लखनवी अंदाज़
अध्याय – लखनवी अंदाज़ : सारांश
यशपाल का जन्म सन् 1903 में फीरोज़पुर (पंजाब) में हुआ था। वे स्वतंत्रता संग्राम की क्रांतिकारी धारा से जुड़े और भगत सिंह व सुखदेव के सहकर्मी रहे। उनकी रचनाओं में आम आदमी की समस्याएँ, सामाजिक विषमता और राजनीतिक पाखंड पर तीखा प्रहार मिलता है। उनकी भाषा सहज और व्यंग्यपूर्ण है।
प्रस्तुत व्यंग्यात्मक रचना लखनवी अंदाज़ में यशपाल ने उस पतनशील सामंती वर्ग की मानसिकता पर व्यंग्य किया है, जो वास्तविकता से दूर केवल दिखावे और बनावट में जीता है।
कहानी में लेखक एक पैसेंजर ट्रेन के सेकंड क्लास डिब्बे में चढ़ते हैं। वहाँ उन्हें एक सफेदपोश नवाबी अंदाज़ वाले सज्जन दिखाई देते हैं, जिनके सामने खीरे रखे होते हैं। पहले तो वे लेखक से बातचीत करने में रुचि नहीं दिखाते, पर थोड़ी देर बाद बड़े शिष्ट अंदाज़ में खीरा खाने का निमंत्रण देते हैं। फिर वे अत्यंत सजधज और नफ़ासत से खीरों को धोते, काटते, नमक-मिर्च छिड़कते हैं और रसास्वादन की पूरी तैयारी करते हैं।
लेकिन आश्चर्य यह होता है कि वे खीरे की फाँकें केवल सूँघते हैं और स्वाद की कल्पना से संतुष्ट होकर उन्हें खिड़की से बाहर फेंक देते हैं। इस प्रकार बिना खाए ही वे तृप्ति का दिखावा करते हैं और गर्व से स्वयं को खानदानी तहज़ीब का प्रतीक मानते हैं।
लेखक समझते हैं कि जैसे खीरे को बिना खाए केवल उसकी कल्पना से पेट नहीं भर सकता, वैसे ही बिना कथ्य, पात्र और घटना के केवल लेखक की कल्पना मात्र से कहानी नहीं बन सकती। यहाँ खीरे का प्रसंग व्यंग्यात्मक ढंग से उस समय की “नई कहानी” आंदोलन पर भी कटाक्ष करता है।
इस प्रकार यह रचना दिखावटी जीवनशैली, बनावटी तहज़ीब और कथ्यहीन साहित्यिक प्रवृत्तियों पर गहरा व्यंग्य करती है और हमें यथार्थवाद की ओर ले जाती है।
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