शिशुलालनम् (शिशुओं का लालन-पोषण )
संस्कृत सारांशः
तृतीयः पाठः दिङ्नागविरचितस्य “कुन्दमाला” नाटकस्य पञ्चमाङ्कात् सङ्कलितोऽस्ति, यत्र रामस्य शिशुवात्सल्यस्य मनोहरं वर्णनं समुपलभ्यते। अस्मिन् पाठे रामः सिंहासनस्थः स्वपुत्रौ लवकुशौ तापसवेशधारी विदूषकेन संनाद्यमानौ दृष्ट्वा तयोः रूपलावण्येन संनादति। तौ रामं प्रणमति, कुशलं च पृच्छतः—“अपि कुशलं महाराजस्य?” रामः तयोः दर्शनात् कुशलमिव संनादति, परं कण्ठाश्लेषस्य हृदयग्राही स्पर्शः तं मुग्धं करोति। सः तौ सिंहासने उपवेशयितुं प्रेरति, किन्तु लवकुशौ सविनयं निषेधतः, यत् राजासनं नाध्यासितुं युक्तम्। रामः तयोः अतिशालीनतां निन्दति, श्लोकेन च कथति यत् वयोऽनुरोधात् शिशुजनः लालनीयः, यथा हिमकरः (चन्द्रः) बालभावात् पशुपतेः मस्तके केतकच्छदवत् शोभति।
रामः कौतूहलेन तयोः वंशं, गुरुं, मातापितृनाम च पृच्छति। लवः कथति यत् तयोः वंशकर्ता सहस्रदीधितिः (सूर्यः), गुरुः भगवान् वाल्मीकिः उपनयनोपदेशेन सम्बद्धः, परं पितृनाम न जानाति। कुशः कथति यत् माता कुपिता तयोः पितरं “निरनुक्रोशः” इति संनादति, यदा तौ बालभावेन अविनयं कुरुतः। विदूषकः पृच्छति यत् किं माता प्रकृतिस्था एवम् अधिक्षिपति उत कुपिता। कुशः संनादति यत् माता क्रोधेन तौ “निरनुक्रोशस्य पुत्रौ” इति निर्भर्त्सति। रामः स्वगतं चिन्तति यत् सा तपस्विनी मम अपराधेन मन्युना पुत्रौ निर्भर्त्सति, इति धिक्कारति स्वयम्। विदूषकः मातृनाम पृच्छति, लवः कथति यत् तपोवनवासिनः तां “देवी” इति, वाल्मीकिः “वधू” इति च आह्वयति।
नेपथ्ये रामायणगानस्य समये उपाध्यायदूतः तौ त्वरयति। लवकुशौ रामात् आज्ञां प्रार्थतः। रामः तयोः गानं श्रोतुमिच्छति, यत् वाल्मीकिकृतं पुराणं काव्यं गिरां सन्दर्भः प्रथमं वसुमतीम् अवतीर्णः, सरसिरुहनाभस्य (विष्णोः) श्लाघ्या कथा च श्रोतृन् पुनाति रमति च। सः सौमित्रिं सभासदः च सन्निधानाय प्रेषति, स्वयं च तयोः परिश्रमं विहरणेन अपनयति। पाठः शिशुस्नेहस्य, बुद्धिनम्रतायाः, च काव्यस्य महत्त्वं दर्शति।
हिन्दी अनुवाद
तीसरा पाठ दिङ्नाग द्वारा रचित नाटक “कुन्दमाला” के पाँचवें अंक से लिया गया है, जिसमें राम के शिशु-स्नेह का मनोहारी वर्णन है। इस पाठ में सिंहासन पर बैठे राम अपने पुत्रों लव और कुश को, जो तपस्वी वेश में विदूषक के मार्गदर्शन में आते हैं, देखकर उनके रूप और सौन्दर्य से प्रभावित होते हैं। लव और कुश राम को प्रणाम करते हैं और उनका कुशलक्षेम पूछते हैं—“क्या महाराज कुशल हैं?” राम उनके दर्शन से प्रसन्न होकर कहते हैं कि वे कुशल हैं, लेकिन उनकी आलिंगन की हृदयस्पर्शी अनुभूति उन्हें मुग्ध कर देती है। वह उन्हें सिंहासन पर बैठाना चाहते हैं, लेकिन लव और कुश विनम्रतापूर्वक मना करते हैं कि राजसिंहासन पर बैठना उचित नहीं। राम उनकी अत्यधिक विनम्रता की आलोचना करते हैं और एक श्लोक के माध्यम से कहते हैं कि छोटी उम्र के कारण बालक लालन के योग्य होते हैं, जैसे चन्द्रमा अपनी बालसुलभता के कारण शिव के मस्तक पर केतकी के पुष्पों की तरह शोभायमान होता है।
राम उत्सुकतावश उनके वंश, गुरु और माता-पिता के नाम पूछते हैं। लव बताता है कि उनके वंश के कर्ता सूर्य हैं, गुरु वाल्मीकि हैं, जो उन्हें उपनयन और उपदेश से जोड़ते हैं, लेकिन वह अपने पिता का नाम नहीं जानता। कुश कहता है कि उनकी माता क्रोध में उनके पिता को “निरनुक्रोश” कहती है, जब वे बालसुलभ शरारत करते हैं। विदूषक पूछता है कि क्या माता सामान्य अवस्था में ऐसा कहती है या क्रोध में। कुश बताता है कि माता क्रोध में उन्हें “निरनुक्रोश के पुत्र” कहकर डाँटती है। राम मन ही मन सोचता है कि वह तपस्विनी मेरे अपराध के कारण क्रोध में पुत्रों को ऐसा कहती है, और वह स्वयं को धिक्कारता है। विदूषक माता का नाम पूछता है, तो लव बताता है कि तपोवनवासी उसे “देवी” और वाल्मीकि “वधू” कहते हैं।
पृष्ठभूमि से रामायण गान का समय होने की सूचना मिलती है, और उपाध्याय का दूत लव-कुश को जल्दी करने को कहता है। दोनों राम से जाने की अनुमति माँगते हैं। राम उनकी इच्छा रखते हैं कि वे वाल्मीकि रचित पुराण काव्य का गान करें, जो पृथ्वी पर प्रथम बार अवतरित वाणी का संग्रह है और विष्णु से संबंधित प्रशंसनीय कथा श्रोताओं को पवित्र और आनंदित करती है। वह सौमित्री और सभासदों को बुलाने का आदेश देता है और स्वयं लव-कुश के परिश्रम को सैर कराकर दूर करता है। यह पाठ शिशु-स्नेह, बुद्धि-नम्रता और काव्य के महत्त्व को दर्शाता है।
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