शिशुलालनम् (शिशुओं का लालन-पोषण )
प्रस्तुतः पाठः कुन्दमाला – इतिनाम्नो दिङ्नागविरचितस्यः संस्कृतस्य प्रसिद्धनाट्यग्रन्थस्य
पञ्चमाङ्कात् सम्पादनं कृत्वा सङ्कलितोऽस्ति । अत्र नाटकांशे रामः स्वपुत्रौ लवकुशौ सिंहासनम्
आरोहयितुम् इच्छति किन्तु उभावपि सविनयं तं निवारयतः । सिंहासनारूढः रामः उभयोः
रूपलावण्यं दृष्ट्वा मुग्धः सन् स्वक्रोडे गृह्णाति । पाठेऽस्मिन् शिशुवात्सल्यस्य मनोहारिवर्णनं विद्यते।
(सिंहासनस्थः रामः। ततः प्रविशतः विदूषकेनोपदिश्यमानमागौ तापसौ कुशलवौ)
हिंदी अनुवाद
प्रस्तुत पाठ संस्कृत के प्रसिद्ध नाटक कुन्दमाला के पंचम अंक से संपादित करके संकलित किया गया है, जिसके रचयिता दिङ्नाग हैं। इस नाटकांश में राम अपने पुत्रों लव और कुश को सिंहासन पर बिठाने की इच्छा रखते हैं, लेकिन दोनों विनम्रता से इसका विरोध करते हैं। सिंहासन पर बैठे राम, दोनों के रूप और लावण्य को देखकर मुग्ध हो जाते हैं और उन्हें अपनी गोद में लेते हैं। इस पाठ में शिशुओं के प्रति वात्सल्य का मनोहारी वर्णन है।
(सिंहासन पर बैठे राम। तत्पश्चात विदूषक के मार्गदर्शन में तपस्वी वेश में लव और कुश प्रवेश करते हैं।)
विदूषकः – इत इत आयौं !
विदूषक: इधर-इधर आओ!
कुशलवो – (रामम् उपसृत्य प्रणम्य च) अपि कुशलं महाराजस्य ?
कुश और लव: (राम के पास जाकर प्रणाम करते हुए) क्या महाराज कुशल हैं?
रामः – युष्मद्दर्शनात् कुशलमिव । भवतोः किं वयमत्र कुशलप्रश्नस्य भाजनम्
एव, न पुनरतिथिजनसमुचितस्य कण्ठाश्लेषस्य । (परिष्वज्य ) अहो हृदयग्राही स्पर्शः ।
राम: तुम दोनों के दर्शन से कुशल ही प्रतीत होता है। क्या हम यहाँ केवल कुशल-प्रश्न के ही पात्र हैं, या अतिथियों के लिए उचित कंठाश्लेष (आलिंगन) के भी पात्र नहीं हैं? (दोनों को गले लगाते हुए) अहो! यह स्पर्श हृदय को आकर्षित करने वाला है।
(आसनार्धमुपवेशयति)
(राम दोनों को सिंहासन के आधे भाग पर बिठाते हैं।)
उभौ – राजासनं खल्वेतत्, न युक्तमध्यासितुम् ।
लव और कुश: यह तो राजसिंहासन है, इसे ग्रहण करना उचित नहीं।
रामः – सव्यवधानं न चारित्रलोपाय । तस्मादङ्क – व्यवहितमध्यास्यतां सिंहासनम्।
राम: कोई बाधा चारित्रिक दोष का कारण नहीं बनती। अतः मेरी गोद में बैठकर सिंहासन को ग्रहण करो।
(अङ्कमुपवेशयति)
(राम दोनों को अपनी गोद में बिठाते हैं।)
उभौ – (अनिच्छां नाटयतः ) राजन् ! अलमतिदाक्षिण्येन ।
लव और कुश: (अनिच्छा का अभिनय करते हुए) राजन! अति विनम्रता ठीक नहीं।
रामः – अलमतिशालीनतया ।
अत्यधिक संकोच भी उचित नहीं।
भवति शिशुजनो वयोऽनुरोधाद्
गुणमहतामपि लालनीय एव ।
व्रजति हिमकरोऽपि बालभावात्
पशुपति – मस्तक – केतकच्छदत्वम्॥
बच्चे अपनी आयु के कारण गुणवानों के लिए भी लालनीय ही होते हैं।
बालभाव के कारण चंद्रमा भी पशुपति (शिव) के मस्तक पर केतकी के पुष्पों से निर्मित छत्र की तरह शोभायमान होता है।
रामः – एष भवतोः सौन्दर्यावलोकजनितेन कौतूहलेन पृच्छामि – क्षत्रियकुल-
पितामहयोः सूर्यचन्द्रयोः को वा भवतोर्वंशस्य कर्त्ता ?
राम: तुम दोनों के सौंदर्य को देखकर उत्पन्न कौतूहल से मैं पूछता हूँ—
क्षत्रिय कुल के पितामह सूर्य और चंद्र में से तुम्हारे वंश का कर्ता कौन है?
लवः – भगवान् सहस्रदीधितिः ।
लव: भगवान् सूर्य, जो सहस्र किरणों वाले हैं।
रामः – कथमस्मत्समानाभिजनौ संवृत्तौ ?
राम: कैसे तुम दोनों हमारे समान कुल में उत्पन्न हुए?
विदूषकः – किं द्वयोरप्येकमेव प्रतिवचनम् ?
विदूषक: क्या दोनों का उत्तर एक ही है?
लवः – भ्रातरावावां सोदर्यौ ।
लव: हम दोनों सगे भाई हैं।
रामः – समरूपः शरीरसन्निवेशः । वयसस्तु न किञ्चिदन्तरम् ।
राम: तुम दोनों का शारीरिक गठन एक समान है। आयु में भी कोई अंतर नहीं है।
लवः – आवां यमलौ।
लव: हम यमल (जुड़वाँ) हैं।
रामः – सम्प्रति युज्यते । किं नामधेयम् ?
राम: अब बात समझ में आती है। तुम्हारे नाम क्या हैं?
लवः – आर्यस्य वन्दनायां लव इत्यात्मानं श्रावयामि ( कुशं निर्दिश्य) आर्योऽपि गुरुचरणवन्दनायाम्……..
लव: मैं आर्य के प्रणाम में स्वयं को लव के रूप में प्रस्तुत करता हूँ। (कुश की ओर संकेत करते हुए) यह आर्य भी गुरु के चरणों में प्रणाम करते हुए……
कुश: – अहमपि कुश इत्यात्मानं श्रावयामि ।
कुश: मैं भी स्वयं को कुश के रूप में प्रस्तुत करता हूँ।
रामः – अहो! उदात्तरम्यः समुदाचारः ।
किं नामधेयो भवतोर्गुरुः ?
राम: अहो! कितना उदात्त और रमणीय व्यवहार है।
तुम्हारे गुरु का नाम क्या है?
लवः – ननु भगवान् वाल्मीकिः ।
लव: निश्चय ही भगवान् वाल्मीकि।
रामः – केन सम्बन्धेन ?
राम: उनके साथ तुम्हारा क्या संबंध है?
लवः – उपनयनोपदेशेन ।
लव: उपनयन और उपदेश का संबंध।
रामः – अहमत्र भवतोः जनकं नामतो वेदितुमिच्छामि ।
राम: मैं तुम दोनों के पिता का नाम जानना चाहता हूँ।
लवः – न हि जानाम्यस्य नामधेयम्। न कश्चिदस्मिन् तपोवने तस्य नाम व्यवहरति ।
लव: मुझे उनके नाम का ज्ञान नहीं है। इस तपोवन में कोई भी उनके नाम का व्यवहार नहीं करता।
रामः – अहो माहात्म्यम् ।
राम: अहो! यह महानता है।
कुश: – जानाम्यहं तस्य नामधेयम् ।
कुश: मुझे उनके नाम का ज्ञान है।
रामः – कथ्यताम्।
राम: बताओ।
कुश: – निरनुक्रोशो नाम …..
कुश: उनका नाम निरनुक्रोश है……
रामः – वयस्य, अपूर्वं खलु नामधेयम्।
राम: मित्र, यह तो अनोखा नाम है।
विदूषकः – (विचिन्त्य) एवं तावत् पृच्छामि । निरनुक्रोश इति क एवं भणति ?
विदूषक: (सोचकर) मैं इस प्रकार पूछता हूँ। निरनुक्रोश नाम किसने कहा?
कुशः – अम्बा |
कुश: माता ने।
विदूषकः – किं कुपिता एवं भणति, उत प्रकृतिस्था ?
विदूषक: क्या वे क्रोध में ऐसा कहती हैं, या सामान्य स्थिति में?
कुशः – यद्यावयोर्बालभावजनितं किञ्चिदविनयं पश्यति तदा एवम् अधिक्षिपति- निरनुक्रोशस्य पुत्रौ मा चापलम् इति ।
कुश: जब वे हम दोनों के बालसुलभ अविनय को देखती हैं, तब वे इस प्रकार डाँटती हैं—निरनुक्रोश के पुत्र, शरारत मत करो।
विदूषकः – एतयोर्यदि पितुर्निरनुक्रोश इति नामधेयम् एतयोर्जननी तेनावमानिता निर्वासिता एतेन वचनेन दारकौ निर्भर्त्सयति ।
विदूषक: यदि इनके पिता का नाम निरनुक्रोश है, तो इनकी माता उससे अपमानित और निर्वासित होकर इन बच्चों को इस वचन से डाँटती हैं।
रामः – (स्वगतम्) धिङ् मामेवंभूतम् । सा तपस्विनी मत्कृतेनापराधेन स्वापत्यमेवं मन्युगभैरक्षरैर्निर्भर्त्सयति ।
राम: (स्वगत) धिक्कार है मुझे, जो ऐसा हुआ। वह तपस्विनी मेरे अपराध के कारण अपने बच्चों को क्रोध भरे शब्दों से इस प्रकार डाँटती है।
(सवाष्पमवलोकयति)
(आँसुओं के साथ देखते हैं।)
रामः – अतिदीर्घः प्रवासोऽयं दारुणश्च । (विदूषकमवलोक्य जनान्तिकम्) कुतूहलेनाविष्टो मातरमनयोर्नामतो वेदितुमिच्छामि । न युक्तं च स्त्रीगतमनुयोक्तुम्, विशेषतस्तपोवने । तत् कोऽत्राभ्युपायः ?
राम: यह प्रवास बहुत लंबा और कठोर है। (विदूषक की ओर देखकर एकांत में) मैं कौतूहल से इनकी माता का नाम जानना चाहता हूँ। किन्तु तपोवन में, विशेषकर स्त्री के विषय में पूछना उचित नहीं। फिर उपाय क्या है?
विदूषकः – (जनान्तिकम्) अहं पुनः पृच्छामि । ( प्रकाशम् ) किं नामधेया युवयोर्जननी ?
विदूषक: (एकांत में) मैं पुनः पूछता हूँ। (प्रकट रूप से) तुम दोनों की माता का नाम क्या है?
लवः – तस्याः द्वे नामनी ।
लव: उनके दो नाम हैं।
विदूषकः – कथमिव ?
विदूषक: कैसे?
लवः – तपोवनवासिनो देवीति नाम्नाह्वयन्ति भगवान् वाल्मीकिर्वधूरिति ।
लव: तपोवन के निवासी उन्हें ‘देवी’ कहते हैं, और भगवान् वाल्मीकि उन्हें ‘वधू’ कहते हैं।
रामः – अपि च इतस्तावद् वयस्य ! मुहूर्त्तमात्रम्।
राम: अभी तो उम्र बहुत कम है मित्र !, थोड़ा रुको।
विदूषकः – (उपसृत्य) आज्ञापयतु भवान् ।
विदूषक: (पास आकर) आज्ञा दीजिए।
रामः – अपि कुमारयोरनयोरस्माकं च सर्वथा समरूपः कुटुम्बवृत्तान्तः ?
राम: क्या इन दोनों कुमारों और हमारे परिवार का वृत्तांत सर्वथा एक समान है?
(नेपथ्ये)
(नेपथ्य से)
इयती वेला सञ्जाता, रामायणगानस्य नियोगः किमर्थं न विधीयते ?
इतना समय हो गया, रामायण गान का नियोग क्यों नहीं किया जा रहा?
उभौ – राजन् ! उपाध्यायदूतोऽस्मान् त्वरयति ।
लव और कुश: राजन! उपाध्याय का दूत हमें शीघ्रता करने को कह रहा है।
रामः – मयापि सम्माननीय एव मुनिनियोगः । तथाहि-
राम: मुझे भी मुनि के नियोग का सम्मान करना है। ऐसा है—
भवन्तौ गायन्तौ कविरपि पुराणो व्रतनिधिर्
गिरां सन्दर्भोऽयं प्रथममवतीर्णो वसुमतीम् ।
कथा चेयं श्लाघ्या सरसिरुहनाभस्य नियतं
पुनाति श्रोतारं रमयति च सोऽयं परिकरः ॥
तुम दोनों गान करने वाले हो, पुराण मुनि और व्रतनिधि कवि (वाल्मीकि) ने यह रचना धरती पर प्रथम बार उतारी है।
यह सरसिरुहनाभ (विष्णु) की प्रशंसनीय कथा है, जो निश्चय ही श्रोताओं को पवित्र करती है और रमाती है।
वयस्य ! अपूर्वोऽयं मानवानां सरस्वत्यवतारः, तदहं सुहृज्जनसाधारणं
श्रोतुमिच्छामि । सन्निधीयन्तां सभासदः, प्रेष्यतामस्मदन्तिकं सौमित्रिः,
अहमप्येतयोश्चिरासनपरिखेदं विहरणं कृत्वा अपनयामि ।
मित्र! यह मानवों के लिए सरस्वती का अनोखा अवतार है। मैं इसे सुहृदजनों के साथ सुनना चाहता हूँ। सभासदों को बुलाया जाए, सौमित्रि को हमारे पास भेजा जाए, और मैं भी इन दोनों के लंबे समय तक बैठने की थकान को टहलकर दूर करता हूँ।
(इति निष्क्रान्ताः सर्वे)
(इति सभी निष्क्रांत होते हैं।)
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