आत्मत्राण
अध्याय – आत्मत्राण (रवींद्रनाथ ठाकुर) : सारांश
रवींद्रनाथ ठाकुर (1861–1941) का जन्म बंगाल के एक समृद्ध परिवार में हुआ। वे भारत के पहले साहित्यकार थे जिन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उन्होंने कविताएँ, कहानियाँ, उपन्यास, निबंध और गीत लिखे तथा शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्र में शांति निकेतन जैसी अनूठी संस्था की स्थापना की। उनकी रचनाओं में प्रकृति, लोक संस्कृति और मानवीय मूल्य गहराई से दिखाई देते हैं।
प्रस्तुत कविता “आत्मत्राण” का अनुवाद आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने किया है। इसमें कवि प्रभु से कोई चमत्कारिक सहायता नहीं माँगते, बल्कि वे केवल इतनी प्रार्थना करते हैं कि कठिनाइयों और दुखों का सामना करने का साहस उन्हें प्राप्त हो। वे चाहते हैं कि आपदा या विपत्ति आए तो वे उससे डरें नहीं, बल्कि डटकर सामना कर सकें।
कवि कहते हैं कि यदि दुख और पीड़ा आए तो प्रभु उनसे छुटकारा न दें, बल्कि उन्हें इतना बल दें कि वे दुख पर विजय प्राप्त कर सकें। यदि संसार में कोई सहायक न मिले तो भी उनका पराक्रम और धैर्य बना रहे। यदि जीवन में हानि उठानी पड़े, धोखा मिले या लाभ से वंचित होना पड़े, तब भी उनके मन में निराशा न आए।
कवि यह भी कहते हैं कि वे प्रभु से यह प्रार्थना नहीं करते कि उनका भार कम कर दें, बल्कि यही चाहते हैं कि वे उसे निर्भय होकर स्वयं वहन कर सकें। सुख के दिनों में वे सिर झुकाकर प्रभु को न भूलें और दुख के दिनों में भी प्रभु पर से उनका विश्वास कभी न डगमगाए।
इस प्रकार, यह कविता एक अद्वितीय प्रार्थना गीत है, जिसमें कवि किसी चमत्कार या सीधे बचाव की प्रार्थना नहीं करता, बल्कि आत्मबल, धैर्य, साहस और ईश्वर पर अटूट विश्वास बनाए रखने की कामना करता है।
कुल मिलाकर, यह कविता हमें यह सिखाती है कि जीवन की सच्ची शक्ति कठिनाइयों से बचने में नहीं, बल्कि उनका साहसपूर्वक सामना करने में है।
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