सौहार्दं प्रकृतेः शोभा (सद्भाव प्रकृति का सौंदर्य है)
संस्कृत सारांशः
षष्ठः पाठः “सौहार्द प्रकृतेः शोभा” समाजे परस्परं स्नेहसौहार्दपूर्णं व्यवहारं प्रबोधति, यत् स्वार्थपरायणतायाः दोषं प्रकटति, सर्वं प्राणिनः अन्योन्याश्रिताः इति च बोधति। कथायां वनस्य समीपे नद्यां सिंहः विश्रामति, तदा वानराः तस्य पुच्छं कर्णं च आकृष्य तुदन्ति। क्रुद्धः सिंहः धावति, गर्जति, परं वृक्षारूढान् वानरान् न प्रापति। पक्षिणः तस्य दुरवस्थां दृष्ट्वा हर्षमिश्रितं कलरवं कुर्वन्ति। सिंहः क्रोधेन पृच्छति—“अहं वनराजः, किमर्थं मां तुदन्ति सर्वे?” वानरः प्रत्युत्तरति यत् सः भक्षकः, न रक्षकः, स्वरक्षायामपि असमर्थः। सः पञ्चतन्त्रोक्तिं स्मारति—“यो न रक्षति वित्रस्तान्, सः कृतान्तः, न राजा।” ततः काकः स्वयं वनराजपदाय योग्यं मन्यति, यतः तस्य सत्यप्रियता, ऐक्यं, परिश्रमः च विश्वप्रसिद्धं। पिकः काकस्य कर्कशध्वनिम् उपहसति, स्वस्य वसन्तगुणज्ञानं प्रशंसति, परं काकः पिकं परभृत् इति कथति, यतः सः पिकसन्ततिं पालयति। गजः स्वस्य विशालकायं, बलं, पराक्रमं च कथति, परं वानरः तस्य पुच्छं विधूय पुनः वृक्षमारोहति। सिंहः गजं स्मारति यत् तमपि वानराः तुदन्ति। वानरः स्वजातिं वनराजपदाय योग्यं कथति। बकः स्वयं ध्यानमग्नः, स्थितप्रज्ञवत् रक्षोपायान् चिन्तयति, परं मयूरः तस्य क्रूरतां निर्भर्त्सति, यतः सः मीनान् छलेन भक्षति। मयूरः स्वनृत्यं, सौन्दर्यं, शिखां च प्रशंसति, विधात्रा स्वयं राजमुकुटेन संनादितं कथति। व्याघ्रचित्रकौ अपि वनराजपदाय योग्यतां कथतः, परं सिंहः तौ भक्षकौ इति निन्दति। सर्वं पक्षिणः खगमेव राजानं कथन्ति, परं परस्परं न संनादन्ति। तदा सर्वं निद्रायन्तं उलूकं आत्मश्लाघाहीनं, पदनिर्लिप्तं च दृष्ट्वा तं राजानं संनादति। काकः तस्य निद्रालुता, क्रूरतां च निन्दति। प्रकृतिमाता प्रविशति, सर्वं प्राणिनः अन्योन्याश्रिताः इति बोधति, सौहार्देन सहयोगेन च जीवनं रसमयं भवति। सा उपदेशति—“प्रजासुखे राज्ञः सुखं, सहयोगेन लाभः, विवादेन हानिः।” अगाधजलेऽपि रोहितः गर्वं न याति, परं शफरी लघुजले फुर्कुरायति। सर्वं प्रकृतिमातरं प्रणमति, सौहार्देन जीवनं संनादति, गायति च—“अन्योन्यसहयोगेन लाभः, विवादेन हानिः।”
हिन्दी अनुवाद
छठा पाठ “सौहार्द प्रकृतेः शोभा” समाज में आपसी स्नेह और सौहार्दपूर्ण व्यवहार को प्रोत्साहित करता है, जो स्वार्थपरायणता के दोष को उजागर करता है और यह सिखाता है कि सभी प्राणी एक-दूसरे पर निर्भर हैं। कहानी में एक नदी के समीप जंगल में एक सिंह विश्राम कर रहा होता है, तभी वानर उसकी पूँछ और कान खींचकर तंग करते हैं। क्रोधित सिंह दौड़ता और गर्जना करता है, लेकिन वृक्षों पर चढ़े वानरों को पकड़ नहीं पाता। पक्षी उसकी दयनीय स्थिति देखकर हर्षमिश्रित शोर मचाते हैं। सिंह क्रोध में पूछता है—“मैं वनराज हूँ, फिर मुझे क्यों तंग करते हो?” एक वानर जवाब देता है कि वह भक्षक है, रक्षक नहीं, और स्वयं की रक्षा में भी असमर्थ है। वह पंचतंत्र की उक्ति स्मरण करता है—“जो भयभीत प्राणियों की रक्षा नहीं करता, वह यमराज है, राजा नहीं।” फिर कौआ स्वयं को वनराज के लिए योग्य मानता है, क्योंकि उसकी सत्यप्रियता, एकता और परिश्रम विश्वप्रसिद्ध हैं। कोयल कौए के कर्कश स्वर का मजाक उड़ाती है और वसंत के गुणों की अपनी समझ की प्रशंसा करती है, लेकिन कौआ कोयल को परभृत् कहता है, क्योंकि वह कोयल की संतानों का पालन करता है। हाथी अपनी विशाल काया, बल और पराक्रम की बात करता है, लेकिन वानर उसकी पूँछ खींचकर फिर वृक्ष पर चढ़ जाता है। सिंह हाथी को याद दिलाता है कि वानरों ने उसे भी तंग किया था। वानर अपनी जाति को वनराज के लिए योग्य बताता है। बगुला स्वयं को ध्यानमग्न और स्थितप्रज्ञ की तरह रक्षा के उपाय सोचने वाला कहता है, लेकिन मोर उसकी क्रूरता की निंदा करता है, क्योंकि वह मछलियों को छल से खाता है। मोर अपने नृत्य, सौंदर्य और शिखा की प्रशंसा करता है, कहता है कि विधाता ने उसे राजमुकुट से सुशोभित किया है। बाघ और चीता भी वनराज के पद के लिए योग्यता बताते हैं, लेकिन सिंह उन्हें भक्षक कहकर निंदित करता है। सभी पक्षी किसी पक्षी को ही राजा मानने की बात कहते हैं, लेकिन आपस में सहमत नहीं होते। तभी सभी सोते हुए उल्लू को आत्मप्रशंसा से मुक्त और पद के प्रति उदासीन देखकर उसे राजा चुनते हैं। कौआ उसकी निद्रालुता और क्रूरता की निंदा करता है। प्रकृतिमाता प्रवेश करती है और सिखाती है कि सभी प्राणी एक-दूसरे पर निर्भर हैं, और सौहार्द व सहयोग से जीवन रसमय होता है। वह उपदेश देती है—“प्रजा के सुख में राजा का सुख है, सहयोग से लाभ होता है, विवाद से हानि।” गहरे जल में रोहित मछली गर्व नहीं करती, लेकिन छोटे जल में शफरी मछली फुदकती है। सभी प्रकृतिमाता को प्रणाम करते हैं, सौहार्दपूर्ण जीवन की प्रतिज्ञा करते हैं और गाते हैं—“परस्पर सहयोग से लाभ होता है, विवाद से हानि।”
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