गीता सुगीता कर्तव्या
📘 Summary in Sanskrit
पञ्चमे पाठे “गीता सुगीता कर्तव्या” इत्यस्मिन भगवद्गीतायाः आध्यात्मिकं, नैतिकं, व्यवहारिकं च महत्त्वं प्रतिपाद्यते।
एकस्मिन् दिवसे कुरुक्षेत्रे श्रीगीता-जयन्ती-महोत्सवः सम्पादितः। रमेशः स्वजनकेन सह तत्र आगतः। तत्र कथावाचकः गीतायाः माहात्म्यं व्याख्यायति स्म।
तेन उक्तम्—
“गीता सुगीता कर्तव्या, किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः।
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिःसृता॥”
अर्थात् — भगवद्गीता उत्तमरीत्या (सुगीतया) अध्ययनार्था, अन्यशास्त्राणां विस्तारस्य आवश्यकता नास्ति, यतः सा स्वयं भगवतः श्रीकृष्णस्य वाणी स्वरूपा अस्ति।
रमेशः पितरं पृष्टवान् – “गीता का? कथं सुगीता कर्तव्या?” तदा पिता अर्जुनकृष्णयोः संवादं वर्णयति। युद्धे स्वबान्धवान् दृष्ट्वा अर्जुनः कर्तव्यविमूढः अभवत्। तदा भगवान् श्रीकृष्णः तम् आत्मधर्मे स्थित्वा कर्तव्यम् उपदिशत्। एषः उपदेशः एव “श्रीमद्भगवद्गीता” इति प्रसिद्धः अस्ति।
भगवद्गीतायाः उपदेशाः मानवजीवनाय जीवन-निर्देशः इव सन्ति। पाठे कतिचन महत्वपूर्णाः श्लोकाः दीयन्ते, यथा—
स्थितधीः पुरुषः दुःखेषु अनुद्विग्नमनाः, सुखेषु विगतस्पृहः च भवति।
क्रोधात् सम्मोहः, ततः स्मृतिभ्रंशः, बुद्धिनाशः, अन्ततः विनाशः सञ्जायते।
ज्ञानाय त्रयः उपायाः — प्रणिपातः, परिप्रश्नः, सेवया। एतेन तत्त्वदर्शिनः ज्ञानं उपदिशन्ति।
श्रद्धावान्, संयतेन्द्रियः, तत्परः च जनः ज्ञानं लभते।
अद्वेष्टा, मैत्रः, करुणः, समदुःखसुखः, क्षमी – एते भगवतः प्रियभक्तस्य लक्षणानि।
जो मय्यर्पितमनोबुद्धिः भवति, सः योगी, सन्तुष्टः, दृढनिश्चयः भक्तः मम प्रियः।
यः लोकस्य कारणेन न उद्विजते, लोकः च येन न उद्विजते, सः भगवतः प्रियः भवति।
यत् वाक्यं अनुद्वेगकरं, सत्यं, प्रियं, हितं च भवति, तत् वाङ्मयं तपः इति उच्यते।
गीता केवलं आध्यात्मिकग्रन्थः न, अपि तु समत्व, क्षमा, विनय, श्रद्धा, संयम, भक्तिः इत्यादीनां जीवनमूल्यानां निधिः अस्ति। एषः पाठः अस्मान् गीता-ज्ञानस्य अभ्यासाय प्रेरयति।
📗 Summary in Hindi
अध्याय 5 “गीता सुगीता कर्तव्या” में भगवद्गीता के महत्व, उपयोगिता और उपदेशों का वर्णन किया गया है।
कुरुक्षेत्र में गीता जयंती महोत्सव मनाया जा रहा था, जिसमें रमेश अपने पिता के साथ गया। वहाँ एक कथावाचक भगवद्गीता की महिमा बता रहे थे। उन्होंने कहा:
“गीता सुगीता कर्तव्या, किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः।
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिःसृता॥”
इसका अर्थ है – गीता का अच्छी तरह (समझकर, अभ्यासपूर्वक) अध्ययन करना चाहिए। जब स्वयं भगवान श्रीकृष्ण के मुख से निकली हुई वाणी उपलब्ध हो, तो अन्य शास्त्रों की आवश्यकता नहीं रह जाती।
रमेश ने अपने पिता से पूछा – “गीता क्या है और क्यों उसका अभ्यास आवश्यक है?” तब पिता ने समझाया कि कुरुक्षेत्र युद्ध में जब अर्जुन ने अपने ही सगे संबंधियों को युद्ध भूमि में देखा, तो वह युद्ध करने से पीछे हट गया। तभी भगवान श्रीकृष्ण ने उसे धर्म, कर्तव्य, आत्मा, जीवन, मृत्यु, भक्ति आदि विषयों पर उपदेश दिया, जो “श्रीमद्भगवद्गीता” कहलाता है।
भगवद्गीता केवल एक धार्मिक ग्रन्थ नहीं, अपितु मानव जीवन के लिए संपूर्ण मार्गदर्शन देने वाला ग्रंथ है। इसमें कई उपयोगी श्लोक हैं:
स्थितप्रज्ञ पुरुष वही है जो सुख-दुख में समान रहता है, राग, भय और क्रोध से मुक्त रहता है।
क्रोध से भ्रम, भ्रम से स्मृति का नाश, स्मृति नष्ट होने से बुद्धि नष्ट होती है, और अंततः व्यक्ति का विनाश होता है।
ज्ञान प्राप्ति के लिए श्रद्धा, विनम्रता, सेवा और उचित प्रश्न आवश्यक हैं।
श्रद्धा और संयम रखने वाला व्यक्ति जल्दी ही ज्ञान और शांति को प्राप्त करता है।
भगवद्भक्त के लक्षण हैं – द्वेष रहित, मित्रवत, करुणामय, ममत्व और अहंकार से रहित, क्षमाशील, समभावयुक्त।
जो सदा संतुष्ट, संयमी, भगवान में मन और बुद्धि को अर्पित करता है, वही ईश्वर को प्रिय होता है।
जो किसी को परेशान नहीं करता और स्वयं किसी से परेशान नहीं होता, तथा हर्ष, क्रोध, भय से मुक्त होता है, वह भगवान को प्रिय होता है।
जो वाणी शांतिपूर्ण, सत्य, प्रिय और हितकारी होती है, वही वाचिक तप कहलाती है। गीता हमें वाणी की मर्यादा भी सिखाती है।
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