बुद्धिर्बलवती सदा (बुद्धि हमेशा बलवान होती है)
संस्कृत सारांशः
अस्मिन् पाठे बुद्धिमतीनाम्नी महिलायाः बुद्धिकौशलं नीतिनिपुणयोः शुकसारिकयोः संवादमाध्यमेन प्रदर्शितं वर्तते, यत् सद्वृत्तेः विकासाय प्रेरति। कथायां बुद्धिमती स्वलघुपुत्रद्वयेन संनादति पितुर्गृहं प्रति गच्छति। मार्गे गहनकानने सा एकं व्याघ्रं दृष्ट्वा न संनादति, अपितु धैर्येण बुद्ध्या च तं संनादति। सा पुत्रौ चपेटया प्रहृत्य उच्चैः कथति—“कथमेकैकशो व्याघ्रभक्षणाय कलहं कुरुथः? अयमेकस्तावद् विभज्य भुज्यताम्, पश्चात् अन्यो द्वितीयः कश्चिल्लक्ष्यते।” इति श्रुत्वा व्याघ्रः तां व्याघ्रमारीति मत्वा भयाकुलचित्तः पलायति। तेन सा प्रथमं भयात् मुक्ता भवति।
किन्तु कथायां परिवर्तनं समागच्छति यदा धूर्तः शृगालः व्याघ्रस्य भयं दृष्ट्वा तस्य उपहासं करोति। शृगालः व्याघ्रं पृच्छति—“भवान् कुतः भयात् पलायितः?” व्याघ्रः संनादति यत् सा मानुषी पुत्रौ चपेटया प्रहृत्य तान् एकैकशो व्याघ्रभक्षणाय कलहन्तौ दृष्टवती। शृगालः तस्य भयं हास्यास्पदं मत्वा तं प्रेरति यत् पुनः तस्याः सम्मुखं गच्छतु। शृगालः स्वयं विश्वासति यत् सा केवलं धूर्ता अस्ति, न व्याघ्रमारी। अतः सः व्याघ्रं संनादति यत् यदि सा तं सम्मुखमपि ईक्षति, तर्हि व्याघ्रः शृगालं हन्तव्यम्। व्याघ्रः शृगालं गले बद्ध्वा पुनः काननं प्रति याति।
दूरात् शृगालेन सहितं व्याघ्रं दृष्ट्वा बुद्धिमती पुनः प्रत्युत्पन्नमतित्वेन विचारति। सा शृगालं तर्जयन्ती अङ्गुल्या निर्दिशति च उच्चैः कथति—“रे रे धूर्त! त्वया पुरा मह्यं व्याघ्रत्रयं दत्तं विश्वासेन, अधुना एकमेव कथमानीय यासि?” इति धावन्ती सा भयङ्करं रूपं धारति। ततः व्याघ्रः गलबद्धशृगालेन सह भयेन संनादति पुनः पलायति। एवम्प्रकारेण बुद्धिमती स्वबुद्ध्या न केवलं व्याघ्रात्, अपितु शृगालकृतोत्साहात् api महतो भयात् मुक्ता भवति।
अतः पाठः उपदेशति यत् बुद्धिः सर्वदा सर्वकार्येषु बलवती। यया न केवलं स्वयं रक्षति, अपितु अन्यान् api भयात् मुक्तं करोति। कथेयं नीतिनिपुणयोः शुकसारिकयोः संनादेन संनादति यत् बुद्धिमता सर्वं सम्भवति।
हिन्दी अनुवाद
इस पाठ में बुद्धिमती नामक एक महिला की बुद्धिचातुर्य को शुक और सारिका के संवाद के माध्यम से दर्शाया गया है, जो सदाचार के विकास के लिए प्रेरित करता है। कहानी में बुद्धिमती अपने दो छोटे पुत्रों के साथ अपने पिता के घर जा रही होती है। रास्ते में घने जंगल में एक बाघ को देखकर वह डरती नहीं, बल्कि धैर्य और बुद्धि से उसका सामना करती है। वह अपने पुत्रों को थप्पड़ मारकर जोर से कहती है—“तुम दोनों एक-एक करके बाघ खाने के लिए क्यों झगड़ रहे हो? पहले इस एक बाघ को बाँटकर खाओ, फिर दूसरा कोई मिलेगा।” यह सुनकर बाघ उसे बाघों का शिकार करने वाली समझकर डर से भाग जाता। इससे वह पहली बार खतरे से मुक्त हो जाती है।
लेकिन कहानी में मोड़ तब आता है जब एक धूर्त सियार बाघ के डर को देखकर उसका मजाक उड़ाता है। सियार बाघ से पूछता है—“तुम किस डर से भागे?” बाघ बताता है कि उसने उस मानुषी को अपने पुत्रों को थप्पड़ मारते हुए देखा, जो एक-एक करके बाघ खाने के लिए झगड़ रहे थे। सियार उसके डर को हास्यास्पद मानकर उसे उकसाता है कि वह फिर से उस महिला के सामने जाए। सियार स्वयं विश्वास करता है कि वह केवल धूर्त है, कोई बाघ मारने वाली नहीं। अतः वह बाघ को कहता है कि यदि वह महिला उसे सामने देखकर भी नहीं डरती, तो बाघ सियार को मार डाले। बाघ सियार को गले में बाँधकर फिर से जंगल की ओर जाता है।
दूर से सियार के साथ बाघ को आते देख बुद्धिमती फिर से अपनी त्वरित बुद्धि से सोचती है। वह सियार को धमकाते हुए उँगली से इशारा करती है और जोर से कहती है—“रे धूर्त! तूने पहले मुझसे तीन बाघ लाने का वादा किया था, अब केवल एक ही क्यों लाया?” यह कहकर वह भयानक रूप धारण करके दौड़ती है। इससे बाघ गले में बँधे सियार के साथ डरकर फिर से भाग जाता। इस प्रकार बुद्धिमती अपनी बुद्धि से न केवल बाघ से, बल्कि सियार के उकसावे से उत्पन्न खतरे से भी मुक्त हो जाती है।
अतः यह पाठ उपदेश देता है कि बुद्धि हर समय और हर कार्य में बलवती होती है। यह न केवल स्वयं की रक्षा करती है, बल्कि दूसरों को भी भय से मुक्त करती है। यह कहानी शुक और सारिका के संवाद के माध्यम से यह सिखाती है कि बुद्धिमान व्यक्ति के लिए सब कुछ सम्भव है।
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