सुभाषितानि (मधुर वाणी)
प्रस्तावना
स्रोतम्: एषः पाठः विविधसंस्कृतग्रन्थेभ्यः संनादितदशसुभाषितानां संग्रहः अस्ति।
विषय: सुभाषितं संस्कृतसाहित्ये अर्थगाम्भीर्ययुक्तं प्रेरणादायि सार्वभौमिकसत्यं प्रकाशति। अयं पाठः परिश्रमस्य महत्त्वं, क्रोधस्य दुष्प्रभावं, सामाजिकसमतां, बुद्धेः वैशिष्ट्यं, सर्वं च उपादेयतां दर्शति।
हिंदी में :
स्रोत: यह पाठ विविध संस्कृत ग्रंथों से संकलित दस सुभाषितों का संग्रह है।
विषय: सुभाषित संस्कृत साहित्य में अर्थगाम्भीर्ययुक्त, प्रेरणादायी, सार्वभौमिक सत्य को प्रकाशित करने वाली रचनाएँ हैं। यह पाठ परिश्रम, क्रोध, सामाजिक समता, बुद्धि की महत्ता, और सभी वस्तुओं की उपयोगिता जैसे विषयों को दर्शाता है।
मुख्य बिंदु और संरचना
१. प्रस्तावना
परिभाषा: सुभाषितं गहनार्थयुक्तं प्रेरणादायि पद्यरचना अस्ति।
प्रसङ्ग: दशसुभाषितैः जीवनस्य विविधविषयान् नैतिकं प्रेरकं च शिक्षति।
मुख्यं विषयम्: परिश्रमः, क्रोधदुष्प्रभावः, सामाजिकसङ्गतिः, बुद्धिवैशिष्ट्यम्, सर्वं च उपादेयता।
हिंदी में :
परिभाषा: सुभाषित वे पद्यरचनाएँ हैं जो गहन अर्थ और प्रेरणा से युक्त होती हैं।
प्रसंग: यह पाठ दस सुभाषितों के माध्यम से जीवन के विभिन्न पहलुओं पर नैतिक और प्रेरक शिक्षाएँ देता है।
मुख्य विषय: परिश्रम का महत्त्व, क्रोध का दुष्प्रभाव, सामाजिक समता, बुद्धि की विशिष्टता, और सभी वस्तुओं की उपयोगिता।
२. सुभाषित और उनके भाव:
1. आलस्यं हि मनुष्याणां…
अन्वय: आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थः महान् रिपुः। उद्यमसमः बन्धुः न अस्ति, यं कृत्वा न अवसीदति।
भाव: आलस्यं मनुष्यस्य महाशत्रुः। उद्यमवत् बन्धुः नास्ति, येन कृत्वा न दुःखति।
हिंदी में :
आलस्य मनुष्यों का शरीर में रहने वाला महान शत्रु है। परिश्रम जैसा कोई मित्र नहीं, जिसे करने से मनुष्य कभी दुखी नहीं होता
2. गुणी गुणं वेत्ति…
अन्वय: गुणी गुणं वेत्ति, निर्गुणः न वेत्ति। बली बलं वेत्ति, निर्बलः न वेत्ति। पिकः वसन्तस्य गुणं वेत्ति, वायसः न। करी सिंहस्य बलं वेत्ति, मूषकः न।
भाव: गुणी एव गुणं, बली बलं, पिकः वसन्तगुणं, करी सिंहबलं जानाति, न निर्गुणादयः।
हिंदी में :
गुणी व्यक्ति ही गुण को जानता है, निर्गुण नहीं। बलवान बल को जानता है, निर्बल नहीं। कोयल वसंत के गुण को जानती है, कौआ नहीं। हाथी सिंह के बल को जानता है, चूहा नहीं।
3. निमित्तमुद्दिश्य हि यः प्रकुप्यति…
अन्वय: यः निमित्तमुद्दिश्य प्रकुप्यति, सः तस्य अपगमे ध्रुवं प्रसीदति। यस्य वै मनः अकारणद्वेषि, तं जनः कथं परितोषयिष्यति?
भाव: निमित्तेन क्रुद्धः अपगमे शान्तति। अकारणद्वेषिणं कथं जनः संनादति?
हिंदी में :
जो कारण से क्रुद्ध होता है, वह कारण हटने पर निश्चित रूप से शांत हो जाता है। जिसका मन बिना कारण द्वेष करता है, उसे लोग कैसे संतुष्ट करेंगे?
4. उदीरितोऽर्थः पशुनापि गृह्यते…
अन्वय: उदीरितः अर्थः पशुना अपि गृह्यते। हयाः नागाः च बोधिताः वहन्ति। पण्डितः जनः अनुक्तम् अपि ऊहति। बुद्धयः परेङ्गितज्ञानफलाः हि।
भाव: उक्तं पशवः गृह्णन्ति, हयादयः बोधिताः वहन्ति। पण्डितः अनुक्तं जानाति, बुद्धयः संकेतज्ञानफलाः।
हिंदी में :
कथित अर्थ को पशु भी समझ लेते हैं। घोड़े और हाथी निर्देश पर कार्य करते हैं। विद्वान अनकहा भी समझ लेता है, क्योंकि बुद्धि संकेत समझने में समर्थ होती है।
5. क्रोधो हि शत्रुः प्रथमो नराणां…
अन्वय: क्रोधः हि नराणां प्रथमः शत्रुः, देहस्थितः देहविनाशनाय। यथा काष्ठगतः वह्निः, सः एव वह्निः शरीरं दहति।
भाव: क्रोधः प्रथमशत्रुः, देहं नाशति, यथा काष्ठस्थवह्निः देहं दहति।
हिंदी में :
क्रोध मनुष्य का प्रथम शत्रु है, जो शरीर में रहकर उसे नष्ट करता है, जैसे लकड़ी में स्थित अग्नि उसी को जलाती है।
6. मृगा मृगैः सङ्गमनुव्रजन्ति…
अन्वय: मृगाः मृगैः, गावः गोभिः, तुरगाः तुरङ्गैः, मूर्खाः मूर्खैः, सुधियः सुधीभिः समान-शील-व्यसनेषु सख्यम् अनुव्रजन्ति।
भाव: समानशीलाः एव सख्यं कुरन्ति, यथा मृगादयः मूर्खाः सुधियः च।
हिंदी में :
हिरण हिरणों के साथ, गाय गायों के साथ, घोड़े घोड़ों के साथ, मूर्ख मूर्खों के साथ, और विद्वान विद्वानों के साथ मित्रता करते हैं। समान स्वभाव और रुचि में मित्रता होती है।
7. सेवितव्यो महावृक्षः…
अन्वय: फलच्छायासमन्वितः महावृक्षः सेवितव्यः। यदि दैवात् फलं न अस्ति, छाया केन निवार्यते?
भाव: फलच्छायायुक्तं वृक्षं सेवेत्। यदि फलं न, तथापि छाया न निषिध्यति।
हिंदी में :
फल और छाया देने वाला महान वृक्ष ही सेवनीय है। यदि भाग्यवश फल न हो, तो छाया को कौन रोक सकता है?
8. अमन्त्रमक्षरं नास्ति…
अन्वय: अमन्त्रमक्षरं न अस्ति, अनौषधं मूलं न अस्ति, अयोग्यः पुरुषः न अस्ति, योजकः तत्र दुर्लभः।
भाव: सर्वं मन्त्रौषधियोग्यं, योजकः एव दुर्लभः।
हिंदी में :
कोई अक्षर मंत्रहीन नहीं, कोई मूल औषधिहीन नहीं, कोई व्यक्ति अयोग्य नहीं। योजक ही वहाँ दुर्लभ है।
9. संपत्तौ च विपत्तौ च…
अन्वय: महताम् संपत्तौ विपत्तौ च एकरूपता। यथा सविता उदये रक्तः, तथा रक्तः च अस्तमये।
भाव: महान्तः सुखदुःखयोः समानाः, यथा सूर्यः उदयास्तयोः रक्तः।
हिंदी में :
महान व्यक्ति सुख-दुख में समान रहते हैं, जैसे सूर्य उदय और अस्त में लाल रहता है।
10. विचित्रे खलु संसारे…
अन्वय: विचित्रे संसारे खलु किञ्चित् निरर्थकं न अस्ति। अश्वः चेत् धावने वीरः, खरः भारस्य वहने (वीरः)।
भाव: संसारे सर्वं सार्थकम्। अश्वः धावने, खरः वहने वीरः।
हिंदी में :
इस विचित्र संसार में कुछ भी निरर्थक नहीं। घोड़ा यदि दौड़ में वीर है, तो गधा भार वहन में।
३. मुख्य विषय
- परिश्रम: आलस्यं शत्रुः, उद्यमः बन्धुः।
- गुणज्ञानम्: गुणी एव गुणं जानाति।
- क्रोधदुष्प्रभाव: क्रोधः देहं नाशति।
- बुद्धिवैशिष्ट्यम्: पण्डितः अनुक्तं जानाति।
- समानता: समानशीलेषु सख्यम्।
- उपादेयता: सर्वं सार्थकम्।
हिंदी में :
- परिश्रम: आलस्य शत्रु है, परिश्रम मित्र है।
- गुण की पहचान: गुणी व्यक्ति ही गुण को जानता है।
- क्रोध का दुष्प्रभाव: क्रोध शरीर को नष्ट करता है।
- बुद्धि की विशिष्टता: विद्वान अनकहा भी समझ लेता है।
- समानता: समान स्वभाव वालों में मित्रता होती है।
- उपयोगिता: संसार में कुछ भी निरर्थक नहीं।
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