वृक्षाः सत्पुरुषा: इव
पर्यावरण संरक्षण के विषय में एक प्रदर्शनी विद्यालय में आयोजित है। छात्र उस प्रदर्शनी को देख रहे हैं और शिक्षक के साथ बात कर रहे हैं।
छात्रा – श्रीमान ! मैने एक सुन्दर कथन पढ़ा है कि ‘वृक्ष सत्पुरुष हैं। ‘
शिक्षक – क्या ऐसा है? ठीक है, तो वह सुभाषित सुनाओ।
छात्रा – ठीक है श्रीमान !
(मुदिता सुभाषित सुनाती है, दूसरे छात्र भी गाते हैं)
छात्रा – श्रीमान ! मैंने जीवशास्त्र की पुस्तक में पढ़ा है कि वृक्ष शुद्ध वायु देते हैं।
छात्र- श्रीमान ! मेरी माता भी बोलती हैं कि वृक्ष पूजनीय होते हैं।
शिक्षक – प्रिय छात्रों ! सच है, वृक्ष शुद्ध वायु, फल, पुष्प और सब कुछ भी देते हैं। इसलिए वे पूजनीय हैं।
श्लोक 1:
संस्कृत:
छायामन्यस्य कुर्वन्ति तिष्ठन्ति स्वयमातपे।
फलान्यपि पराथांय वृक्षा: सत्पुरुषा इव।।
पदच्छेद:
छायाम् अन्यस्य कुर्वन्ति तिष्ठन्ति स्वयम् आतपे फलानि अपि पराथांय वृक्षा: सत्पुरुषा: इव।
अन्वय:
(वृक्षा:) स्वयम् आतपे तिष्ठन्ति (किन्तु) अन्यस्य छायां कुर्वन्ति, फलानि अपि पराथांय (यच्छन्ति) (अत:) वृक्षा: सत्पुरुषा: इव (सन्ति)।
पदार्थ:
वृक्षा: स्वयं सूर्यस्य आतपे तिष्ठन्ति किन्तु अन्येषां प्राणिनां कृते छायां कुर्वन्ति, फलानि अपि स्वयं न खादन्ति अपि तु अन्येभ्य: एव यच्छन्ति। अत: ते सत्पुरुषा: इव सन्ति। यत: ये सजजना: भवन्ति, ते स्वयं कष्टानि सहित्वा अपि अन्येषां हितं कुर्वन्त।
हिंदी अनुवाद:
पेड़ स्वयं धूप में खड़े रहते हैं, परंतु दूसरों के लिए छाया प्रदान करते हैं। अपने फल भी वे स्वयं नहीं खाते, बल्कि दूसरों को ही देते हैं। इसलिए पेड़ सज्जनों के समान हैं। जैसे सज्जन लोग स्वयं कष्ट सहकर भी दूसरों का भला करते हैं।
श्लोक 2:
संस्कृत:
दशकूपसमा वापी दशवापीसमो हुद:।
दशकूदसम: पुत्र: दशपुत्रसमो द्रम: ॥
पदच्छेद:
दशकूपसमा वापी दशवापीसम: हुद: दशहुदसम: पुत्र: दशपुत्रसम: द्रम:।
अन्वय:
दशकूपसमा वापी (अस्ति), दशवापीसम: हुद: (अस्ति), दशहुदसम: पुत्र: (अस्ति), दशपुत्रसम: द्रुम: (अस्ति)।
भावार्थ:
दशकूपै: समाना एका वापी भवति। एवम् एव दशवापीसमान: एक हुद: भवति। दशहुदै: समान: एक: पुत्री / पुत्र: भवति। तथैव दशसन्तानै: समान: एक: वृक्ष: मूल्यवान् भवति। अर्थात् एक: वृक्ष: सर्वाधिक: उपकारक: भवति। अत: सर्वे वृक्षारोपणं कुर्वन्तु।
हिंदी अनुवाद:
दस कुओं के बराबर एक बावड़ी होती है। दस बावड़ियों के बराबर एक तालाब होता है। दस तालाबों के बराबर एक पुत्र या पुत्री होती है। और दस पुत्रों के बराबर एक पेड़ मूल्यवान होता है। अर्थात, एक पेड़ सबसे अधिक उपकारी होता है। इसलिए सभी को वृक्षारोपण करना चाहिए।
श्लोक 3:
संस्कृत:
अहो एषां वरं जन्म सर्वप्राण्युपजीवनम्।
सुजनस्येव येषां वै विमुखा यान्ति नार्थिन: ॥
पदच्छेद:
अहो! एषां वरं जन्म सर्वप्राणि-उपजीवनं सुजनस्य इव येषां वै विमुखा: यान्ति न अर्थिन:।
अन्वय:
अहो! एषां सर्वप्राण्युपजीवनं जन्म वरम् (अस्ति)। सुजनस्य इव येषाम् अर्थिन: विमुखा: न यान्ति।
यादाद्र:
शीकृष्ण: युधिष्ठिरं वदति – हे युधिष्ठिर! अहो! एतेषां वृक्षाणां जन्म श्रेष्ठम् अस्ति, यत: एतेषां जन्म सर्वेषां जीवानाम् उपकाराय भवति। यथा सजजनेन्य: जनानां निराशा न भवति तथैव वृक्षाणां समीपे आगत्य अर्थिनां जनानां निराशा न भवति। तेषाम् आशानुरूपं वृक्षा: तेभ्य: फलानि पुष्पाणि छायां च यच्छन्ति।
हिंदी अनुवाद:
श्रीकृष्ण युधिष्ठिर से कहते हैं – हे युधिष्ठिर! आह! इन वृक्षों का जन्म श्रेष्ठ है, क्योंकि इनका जन्म सभी प्राणियों के उपकार के लिए होता है। जैसे सज्जनों के पास जाकर कोई निराश नहीं लौटता, वैसे ही वृक्षों के पास आने वाले इच्छुक लोगों को निराशा नहीं होती। वृक्ष उनकी इच्छा के अनुसार फल, फूल और छाया प्रदान करते हैं।
श्लोक 4:
संस्कृत:
परोपकाराय फलन्ति वृक्षा: परोपकाराय वहन्ति नद्य:।
परोपकाराय दृहन्ति गाव: परोपकाराय इदं शरीरम् ॥
पदच्छेद:
परोपकाराय फलन्ति वृक्षा: परोपकाराय वहन्ति नद्य: परोपकाराय दृहन्ति गाव: परोपकाराय इदं शरीरम्।
अन्वय:
वृक्षा: परोपकाराय फलन्ति, नद्य: परोपकाराय वहन्ति, गाव: परोपकाराय दृहन्ति, परोपकाराय (एव) इदं शरीरम् (अस्ति)।
भावार्थ:
वृक्षस्य फलानि अन्ये खादन्ति, न तु वृक्ष: स्वयं खादति। नदीनां जलस्य उपयोगम् अपि अन्य एव प्राणिन: कुर्वन्ति। गाव: अपि अन्येषां कृते एव दृभ्यं यच्छन्ति। एवमेव अस्माक जीवनम् अपि अन्येषाम् उपकाराय भवत्।
हिंदी अनुवाद:
वृक्ष दूसरों के उपकार के लिए फल देते हैं, वे स्वयं फल नहीं खाते। नदियाँ दूसरों के उपकार के लिए बहती हैं। गायें भी दूसरों के लिए ही दूध देती हैं। उसी प्रकार हमारा यह शरीर भी दूसरों के उपकार के लिए है।
श्लोक 5:
संस्कृत:
पुष्प-पत्र-फल-छाया-मूल-वल्कल-दालभि:।
धन्या महीरुहा येषां विमुखा यान्ति नार्थिन: ॥
पदच्छेद:
पुष्प-पत्र-फल-छाया-मूल-वल्कल-दालभि: धन्या: महीरुहा: येषां विमुखा: यान्ति न अर्थिन:।
अन्वय:
येषां पुष्प-पत्र-फल-छाया-मूल-वल्कल-दालभि: अर्थिन: विमुखा: न यान्ति (ते) महीरुहा: धन्या: (सन्ति)।
भावार्थ:
प्राणिन: वृक्षात् पुष्पाणि, पत्राणि, फलानि, छायां, मूलानि, वल्कलानि काष्ठानि च प्राप्तुवन्ति। अर्थात् वृक्षाणां पार्थवं यत् किमपि अस्ति तत् सर्वम् अपि प्राणिनां कृते एव अस्ति। वृक्षा: कदापि यान्तकान् निराशान् न कुर्वन्ति। अत: वृक्षा: धन्या: सन्ति।
हिंदी अनुवाद:
प्राणी वृक्षों से फूल, पत्ते, फल, छाया, जड़ें, छाल और लकड़ी प्राप्त करते हैं। अर्थात, वृक्षों का जो कुछ भी पृथ्वी पर है, वह सब प्राणियों के लिए ही है। वृक्ष कभी भी इच्छुक को निराश नहीं करते। इसलिए वृक्ष धन्य हैं।
श्लोक 6:
संस्कृत:
पिबन्ति नद्य: स्वयमेव नाम्भ:
स्वयं न खादन्ति फलानि वृक्षा:।
नादान्ति सस्यं खलु वारिवाहा:
परोपकाराय सतां विभूतय: ॥
पदच्छेद:
पिबन्ति नद्य: स्वयम् एव न अम्भ:, स्वयं न खादन्ति फलानि वृक्षा:। न अदन्ति सस्यं खलु वारिवाहा: परोपकाराय सतां विभूतय:।
अन्वय:
नद्य: अम्भ: स्वयम् एव न पिबन्ति। वृक्षा: अपि फलानि स्वयं न खादन्ति। वारिवाहा: (अपि) सस्यं न अदन्ति खलु। (यत:) सतां विभूतय: परोपकाराय (भवन्ति)।
भावार्थ:
नद्य: स्वीयं जलं स्वयं न पिबन्ति अपित् अन्येषाम् उपयोगाय यच्छन्ति। एवम् एव वृक्षा: अपि फलानि स्वयं न खादन्ति। मेघा: अपि जलं वर्षन्ति, किन्तु वृष्टया उत्पन्न सस्यं स्वयं न खादन्ति। अनेन प्रकारेण सज्जनानां सम्पद: अपि परोपकाराय भवन्ति।
हिंदी अनुवाद:
नदियाँ अपना जल स्वयं नहीं पीतीं, बल्कि दूसरों के उपयोग के लिए देती हैं। वृक्ष भी अपने फल स्वयं नहीं खाते। बादल भी जल बरसाते हैं, लेकिन वर्षा से उत्पन्न अन्न स्वयं नहीं खाते। इस प्रकार सज्जनों की संपत्ति भी दूसरों के उपकार के लिए होती है।
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