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संस्कृत Notes Class 8 Sanskrit Chapter 2 बिलस्य वाणी न कदापि में श्रुता

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मूलपाठः, अन्वयः, शब्दार्थः सरलार्थ

(क) कस्मिंश्चित् वने खरनखरः नाम सिंहः प्रतिवसति स्म। सः कदाचित् इतस्तत: परिभ्रमन् क्षुधातः न किञ्चिदपि आहारं प्राप्तवान्। ततः सूर्यास्तसमये एकां महतीं गुहां दृष्ट्वा सः अचिन्तयत्-“नूनम् एतस्यां गुहायां रात्रौ कोऽपि जीवः आगच्छति। अतः अत्रैव निगूढो भूत्वा तिष्ठामि” इति।

शब्दार्थ-
कस्मिंश्चित्-किसी।
प्रतिवसति स्म-रहता था।
इतस्ततः-इधर-उधर
क्षुधार्तः-भूख से व्याकुल
किञ्चिदपि-कुछ भी।
ततः-तब।
महतीम्-विशाल।
दृष्ट्वा-देखकर।
नूनम्-अवश्य ही । निश्चित रूप से।
वने-वन में।
कदाचित्-किसी समय।
परिभ्रमन्-घूमता हुआ।
आहारम्-भोजन।
एकाम्-एक।
गुहाम्-गुफा को।
अचिन्तयत्-सोचा।
एतस्याम्-इसमें।
रात्रौ-रात में।
जीवः-प्राणी।
अतः-इसलिए।
निगूढो भूत्वा-छिप कर
कोऽपि-कोई भी।
आगच्छति-आता है।
अत्रैव-यहाँ पर ही।
तिष्ठामि-बैठ जाता हूँ।

सरलार्थ-
किसी वन में खरनखर नामक सिंह रहता था। किसी समय भूख से व्याकुल होकर इधर-उधर घूमते हुए उसे कुछ भी भोजन प्राप्त न हुआ। तब सूर्य के अस्त होने के समय एक विशाल गुफा को देखकर वह सोचने लगा-“निश्चित रूप से इस गुफा में रात में कोई प्राणी आता है। अतः यहाँ पर ही छिप कर बैठता हूँ।”

(ख) एतस्मिन् अन्तरे गुहायाः स्वामी दधिपुच्छः नामकः शृगालः समागच्छत्। स च यावत् पश्यति तावत् सिंहपदपद्धतिः गुहायां प्रविष्टा दृश्यते, न च बहिरागता।शृगालः अचिन्तयत्-“अहो विनष्टोऽस्मि। नूनम् अस्मिन् बिले सिंहः अस्तीति तर्कयामि। तत् किं करवाणि?”

शब्दार्थ-
एतस्मिन् अन्तरे-इसी बीच
नामकः-नाम।
समागच्छत्-आ गया
पश्यति-देखता है।
सिंहपद०-सिंह के पैरों के।
प्रविष्टा-प्रविष्ट हुई । अंदर चली गई।
बहिः-बाहर।
अचिन्तयत्-सोचने लगा।
नूनम्-अवश्य ही।
अस्तीति-है-ऐसा।
करवाणि-करूँ।
गुहायाः-गुफा का
शृगालः-गीदड़
यावत्-ज्यों ही।
तावत्-त्यों ही।
पद्धतिः-निशान।
दृश्यते-दिखाई पड़ रही है।
आगता-आ गई।
विनष्ट:-नष्ट हो गया। न
अस्मिन्-इस।
तर्कयामि-सोचता हूँ।

सरलार्थ-
इसी बीच गुफा का मालिक दधिपुच्छ नामक गीदड़ आ गया। जैसे ही वह देखता है, वैसे ही शेर के पंजों के निशान गुफा में प्रविष्ट होते हुए (जाते हुए) दिखाई पड़े तथा (वे निशान) बाहर नहीं आए। गीदड़ सोचने लगा-“अरे, मैं मर गया। अवश्य ही, इस बिल में शेर है-ऐसा मैं मानता हूँ। तो क्या करूँ?”

(ग) एवं विचिन्त्य दूरस्थः रवं कर्तुमारब्धः-‘भो बिल! भो बिल! किं न स्मरसि, यन्मया त्वया सह समयः कृतोऽस्ति यत् यदाहं बाह्यतः प्रत्यागमिष्यामि तदा त्वं माम् आकारयिष्यसि? यदि त्वं मां न आह्वयसि तर्हि अहं द्वितीयं बिलं यास्यामि इति।”

शब्दार्थ –
एवम्-इस प्रकार।
दूरस्थ:-दूर खड़ा होकर।
कर्तुम्-करने के लिए।
किम – क्या
स्मरसि-तुम याद करते हो
त्वया सह-तुम्हारे साथ।
कृतः-की।
यदा-जब।
विचिन्त्य-सोच कर।
रवम्-आवाज / शब्द।
आरब्धः-आरम्भ किया।
यन्मया-कि मैंने।
समयः-प्रतिज्ञा / समझौता।
यत्-कि।
बाह्यतः-बाहर से।
तदा-तब।
प्रत्यागमिष्यामि-लौटूंगा।
आकारयिष्यसि-बुलाओगे।
तर्हि-तो।
आह्वयसि-बुलाती हो।
यास्यामि-चला जाऊँगा।

सरलार्थ-
ऐसा विचार कर दूर खड़े होकर आवाज करना शुरू किया- “अरे बिल! अरे बिल! क्या तुम्हें याद नहीं है, कि मैंने तुम्हारे साथ समझौता किया है कि जब मैं बाहर से लौटूंगा तब तुम मुझे बुलाओगे? यदि तुम मुझे नहीं बुलाते हो तो मैं दूसरे बिल में चला जाऊँगा।”

(घ) अथ एतच्छ्रुत्वा सिंहः अचिन्तयत्-“नूनमेषा गुहा स्वामिनः सदा समाह्वानं करोति। परन्तु मद्भयात् न किञ्चित् वदति।”
अथवा साध्विदम् उच्यते –
भयसन्त्रस्तमनसां हस्तपादादिकाः क्रियाः।
प्रवर्तन्ते न वाणी च वेपथुश्चाधिको भवेत्।।

अन्वयः –
भयसन्त्रस्तमनसां हस्तपादादिकाः क्रियाः वाणी च न प्रवर्तन्ते, वेपथुः च अधिकः भवेत्।

शब्दार्थ-
अथ-इसके बाद।
श्रुत्वा-सुनकर।
नूनम्-अवश्य।
स्वामिनः-स्वामी का
परन्तु-लेकिन।
भयात्-डर से।
वदति-कहती है।
उच्यते-कहा गया है।
सन्त्रस्त०-डरा हुआ।
पाद०-पैर आदि।
वेपथुः-कम्पन
एतत्- यह
अचिन्तयत्-सोचा।
एषा – यह।
समाह्वानम्-आह्वान / बुलाना।
मद्-मेरे।
किञ्चित्-कुछ।
साधु-उचित।

सरलार्थ-
इसके बाद यह सुनकर सिंह सोचने लगा-“अवश्य ही यह गुफा अपने स्वामी को सदा बुलाती होगी; परन्तु मेरे डर से (आज) कुछ नहीं बोल रही है।”

अथवा यह उचित ही कहा है –
भय से डरे हुए मन वाले (लोगों) के हाथ व पैरों से सम्बन्धित क्रियाएँ तथा वाणी ठीक से प्रवृत्त नहीं हुआ करती हैं तथा कम्पन अधिक होता है।

(ङ) तदहम् अस्य आह्वानं करोमि। एवं सः बिले प्रविश्य मे भोज्यं भविष्यति। इत्थं विचार्य सिंहः सहसा शृगालस्य आह्वानमकरोत्। सिंहस्य उच्चगर्जनप्रतिध्वनिना सा गुहा उच्चैः शृगालम् आह्वयत्। अनेन अन्येऽपि पशवः भयभीताः अभवन्। शृगालोऽपि ततः दूरं पलायमानः इममपठत्

शब्दार्थ-
तद्-तब (तो)।
एवम्-इस प्रकार।
मे-मेरा।
इत्थम्-इस प्रकार।
सहसा-अचानक।
प्रतिध्वनिना-गूंज के द्वारा
आह्वयत्-बुलाया।
भयभीताः-डर से, डर कर।
पलायमानः-भागता हुआ।
अपठत्-पढ़ा।
आह्वानं करोमि-बुलाता हूँ।
प्रविश्य-प्रवेश करके। मे-मेरा।
भोज्यम्-भोजन
विचार्य-विचार करके।

सरलार्थ-
तो मैं इसे बुलाता हूँ। इस प्रकार वह बिल में घुस कर मेरा भोजन बन जाएगा। इस प्रकार विचार करके सिंह ने एकाएक गीदड़ को बुलाया। सिंह की ऊँची गर्जना (दहाड़) की गूंज से उस गुफा ने जोर से गीदड़ को बुलाया। इससे अन्य पशु भी भयभीत हो गए। गीदड़ भी उससे दूर भागता हुआ इस (श्लोक) को पढ़ने लगा

अनागतं यः कुरुते स शोभते
स शोच्यते यो न करोत्यनागतम्।
वनेऽत्र संस्थस्य समागता जरा
बिलस्य वाणी न कदापि मे श्रुता॥

अन्वयः-
यः अनागतं कुरुते, सः शोभते। यो अनागतं न करोति, सः शोच्यते। अत्र वने संस्थस्य (मे) जरा समागता, (परम्) कदापि बिलस्य वाणी मे न श्रुता।

शब्दार्थ-
अनागतम्-न आने वाले (दुःख) को।
कुरुते-(प्रतीकार) करता है।
शोच्यते-चिन्तनीय होता है।
संस्थस्य-रहते हुए
जरा-बुढ़ापा
मे-मैंने । मेरे द्वारा।
यः-जो।
शोभते-शोभा पाता है।
वनेऽत्र-यहाँ जंगल में।
समागता-(प्राप्त) हो गई है।
कदापि-कभी भी।
श्रुता-सुनी।

सरलार्थ –
जो (व्यक्ति) न आए हुए (दुःख) का (प्रतीकार) करता है, वह शोभा पाता है। जो न आए हुए (दुःख) का (प्रतीकार) नहीं करता है, वह चिन्तनीय होता है। यहाँ वन में रहते हुए मैं बूढ़ा हो गया हूँ, (परन्तु) कभी भी मैंने बिल की आवाज नहीं सुनी।

भावार्थ-
जो अनागत अर्थात् भविष्य में आने वाली संभावित विपत्ति के निराकरण का उपाय करता है, वह संसार में शोभा पाता है। जो आने वाले कल (आपदा) से बचाव का उपाय नहीं करता है, वह दु:खी होता है। यहाँ वन में रहते हुए मेरा बुढ़ापा आ गया परंतु मैंने कभी भी बिल की आवाज नहीं सुनी।

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