कोऽरुक् ? कोऽरुक् ? कोऽरुक् ?
अम्ब! महती बुभुक्षा बाधते, शीघ्रं भोजनं परिवेषयतु।
माँ! मुझे बहुत भूख लग रही है, जल्दी से भोजन परोस दो।
वत्से, भोजनम् अत्युष्णम् अस्ति, किञ्चित् प्रतीक्षस्व।
बेटे, भोजन बहुत गर्म है, थोड़ा इंतजार करो।
उष्णं भोजन किमर्थं न ददाति?
गर्म भोजन क्यों नहीं देती?
वत्से! मुखे दाहः भवेत्, अपि च ‘अत्युष्णं भोजनं हितकरं न भवति’ इति आयुर्वेदस्य उपदेशः।
बेटे! मुंह में जलन हो सकती है, और आयुर्वेद का उपदेश है कि बहुत गर्म भोजन हितकारी नहीं होता।
अम्ब! आयुर्वेदे बहवः आहारनियमाःन्ति इति अस्माकं शिक्षकः अपि बोधयति।
माँ! आयुर्वेद में कई आहार नियम हैं, ऐसा हमारे शिक्षक भी बताते हैं।
सत्यम् उक्तं वत्स! आहारविषये एकः रोचकः प्रसङ्गः अस्ति। युवाम् इच्छथ चेत् श्रावयामि।
सही कहा बेटे! आहार के बारे में एक रोचक प्रसंग है। अगर तुम सुनना चाहते हो तो सुनाऊं।
अस्तु अम्ब! यावत् भोजनं भोक्तुं योग्यं भवति तावत् तं श्रावयतु।
ठीक है माँ! जब तक भोजन खाने लायक न हो जाए, तब तक वह प्रसंग सुनाओ।
अस्तु, श्रूयताम्।
ठीक है, सुनो।
‘भारतवर्षे वैद्याः विभिन्नानां
व्याधीनां शमनं कथं कुर्वन्ति’ इति
ज्ञातुं पुरा भगवान् धन्वन्तरिः मनोहरं
शुकरूपं धृत्वा प्रतिग्रामम् अभ्रमत्।
भ्रमणकाले सः बहूनां प्रख्यातवैद्यानां
भवनपार्श्वस्थे वृक्षे उपविश्य
‘कोऽरुक्’ ‘कोऽरुक्’ ‘कोऽरुक्’
इति ध्वनिम् अकरोत्। किन्तु खगस्य
‘कोऽरुक्’ इति शब्दं प्रति कस्यापि
अवधानं नासीत्।
हिंदी अनुवाद
पहले भगवान धन्वंतरि ने यह जानने के लिए कि भारतवर्ष में वैद्य विभिन्न रोगों का इलाज कैसे करते हैं, सुंदर तोते का रूप धारण करके गाँव-गाँव भ्रमण किया। भ्रमण के समय उन्होंने कई प्रसिद्ध वैद्यों के घर के पास के पेड़ पर बैठकर ‘को अरुक्’ ‘को अरुक्’ ‘को अरुक्’ की आवाज की। लेकिन किसी ने भी तोते की ‘को अरुक्’ की आवाज पर ध्यान नहीं दिया।
अन्ते सः वैद्यस्य वाग्भटस्य कुटीरसमीपं गतवान्। तत्र विशाले प्राङ्गणे स्थितं
पुष्पतरुम् आरुह्य मधुरया गिरा ‘कोऽरुक्’ ‘कोऽरुक्’ ‘कोऽरुक्’ इति शब्दम् अकरोत्।
मधुरां वाणीं श्रुत्वा चिकित्सानिरतः वाग्भटः प्राङ्गणम् आगत्य सर्वासु दिक्षु अपश्यत्।
क्षणात् वाग्भटः मनोहरं तं शुकम् अपश्यत्। सार्थकं मानुषध्वनिम् कुर्वन्तं शुकं दृष्ट्वा
विस्मितः वाग्भटः चिन्तितवान् – “नायं लौकिकः खगः। एषः निश्चयेन कश्चन देवविशेषः
अस्ति”। सः झटिति तस्मै विहगाय मधुराणि फलानि समर्पितवान् परन्तु सः खगः फलानि
न गृहीत्वा पुनरपि तथैव ‘कोऽरुक्’ ‘कोऽरुक्’ ‘कोऽरुक्’ इति प्रश्नस्वरेण शब्दमकरोत्।
अथ वैद्यः वाग्भटः अचिन्तयत् यत् यावत् खगः स्वप्रश्नानाम् उत्तराणि न प्राप्नोति तावत्
अयं भोजनं न वाञ्छति इति। ततः सः अचिरादेव सूत्ररूपाणि त्रीणि उत्तराणि प्राददात् –
‘हितभुक्’ ‘मितभुक्’ ‘ऋतुभुक्’ इति। समुचितम् उत्तरं श्रुत्वा अत्यन्तं प्रीतः सः शुकः वाग्भटेन अर्पितानि फलानि खादितवान्।
हिंदी अनुवाद
अंत में वे वैद्य वाग्भट के घर के पास गए। वहाँ बड़े प्रांगण में खड़े फूलों के पेड़ पर चढ़कर मधुर स्वर में ‘को अरुक्’ ‘को अरुक्’ ‘को अरुक्’ की आवाज की। मधुर वाणी सुनकर चिकित्सा में निपुण वाग्भट प्रांगण में आए और चारों ओर देखा। थोड़ी देर में वाग्भट ने उस सुंदर तोते को देखा। अर्थपूर्ण मानव-स्वर में बोलते हुए तोते को देखकर वे चकित हुए और सोचा, “यह साधारण पक्षी नहीं है। यह निश्चित रूप से कोई देवता है।” उन्होंने तुरंत उस पक्षी को मधुर फल अर्पित किए, लेकिन वह तोता फल नहीं लेता और फिर वैसे ही ‘को अरुक्’ ‘को अरुक्’ ‘को अरुक्’ की प्रश्नात्मक आवाज की। तब वैद्य वाग्भट ने सोचा कि जब तक यह तोता अपने प्रश्नों के उत्तर नहीं पाता, तब तक यह भोजन नहीं चाहता। फिर उन्होंने तुरंत तीन सूत्रात्मक उत्तर दिए – ‘हितभुक्’ ‘मितभुक्’ ‘ऋतुभुक्’। उचित उत्तर सुनकर अत्यंत प्रसन्न होकर वह तोता वाग्भट द्वारा अर्पित फल खाने लगा।
ततः शुकरूपः धन्वन्तरिः वाग्भटम् उक्तवान् – “वत्स! अहं धन्वन्तरिः अस्मि। उत्तमस्य
वैद्यस्य अन्वेषणाय भारतवर्षे सर्वत्र परिभ्रमन् अत्र समागतः। तव उत्कृष्टेन आयुर्वेदज्ञानेन
अहम् अतीव सन्तुष्टः अस्मि। त्वम् अवश्यमेव आयुर्वेद-अष्टाङ्गविचार-सारभूतं तन्त्रं
विरचयेः” एतद् उक्त्वा सः अन्तर्हितः।
हिंदी अनुवाद
फिर तोते के रूप में धन्वंतरि ने वाग्भट से कहा, “बेटे! मैं धन्वंतरि हूँ। उत्तम वैद्य की खोज में भारतवर्ष में सर्वत्र भ्रमण करके यहाँ आया हूँ। तुम्हारे उत्कृष्ट आयुर्वेद ज्ञान से मैं अत्यंत संतुष्ट हूँ। तुम्हें अवश्य ही आयुर्वेद-अष्टांग विचार का सारभूत तंत्र रचना चाहिए।” ऐसा कहकर वे अदृश्य हो गए।
एतत् सर्वं दूरात् पश्यन्तः विस्मिताः शिष्याः
आचार्यवाग्भटस्य समीपम् आगत्य अपृच्छन् –
“गुरुवर! शुकः ‘कोऽरुक् कोऽरुक् कोऽरुक्’
इति उक्तवान्, तस्य कोऽर्थः? अपि च भवान् किम्
उत्तरं दत्तवान्?” तदा वाग्भटः छात्राणां जिज्ञासाम्
उपशमयन् कथयति – “छात्राः, शृणुत! एषः शुकः
वदति यत् कः अरुक् अर्थात् कः स्वस्थः नीरोगः वा
वर्तते? तदा मया उक्तम् –
‘यः हितभुक्, मितभुक्, ऋतुभुक् च, सः एव सर्वदा
स्वस्थः भवति’।” छात्राः पुनः जिज्ञासया अपृच्छन्
“आचार्य! ‘हितभुक्, मितभुक्, ऋतुभुक्’ इति –
एतेषां कः आशयः?” वाग्भटः वदति – “शिष्याः!
महर्षेः चरकस्य नाम भवन्तः श्रुतवन्तः स्युः। सः
हितभुक्-विषये कथयति –
हिंदी अनुवाद
यह सब दूर से देखकर चकित शिष्य वाग्भट आचार्य के पास आए और पूछा, “गुरुदेव! तोते ने ‘को अरुक् को अरुक् को अरुक्’ कहा, इसका क्या अर्थ है? और आपने क्या उत्तर दिया?” तब वाग्भट ने शिष्यों की जिज्ञासा शांत करते हुए कहा, “शिष्यो, सुनो! यह तोता कहता है कि कौन अरुक्, अर्थात् कौन स्वस्थ या नीरोग है? तब मैंने कहा, ‘जो हितभुक्, मितभुक् और ऋतुभुक् है, वही हमेशा स्वस्थ रहता है।’” शिष्यों ने फिर जिज्ञासा से पूछा, “आचार्य! ‘हितभुक्, मितभुक्, ऋतुभुक्’ का क्या अर्थ है?” वाग्भट ने कहा, “शिष्यो! महर्षि चरक का नाम तुमने सुना होगा। उन्होंने हितभुक् के बारे में कहा –
जो आहार स्वास्थ्य का पालन करता है और उत्पन्न न हुए रोगों को होने से रोकता है, उसे नियमित रूप से ग्रहण करना चाहिए।”
अर्थात् यस्य आहारस्य सेवनेन स्वास्थ्यस्य रक्षणं भवेत्, न जातानाम् अर्थात्
अनुत्पन्नानां विकाराणाम् उत्पत्तिः न भवेत्, तादृशः आहारः सेवनीयः।
मितभुक्-विषये कथयति आचार्यः –
हिंदी अनुवाद
अर्थात् जिस आहार के सेवन से स्वास्थ्य की रक्षा होती है और उत्पन्न न हुए रोगों का उदय नहीं होता, ऐसा आहार ग्रहण करना चाहिए। अल्पादाने गुरूणां च लघूनां चातिसेवने। मात्राकारणमुद्दिष्टं द्रव्याणां गुरुलाघवे। मितभुक् के बारे में आचार्य कहते हैं –
भारी पदार्थों को थोड़ा और हल्के पदार्थों को अधिक सेवन करने से माप के कारण वस्तुओं का भारीपन या हल्कापन तय होता है।
अर्थात् गरिष्ठद्रव्याणि अपि अल्पमात्रं सेवनेन सुपाच्यानि भवन्ति, लघुद्रव्याणि चापि
अतिमात्रं सेवनेन हानिकराणि जायन्ते। अतः मात्रानुसारम् एव खादितव्यम्।
एवमेव ऋतुभुक् विषये उच्यते –
हिंदी अनुवाद
अर्थात् भारी पदार्थ भी थोड़े सेवन से सुपाच्य हो जाते हैं, और हल्के पदार्थ अधिक सेवन से हानिकारक हो जाते हैं। इसलिए माप के अनुसार ही खाना चाहिए। इसी तरह ऋतुभुक् के बारे में कहा जाता है –
उसके खाए गए आहार से बल और वर्ण बढ़ता है, और उसके लिए ऋतु के अनुकूल आहार और व्यवहार का ज्ञान होना चाहिए।
अर्थात् ग्रीष्मः, वर्षा, शरद्, शिशिरः, हेमन्तः, वसन्तः चेति षट् ऋतवः भवन्ति।
यः पुरुषः ऋतूनाम् अनुकूलं स्वास्थ्यप्रदम् आहारसेवनं जानाति तदनुसारम् आचरणं च
करोति तस्य जनस्य अशितम् अर्थात् भुक्तं पीतं च सर्वमपि बलवर्धकं, वर्णकान्तिजनकं,
सुखवर्धकम्, आयुर्वर्धकञ्च भवति। अतः ऋतोः अनुसारं भोक्तव्यम् इति। नियमितरूपेण
समयानुसारं सात्त्विकं भोजनम् आवश्यकमिति ऋतुभुक्-पदेन ज्ञायते।”
हिंदी अनुवाद
अर्थात् ग्रीष्म, वर्षा, शरद, शिशिर, हेमंत और वसंत – ये छह ऋतुएँ हैं। जो व्यक्ति ऋतुओं के अनुकूल स्वास्थ्यवर्धक आहार जानता है और उसके अनुसार आचरण करता है, उसके खाए-पीए गए सभी पदार्थ बलवर्धक, वर्ण को निखारने वाले, सुख और आयु बढ़ाने वाले होते हैं। इसलिए ऋतु के अनुसार खाना चाहिए। नियमित रूप से समय के अनुसार सात्विक भोजन आवश्यक है, यह ऋतुभुक् शब्द से समझा जाता है।”
एतत् सर्वं श्रुत्वा कश्चन छात्रः वाग्भटम् अपृच्छत् – “आचार्य! हितभुगादिविषये
वयं तु ज्ञातवन्तः, किन्तु किं सः शुकः सन्तुष्टः अभवत्”? तदा वाग्भटः शुकस्य रहस्यम्
उक्तवान् – “प्रियशिष्याः! अयं विहगः न सामान्यविहगः, अपि तु आयुर्वेदस्य पूज्यः
देवः भगवान् धन्वन्तरिः एव स्वयं शकुरूपेणात्र आगच्छत्। अस्माकं कृते संषेपेण
स्वास्थ्यरक्षणाय सूत्ररूपेण सन्देशसन्दे च प्रदत्तवान्, भवन्तः अपि शणृ्वन्तु स्मरन्तु च –
हिंदी अनुवाद
यह सब सुनकर एक शिष्य ने वाग्भट से पूछा, “आचार्य! हितभुक् आदि के बारे में हम जानते हैं, लेकिन क्या वह तोता संतुष्ट हुआ?” तब वाग्भट ने तोते का रहस्य बताया, “प्रिय शिष्यो! यह पक्षी साधारण पक्षी नहीं, बल्कि आयुर्वेद के पूजनीय देव भगवान धन्वंतरि स्वयं तोते के रूप में यहाँ आए। उन्होंने हमारे लिए संक्षेप में स्वास्थ्य रक्षण के लिए सूत्र रूप में संदेश और उपदेश दिए, तुम भी सुनो और याद करो –
प्रातः उठकर व्यायाम, रोज दांत साफ करना, स्वच्छ जल से स्नान, और भूख लगने पर भोजन।”
अस्माकम ऋषयः नित्यं प्रार्थनाम् अपि कुर्वन्ति। वयमपि स्मरामः –
हिंदी अनुवाद
हमारे ऋषि रोज प्रार्थना भी करते हैं। हम भी याद करें – सभी सुखी हों, सभी निरोगी हों, सभी शुभ देखें, कोई दुखी न हो।
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