विचित्रः साक्षी (विचित्र गवाह” या “अजीब गवाह)
संस्कृत सारांशः
सप्तमः पाठः “विचित्रः साक्षी” ओम्प्रकाशठक्करविरचितायाः कथायाः सम्पादितं अंशं प्रस्तौति, यः बङ्गसाहित्यकारस्य बंकिमचन्द्रचटर्जीस्य न्यायाधीशरूपेण प्रदत्तनिर्णयेन संनादति। कथायां निर्धनः जनः भूरि परिश्रम्य किञ्चिद् वित्तं समुपार्जति, येन स्वपुत्रं महाविद्यालये प्रवेशति। पुत्रस्य रुग्णतां श्रुत्वा सः व्याकुलः सन् तं द्रष्टुं प्रस्थितः, परं अर्थाभावात् बसयानं विहाय पदातिरेव गच्छति। सायं गन्तव्याद् दूरे सति, निशान्धकारे विजने मार्गे पदयात्रां अशुभां मत्वा, सः पावस्थिते ग्रामे गृहस्थस्य गृहे रात्रिनिवासाय उपागच्छति। करुणापरः गृहस्थः तस्मै आश्रयं ददाति। विचित्रं दैवं, तस्यां रात्रौ चौरः गृहं प्रविष्ट्वा मञ्जूषाम् आदाय पलायति। अतिथिः चौरस्य पादध्वनिना प्रबुद्धः सन् तं अन्वधावति, गृह्णाति च, परं चौरः “चौरोऽयम्” इति उच्चैः क्रोशति। तस्य तारस्वरेण प्रबुद्धाः ग्रामवासिनः अतिथिमेव चौरं मत्वा भर्त्सयन्ति, यतः वस्तुतः आरक्षी एव चौरः आसीत्। आरक्षी तं कारागृहे प्रक्षिपति। अग्रिमे दिने न्यायाधीशः बंकिमचन्द्रः उभयोः पृथक् पृथक् विवरणं श्रुत्वा अतिथिं निर्दोषं, आरक्षिणं दोषिणं मनति, किन्तु प्रमाणाभावात् निर्णेतुं न शक्नोति। सः तौ अग्रिमे दिने पुनः उपस्थातुं, शवं च आनेतुं आदिशति, यं क्रोशद्वयान्तराले राजमार्गे कश्चन हतवान्। उभौ शवं वहतः, परं कृशकायः अतिथिः भारवेदनया क्रन्दति। तदा मुदितः आरक्षी तमुपहसति—“रे दुष्ट! त्वया मञ्जूषायाः ग्रहणं वारितं, इदानीं चौर्याभियोगे त्रिवर्षदण्डं भुक्ष्यसे।” शवं चत्वरे स्थापयत्सु, शवः स्वयं प्रावारकमपसार्य आरक्षिणः कथनं पुनरुच्चारति। बंकिमचन्द्रः तेन विचित्रेण साक्षिणा आरक्षिणं कारादण्डेन दण्डति, अतिथिं च ससम्मानं मुक्तति। पाठः उपदेशति यत् बुद्धिमता युक्त्या दुष्करं कार्यं लीलया सम्पादति।
हिन्दी अनुवाद
सातवाँ पाठ “विचित्र साक्षी” ओमप्रकाश ठक्कर की एक कहानी का हिस्सा है, जो बंगाली लेखक बंकिमचंद्र चटर्जी के न्यायाधीश के रूप में लिए गए एक फैसले पर आधारित है। कहानी में एक गरीब व्यक्ति बहुत मेहनत करके कुछ धन कमाता है और अपने बेटे को एक बड़े कॉलेज में दाखिला दिलाता है। जब उसे पता चलता है कि उसका बेटा बीमार है, तो वह परेशान होकर उसे देखने निकल पड़ता है। उसके पास बस का किराया नहीं होता, इसलिए वह पैदल ही चलता है। शाम होने पर वह अपने गंतव्य से अभी दूर होता है और रात के अंधेरे में सुनसान रास्ते पर चलना खतरनाक समझकर एक गाँव में रुकता है। वहाँ एक दयालु गृहस्थ उसे अपने घर में रात के लिए आश्रय देता है। लेकिन उस रात एक चोर उस घर में घुसता है और एक सन्दूक चुराकर भागने लगता है। अतिथि चोर के पैरों की आवाज से जाग जाता है और उसे पकड़ लेता है। लेकिन चोर जोर-जोर से चिल्लाता है, “यह चोर है, यह चोर है!” उसकी आवाज सुनकर गाँववाले जाग जाते हैं और अतिथि को ही चोर समझकर डाँटते हैं। असल में चोर कोई और नहीं, बल्कि गाँव का पुलिसवाला (आरक्षी) था। वह अतिथि को चोर बताकर जेल में डाल देता है। अगले दिन, न्यायाधीश बंकिमचंद्र दोनों की बात सुनता है और समझ जाता है कि अतिथि निर्दोष है और पुलिसवाला ही दोषी है, लेकिन सबूत न होने की वजह से वह फैसला नहीं कर पाता। वह दोनों को अगले दिन फिर से हाजिर होने और एक लाश लाने का आदेश देता है, जिसे दो कोस दूर राजमार्ग पर किसी ने मार डाला था। दोनों लाश को कंधे पर ढोकर लाते हैं। अतिथि दुबला-पतला होने की वजह से लाश के बोझ से कराहने लगता है। तब पुलिसवाला हँसते हुए उसका मजाक उड़ाता है, “अरे दुष्ट! तुमने मुझे सन्दूक चुराने से रोका था, अब चोरी के इल्जाम में तुम्हें तीन साल की जेल होगी।” जब वे लाश को चौराहे पर रखते हैं, तभी लाश कफन हटाकर पुलिसवाले की कही बात दोहराती है। इस अनोखे गवाह (साक्षी) की मदद से बंकिमचंद्र पुलिसवाले को जेल की सजा सुनाता है और अतिथि को सम्मान के साथ रिहा करता है। यह पाठ सिखाता है कि बुद्धिमान व्यक्ति अपनी चतुराई और युक्ति से मुश्किल काम को भी आसानी से पूरा कर सकता है।
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