी संभव है जब हम सब अपने कर्तव्यों का पालन करें और सैनिकों के बलिदान का सम्मान करें।
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