नेताजी का चश्मा
अध्याय – नेताजी का चश्मा : सारांश
स्वयं प्रकाश का जन्म सन् 1947 में इंदौर (मध्यप्रदेश) में हुआ था। इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के बाद उन्होंने नौकरी की, परंतु बाद में वे साहित्य से जुड़े। वे समकालीन कहानी के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर रहे और उनकी कहानियों में मध्यवर्गीय जीवन, सामाजिक भेदभाव और वर्ग-शोषण के खिलाफ प्रतिकार की चेतना स्पष्ट मिलती है। उनका निधन सन् 2019 में हुआ।
इस अध्याय में उनकी प्रसिद्ध कहानी “नेताजी का चश्मा” दी गई है। इसमें लेखक ने हास्य और व्यंग्य के माध्यम से देशभक्ति और आम आदमी के योगदान को रेखांकित किया है। कहानी की शुरुआत एक छोटे कस्बे में लगी नेताजी सुभाषचंद्र बोस की संगमरमर की प्रतिमा से होती है। यह प्रतिमा तो सुंदर थी, लेकिन मूर्तिकार संगमरमर का चश्मा बनाना भूल गया था। कस्बे का एक बूढ़ा लँगड़ा चश्मेवाला, जिसे लोग मज़ाक में कैप्टन कहते थे, नेताजी की मूर्ति पर अपनी दुकान के चश्मे लगाकर देशभक्ति दिखाता था। जब भी ग्राहक को वही फ्रेम चाहिए होता, वह मूर्ति से चश्मा उतारकर ग्राहक को दे देता और बाद में कोई दूसरा फ्रेम मूर्ति पर चढ़ा देता। इस तरह नेताजी की प्रतिमा पर हर बार नया चश्मा दिखता।
हालदार साहब, जो हर पंद्रहवें दिन उस कस्बे से गुजरते थे, इस बात को देख बहुत कौतुक और प्रसन्नता महसूस करते। उन्हें लगता कि चश्मेवाले का यह प्रयास साधारण नहीं बल्कि सच्ची देशभक्ति का प्रतीक है। लेकिन एक दिन पता चला कि कैप्टन चश्मेवाला मर गया है। यह सुनकर हालदार साहब दुखी हो गए। अगली बार जब वे वहाँ से गुज़रे तो मूर्ति की आँखों पर सरकंडे से बना चश्मा रखा हुआ देखा। किसी अनाम बच्चे ने यह किया था। यह दृश्य देखकर हालदार साहब भावुक हो उठे और उनकी आँखें भर आईं।
कहानी यह संदेश देती है कि देश केवल वीर सेनानियों और बड़े नेताओं से नहीं बनता, बल्कि करोड़ों साधारण नागरिकों के छोटे-छोटे योगदान से बनता है। हर व्यक्ति अपने-अपने ढंग से देश की सेवा करता है। चश्मेवाले कैप्टन का काम भले ही मामूली लगे, लेकिन उसमें सच्ची देशभक्ति और समर्पण की भावना झलकती है।
इस प्रकार यह अध्याय हमें सिखाता है कि देशभक्ति केवल बड़े कामों में नहीं बल्कि छोटे-छोटे कार्यों में भी छिपी होती है।
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