Notes For All Chapters – संस्कृत Class 6
आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान्रिपुः
– माता! आज तो छुट्टी का दिन है। आज मैं सारे दिन आराम करूँगा ।
– छुट्टी विद्यालय की है ना कि अपने अध्ययन की। बहुत आलस करते हो। उठो, मेहनत करो।
अधिक मेहनत से क्या मैं पास होऊँगा ?
– जो परिश्रम करता है, वह ही जीवन में सफलता प्राप्त करता है। परिश्रम ही मनुष्य का मित्र है। आलस्य तो दुश्मन के समान है।
– वह कैसे माता ?
– यदि जानना चाहते हो तो इस कथा को सुनो।
एक बड़े गाँव में एक भिक्षुक रहता था। यद्यपि वह जवान, मजबूत शरीर वाला था, फिर भी वह भिक्षा मांगता था। रास्ते में जिसे भी मिलता, वह कहता – “कृपया भिक्षा दीजिए। गरीब को दान दीजिए। पुण्य अर्जित करें।” कुछ लोग उसे धन देते, जबकि कुछ उसे डांटते थे।
एक दिन उसी रास्ते से एक धनी व्यक्ति आया। भिक्षुक मन ही मन सोचने लगा – “अहा, आज मेरा भाग्य चमक उठा। आज मुझे बहुत सारा धन मिलेगा।”
भिक्षुक ने धनी व्यक्ति से कहा, “आर्य! मैं बहुत गरीब हूँ। कृपया मुझे दान दें।”
धनी व्यक्ति ने उससे पूछा – “तुम क्या चाहते हो?”
भिक्षुक ने विनम्रता से उत्तर दिया, “आर्य! मैं बहुत सारा धन चाहता हूँ।”
तब धनी व्यक्ति ने कहा – “मैं तुम्हें हजार रुपये दूंगा, लेकिन तुम मुझे अपने पैर दे दो।”
भिक्षुक ने कहा – “मैं अपने पैर आपको कैसे दे सकता हूँ? बिना पैरों के मैं कैसे चलूंगा?”
धनी व्यक्ति ने कहा – “ठीक है, तो तुम पांच हजार रुपये ले लो और मुझे अपने हाथ दे दो।”
भिक्षुक ने कहा – “हाथों के बिना मैं भिक्षा कैसे मांगूंगा?”
इसी प्रकार धनी व्यक्ति ने कई हजार रुपये देकर भिक्षुक के शरीर के अंगों को खरीदने की इच्छा जताई, लेकिन भिक्षुक ने मना कर दिया।
तब धनी व्यक्ति ने कहा – “देखो मित्र! तुम्हारे पास हजारों रुपये के बराबर की संपत्ति है। फिर भी तुम खुद को कमजोर क्यों मानते हो? हम सौभाग्य से मनुष्य का जन्म प्राप्त करते हैं। इसके सफल होने के लिए परिश्रम करो। अब जाओ, तुम्हारा शुभ हो।”
उस दिन से भिक्षुक ने भिक्षा मांगना छोड़ दिया और मेहनत करके धन कमाने लगा तथा सम्मान के साथ जीवन यापन करने लगा।
इसलिए सज्जन लोग कहते हैं:
आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः।
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति॥
पदच्छेद: आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थः महान् रिपुः, न अस्ति उद्यमसमः बन्धुः कृत्वा यं न अवसीदति।
अन्वय: आलस्य मनुष्यों के शरीर में स्थित एक बड़ा शत्रु है। परिश्रम जैसा कोई मित्र नहीं है, क्योंकि परिश्रम करने से कोई दुखी नहीं होता।
भावार्थ: आलस्य मनुष्य के शरीर में रहने वाला सबसे बड़ा दुश्मन है। इसके कारण कोई कार्य सिद्ध नहीं होता। इसके विपरीत, परिश्रम जैसा कोई मित्र नहीं है, क्योंकि परिश्रम करने पर कोई भी व्यक्ति दुखी नहीं होता।
Very nice but very good also 👍😊👍😊👍👍👍👍😊😊😊👍😊😊😊 but
I mean gooddd
Very nice but very good also 👍😊👍😊👍👍👍👍😊😊😊👍😊😊😊