Summary For All Chapters – संस्कृत Class 8
सन्निमित्ते वरं त्यागः (क-भागः)
📘 Summary in Sanskrit
दशमे पाठे “सन्निमित्ते वरं त्यागः (क-भागः)” इत्यस्मिन् संस्कृतकथासाहित्यस्य महत्त्वं प्रतिपादितम्। संस्कृतकथाः केवलं मनोरञ्जनमात्रं न, किन्तु जीवनोपदेशप्रदाः, प्रेरणादायिकाश्च भवन्ति। अयं पाठः ‘हितोपदेश’ इत्यस्मात् ग्रन्थात् गृहीतः, यत्र वीरवरनामकस्य कर्तव्यनिष्ठस्य राजपुत्रस्य चरित्रं वर्ण्यते। सः स्वामिभक्त्या राष्ट्ररक्षणार्थं प्राणत्यागं कर्तुं सज्जः आसीत्।
कथा शोभावतीनाम्नि नगरे आरभ्यते। तत्र महापराक्रमी, नानाशास्त्रवित्, पूतचरित्रः राजा शूद्रकः प्रतिवसति स्म। एकदा वीरवरः नाम राजपुत्रः पत्न्या, पुत्रेण, दुहित्रा च सह वृत्त्यर्थं राजद्वारम् आगतः। प्रतिहारस्य अनुमत्याः सः राजानं सविनयं प्रणम्य आज्ञां याचते। वेतनरूपेण प्रतिदिनं सुवर्णशतचतुष्टयं याचितवान्, साधनरूपेण स्वबाहू खड्गं च दर्शितवान्। राजा प्रथमं अस्वीकृत्य निर्गतः, किन्तु मन्त्रिणः सुझावेन चतुर्दिनस्य परीक्षार्थं ताम्बूलदाने नियोजितः।
वीरवरः प्रतिदिनं वेतनस्य अर्धं देवेभ्यः, अर्धं दरिद्रेभ्यः दत्त्वा, शेषं पत्न्यै यच्छति स्म। सः दिनरात्रं धृतायुधः राजद्वारे स्थित्वा सेवां कुर्वन् आसीत्। एकदा कृष्णचतुर्दश्यामर्धरात्रे राजा करुणरोदनं श्रुत्वा वीरवरं तस्य अनुसरणाय प्रेषितवान्। अंधकारे राजा स्वयमपि खड्गपाणिः पृष्ठतः अनुगतः।
नगरात् बहिर्गत्वा वीरवरः दिव्याभरणभूषितां रोदनपरां सुन्दर्यं दृष्ट्वा तामपृच्छत्। सा स्वं शूद्रकराजस्य राजलक्ष्मीमिति उक्तवती, रानीयाः अपराधेन त्रितीये दिने राज्ञः मृत्युर्भविष्यति, तेन अनाथा भविष्यामीति शोकं व्यक्तवती। वीरवरः उपायं पृष्टवान्। राजलक्ष्मीः उक्तवती—यदि त्वया स्वस्य सर्वप्रियं वस्तु सहासवदनेन भगवत्यै सर्वमङ्गलायै अर्प्येत, तर्हि राजा शतवर्षपर्यन्तं जीविष्यति, अहं सुखेन निवत्स्यामि। ततः सा अदृश्याभूत्।
📗 Summary in Hindi
दसवें पाठ “सन्निमित्ते वरं त्यागः (क-भाग)” में संस्कृत कथा-साहित्य का महत्व बताया गया है। संस्कृत कथाएँ केवल मनोरंजन नहीं करतीं, बल्कि जीवन के उपदेश और प्रेरणा भी देती हैं। यह पाठ ‘हितोपदेश’ नामक ग्रंथ से लिया गया है, जिसमें कर्तव्यनिष्ठ वीरवर नाम के एक राजपुत्र का चरित्र वर्णित है। वह अपने स्वामी के प्रति निष्ठा से और राष्ट्र की रक्षा के लिए प्राण त्यागने के लिए भी तैयार था।
कथा शोभावती नामक नगर से शुरू होती है, जहाँ महापराक्रमी, नाना शास्त्रों का ज्ञाता और पवित्र चरित्र वाला राजा शूद्रक रहता था। एक दिन वीरवर नाम का राजपुत्र अपनी पत्नी, पुत्र और पुत्री के साथ आजीविका के लिए राजद्वार पर आया। द्वारपाल की अनुमति से वह राजा के पास पहुँचा, विनम्रता से प्रणाम कर आज्ञा माँगी। उसने प्रतिदिन चार सौ स्वर्ण मुद्राओं का वेतन माँगा और साधन के रूप में अपनी भुजाएँ और तलवार दिखायी। राजा ने पहले यह अस्वीकार किया और चला गया, पर मंत्री के सुझाव पर चार दिन की परीक्षा के लिए उसे पान देने के कार्य में नियुक्त किया।
वीरवर प्रतिदिन वेतन का आधा देवताओं को, आधा गरीबों को देता, और शेष अपनी पत्नी को देता था। वह दिन-रात हथियार लिए राजद्वार पर सेवा करता और राजा के आदेश पर ही घर जाता था। एक बार कृष्ण चतुर्दशी की आधी रात को राजा ने करुणाजनक रोना सुना और वीरवर को उसका पीछा करने भेजा। अंधकार में राजा स्वयं भी तलवार लेकर पीछे-पीछे गया।
नगर से बाहर जाकर वीरवर ने दिव्य आभूषणों से सजी एक रोती हुई सुंदरी को देखा और उससे पूछा। उसने स्वयं को राजा शूद्रक की राजलक्ष्मी बताया और कहा कि रानी के अपराध के कारण तीसरे दिन राजा की मृत्यु होगी, जिससे वह अनाथ हो जाएगी। वीरवर ने उपाय पूछा। राजलक्ष्मी ने कहा—यदि तुम अपने सबसे प्रिय वस्तु को हँसते मुख से देवी सर्वमंगल को अर्पित कर दो, तो राजा सौ वर्ष तक जीवित रहेगा और मैं सुख से निवास करूँगी। यह कहकर वह अदृश्य हो गई।
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