बालगोबिन भगत
अध्याय – बालगोबिन भगत : सारांश
रामवृक्ष बेनीपुरी का जन्म सन् 1899 में बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के बेनीपुर गाँव में हुआ था। उनका जीवन संघर्षों से भरा रहा और वे राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन से भी जुड़े। उन्हें ‘कलम का जादूगर’ कहा जाता है। प्रस्तुत पाठ उनका प्रसिद्ध रेखाचित्र “बालगोबिन भगत” है, जिसमें एक ऐसे विलक्षण ग्रामीण चरित्र का चित्रण किया गया है जो साधारण गृहस्थ होकर भी सच्चे साधु और संत जैसे गुणों से परिपूर्ण थे।
बालगोबिन भगत दिखने में साधु नहीं थे, बल्कि खेती-बारी करने वाले गृहस्थ थे। वे साधु इसलिए माने जाते थे क्योंकि उनका जीवन सत्य, सादगी, निस्वार्थता और कबीर की भक्ति पर आधारित था। वे कबीर को “साहब” मानते और उनके पद गाते थे। उनका जीवन कठोर नियमों और ईमानदारी से भरा था। खेत में उपजने वाली हर वस्तु वे पहले कबीरपंथी मठ में भेंट करते और जो प्रसाद मिलता उसी से परिवार का पालन करते।
उनका गान अत्यंत मधुर और जादुई था। खेतों में रोपाई करते समय, भादो की अँधेरी रातों में, माघ की ठंडी भोर में और गर्मियों की उमसभरी संध्या में उनका गान पूरे गाँव को झूमने और गुनगुनाने पर विवश कर देता। उनके गीत केवल संगीत नहीं थे, बल्कि लोगों के हृदय में आनंद और ऊर्जा भर देते थे।
सबसे मार्मिक प्रसंग तब सामने आता है जब उनके इकलौते बेटे की मृत्यु हो जाती है। उस दुख की घड़ी में भी वे रोने के बजाय कबीर के पद गाते रहे। वे मानते थे कि आत्मा परमात्मा से मिल गई है, इसलिए शोक नहीं बल्कि आनंद मनाना चाहिए। यह उनका अद्भुत आध्यात्मिक विश्वास था। बाद में उन्होंने अपनी पुत्रवधू को भी दूसरा विवाह करने के लिए भेज दिया, क्योंकि मोह-ममता में बंधना उन्हें उचित नहीं लगा।
बालगोबिन भगत का जीवन अंत तक कठोर अनुशासन और कबीर की भक्ति में बीता। मृत्यु भी उन्हें गाते-बजाते ही मिली। वे लोक संस्कृति, सादगी और मानवीय मूल्यों के प्रतीक थे।
इस प्रकार यह पाठ हमें सिखाता है कि साधु केवल वेशभूषा से नहीं होते, बल्कि उनके सच्चे साधुत्व का आधार सत्य, भक्ति और मानवता होती है। बालगोबिन भगत अपने जीवन और गायन से ग्रामीण संस्कृति और मानवीय संवेदनाओं को जीवंत कर देते हैं।
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