Summary For All Chapters – संस्कृत Class 8
सन्निमित्ते वरं त्यागः (ख-भागः)
📘 Summary in Sanskrit
वीरवरः इति नामकः एकः राजपुरुषः आसीत्। सः नृपतेः शूद्रकस्य सेवकत्वेन नियुक्तः। प्रतिमासं सः सुवर्णशतचतुष्टयं वेतनरूपेण प्राप्नोति स्म। प्राप्य तु वेतनम् – अर्धं देवकार्ये विनियोजयति, चतुर्थांशं दरिद्रजनाय वितरति, शेषं च चतुर्थांशं स्वपत्नीं ददाति स्म। स्वखड्गं गृहित्वा अहर्निशं राजद्वारे स्थित्वा सः रक्षाकर्म करोति।
एकदा रात्रौ, नृपाज्ञया, नगरस्य बहिः गतः सः, करुणस्वरेण रोदन्तीं दिव्याभरणभूषितां एकां सुन्दरीं दृष्टवान्। पृष्ट्वा, अवगतम् यत् सा नृपतेः शूद्रकस्य राजलक्ष्मीः अस्ति। सा उवाच – “राज्ञः आयुः केवलं दिनत्रयं शेषम् अस्ति। यदि दीर्घायुष्यम् इच्छसि, तर्हि तव सर्वप्रियं वस्तु देवी सर्वमङ्गलायै उपहाररूपेण अर्पणीयम्।” एतद् श्रुत्वा वीरवरः किंकर्तव्यविमूढः अभवत्।
राजा अपि अदृश्यरूपेण तत्र आगत्य तयोः संवादं श्रुतवान्। ततः वीरवरः स्वगृहं गत्वा, निद्रालसां पत्नीं, पुत्रं शक्तिधरं, दुहितरं च जागरयित्वा, सम्पूर्णं वृत्तान्तं कथितवान्। पुत्रः शक्तिधरः हर्षेण उक्तवान् – “पितः! अहमेव तव प्रियतमः वस्तु। स्वामिजीवितरक्षणाय यदि मम बलिदानम् आवश्यकम्, तर्हि विलम्बः कः?” पत्नी वीरवती, दुहिता च अपि आनन्देन तत्र सहमताः अभवन्।
ततः सर्वे जनाः सर्वमङ्गलायाः मन्दिरं गत्वा, वीरवरः प्रथमं पुत्रम् अर्पितवान्। परं तु पुत्रवियोगदुःखेन सः स्वयम् अपि समर्पितवान्। ततः पत्नी दुहिता च अपि आत्मसमर्पणम् अकरोताम्। एतान् दृष्ट्वा राजा शूद्रकः अपि स्वसर्वस्वत्यागाय सज्जः अभवत्।
तदा देवी सर्वमङ्गला प्रत्यक्षीभूता। सा उक्तवती – “वत्स! ते साहसं, सत्त्वोत्कर्षः, भृत्यवात्सल्यं च दृष्ट्वा अहं प्रसन्ना। न तव राज्यभङ्गः भविष्यति, न च कोऽपि म्रियते।” राजा विनीतभावेन प्रार्थितवान् – “यदि मयि कृपा जाता, तर्हि ममायुःशेषेण वीरवरः सपरिवारः पुनः जीवतु।” देवी तस्य अभिलाषं पूरयामास।
सर्वे सजीवाः पुनः स्वगृहं गताः। वीरवरः पुनः द्वारपालककर्तव्ये प्रवृत्तः। राजा प्रसन्नः सन् वीरवराय सम्पूर्णकर्णाटप्रदेशं दानरूपेण अर्पितवान्।
एवं, एषः पाठः दर्शयति यत् –
“धनानि जीवितं च अपि, सन्मार्गे, परहिताय, साहसपूर्वकं त्यक्तव्यं भवति।”
📗 Summary in Hindi
वीरवर नामक एक वीर, राजा शूद्रक का सेवक था। उसे वेतन में चार सौ स्वर्ण मुद्राएँ मिलती थीं। वह इस वेतन का आधा भाग देवकार्य में लगाता, चौथाई गरीबों को देता और शेष पत्नी को सौंपता था। वह दिन-रात हाथ में तलवार लेकर महल के द्वार पर पहरा देता था।
एक दिन रात को, राजा के आदेश पर नगर से बाहर जाकर, उसे करुण स्वर में रोती हुई, आभूषणों से सजी एक सुंदरी दिखाई दी। पूछने पर पता चला कि वह स्वयं राजलक्ष्मी है और दुःखी है क्योंकि राजा शूद्रक की आयु केवल तीन दिन शेष है। उसने बताया कि राजा की आयु बढ़ाने का उपाय है – जो वस्तु किसी को सबसे प्रिय है, उसे देवी सर्वमंगल को अर्पित कर देना।
राजा अदृश्य रूप से यह वार्तालाप सुन रहा था। वीरवर घर गया और अपनी पत्नी, पुत्र शक्तिधर और पुत्री को जगाकर सारा वृत्तांत सुनाया। पुत्र शक्तिधर ने प्रसन्न होकर कहा – “पिताजी! मैं आपका सबसे प्रिय हूँ, यदि मेरे बलिदान से राजा का जीवन बच सकता है तो विलम्ब क्यों?” पत्नी और पुत्री ने भी सहमति दी।
सभी लोग देवी सर्वमंगल के मंदिर पहुँचे। वीरवर ने पहले अपने पुत्र को अर्पित किया, फिर स्वयं को, फिर पत्नी और पुत्री को भी देवी को समर्पित किया। यह देखकर राजा शूद्रक भी स्वयं को अर्पित करने को तैयार हो गया।
तभी देवी सर्वमंगल प्रकट हुईं और बोलीं – “वत्स! तुम्हारे साहस, त्याग और निष्ठा से मैं प्रसन्न हूँ। अब किसी का भी जीवन नहीं जाएगा, तुम्हारा राज्य भी सुरक्षित रहेगा।” राजा ने विनम्रतापूर्वक कहा – “यदि मुझ पर कृपा है तो मेरी शेष आयु वीरवर और उसके परिवार को मिल जाए।” देवी ने उसकी इच्छा पूर्ण कर दी।
सभी जीवित होकर प्रसन्नतापूर्वक अपने घर लौटे। वीरवर फिर से अपने पहरे के कार्य में लग गया। राजा ने उसकी निष्ठा से प्रसन्न होकर उसे सम्पूर्ण कर्नाट प्रदेश दान कर दिया।
यह कथा हमें सिखाती है कि –
“धन और जीवन, दोनों का त्याग उचित अवसर पर, परहित के लिए करना ही सच्चा साहस और महानता है।”
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