क्रीडाम वयं श्लोकान्त्याक्षरीम्
भारती – सखी दीपिका! हम अभी खेलना चाहते हैं।
दीपिका – अरे भारती ! बाहर बरसात (बारिश हो रही) है, कैसे खेलेंगे ?
अन्य सखी – 1 – अच्छा बरसात हो रही है। यदि इच्छा है तो खेलेंगे ही। बाहर जाने की आवश्यकता ही नहीं है। यह नया खेल है ! अरे ! ‘ अन्त्याक्षरी खेल’ ।
अन्य सखी – 2 – क्या अन्त्याक्षरी का खेल ? मैं भी खेलती हूँ।
अन्य सखी – 1 – जरूर ! आओ। हम सब खेलते हैं।
अन्य सखी – 3 – हे सखी! तो खेलने के नियम बताओ।
अन्य सखी – 1 – हम दो समूह बनाते हैं। पहले दल का नाम – ‘ज्ञानमाला’ और दूसरे दल का नाम – ‘रत्नमाला’। शुरू में पहले दल का सदस्य एक पद्य (श्लोक) गाता है । उस पद्य के अंतिम व्यंजन वर्ण से द्वितीय दल के सदस्य या सदस्या दूसरा श्लोक गाती है। इस प्रकार क्रम से यह क्रीड़ा चलती है।
भारती – अहो! बड़ा मजा आएगा । तो खेलते हैं। अब प्रारंभ में ज्ञानमाला दल ‘र’ इस अक्षर से पद्य गाता है उसके बाद रत्नमाला दल बोलता है।
रूपयौवनसम्पन्ना विशालकुलसम्भवाः।
विद्याहीना न शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुकाः ॥ १ ॥
(रूप और यौवन से सम्पन्न, विशाल कुल में जन्मे हुए लोग, विद्या से रहित होने पर शोभायमान नहीं होते, जैसे गंधहीन किंशुक (पलाश) के फूल।)
पदच्छेद: रूप-यौवन-सम्पन्नाः विशाल-कुल-सम्भवाः विद्या-हीनाः न शोभन्ते निर्गन्धाः इव किंशुकाः।
(शब्द- विभाजन: रूप-यौवन-सम्पन्नाः, विशाल-कुल-सम्भवाः, विद्या-हीनाः, न शोभन्ते, निर्गन्धाः, इव, किंशुकाः।)
अन्वय: रूपयौवनसम्पन्नाः विशालकुलसम्भवाः (परन्तु) विद्याहीनाः (जनाः) निर्गन्धाः किंशुकाः इव न शोभन्ते।
(वाक्य-क्रम: रूप और यौवन से सम्पन्न, विशाल कुल में जन्मे हुए, लेकिन विद्या-रहित लोग गंधहीन किंशुक फूलों की तरह शोभायमान नहीं होते।)
भावार्थ: येषां सुन्दरं रूपम् अस्ति, यौवनम् अस्ति, उत्तमे कुले जन्म अपि प्राप्तम्, किन्तु ते यदि विद्यायाः अर्जनं न कुर्वन्ति तर्हि तेषां शोभा न भवति। यथा पुष्पिताः पलाशवृक्षाः दर्शने अतीव सुन्दराः सन्ति, किन्तु तेषु सुगन्धः न भवति। जनाः तेषाम् उपयोगं न कुर्वन्ति। अतः रूपस्य यौवनस्य उच्चकुलस्य च अपेक्षया विद्या एव श्रेष्ठा।
(अर्थ: जिनके पास सुंदर रूप, यौवन और उच्च कुल में जन्म है, लेकिन यदि वे विद्या अर्जित नहीं करते, तो उनकी शोभा नहीं होती। जैसे पलाश के वृक्ष के फूल देखने में अत्यंत सुंदर होते हैं, परंतु उनमें सुगंध नहीं होती। लोग उनका उपयोग नहीं करते। इसलिए रूप, यौवन और उच्च कुल की अपेक्षा विद्या ही श्रेष्ठ है।)
काव्यशास्त्रविनोदेन कालो गच्छति धीमताम्।
व्यसनेन च मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा ॥ २ ॥
(बुद्धिमानों का समय काव्य और शास्त्र के विनोद में बीतता है, जबकि मूर्खों का समय व्यसन, निद्रा या कलह में बीतता है।)
पदच्छेद: काव्य-शास्त्र-विनोदेन कालः गच्छति धीमताम् व्यसनेन च मूर्खाणाम् निद्रया कलहेन वा।
(शब्द-विभाजन: काव्य-शास्त्र-विनोदेन, कालः, गच्छति, धीमताम्, व्यसनेन, च, मूर्खाणाम्, निद्रया, कलहेन, वा।)
अन्वय: धीमतां कालः काव्यशास्त्रविनोदेन मूर्खाणां च (कालः) व्यसनेन निद्रया कलहेन वा गच्छति।
(वाक्य-क्रम: बुद्धिमानों का समय काव्य और शास्त्र के विनोद में और मूर्खों का समय व्यसन, निद्रा या कलह में बीतता है।)
भावार्थ: बुद्धिमन्तः जनाः काव्यानां शास्त्राणां च अनुशीलनेन समयस्य सदुपयोगं कुर्वन्ति, परन्तु मूर्खजनाः शयनं कृत्वा, परस्परं कलहं कृत्वा अथवा दुर्व्यसनेन अमूल्यसमयस्य दुरुपयोगं कुर्वन्ति, अतः वयं नित्यं विद्याभ्यासेन पठनेन लेखनेन वा समयस्य सदुपयोगं कुर्मः।
(अर्थ: बुद्धिमान लोग काव्य और शास्त्रों के अध्ययन से समय का सदुपयोग करते हैं, लेकिन मूर्ख लोग सोने, आपस में झगड़ने या बुरी आदतों में समय का दुरुपयोग करते हैं। इसलिए हमें निरंतर विद्या-अभ्यास, पढ़ने या लिखने से समय का सदुपयोग करना चाहिए।)
विद्या विवादाय धनं मदाय शक्तिः परेषां परिपीडनाय।
खलस्य साधोर्विपरीतमेतत् ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय ॥ ३ ॥
(दुष्ट व्यक्ति के लिए विद्या विवाद, धन अभिमान और शक्ति दूसरों को पीड़ा देने के लिए होती है, जबकि सज्जन के लिए यह इसके विपरीत—ज्ञान, दान और रक्षा के लिए होती है।)
पदच्छेद: विद्या विवादाय धनं मदाय शक्तिः परेषाम् परिपीडनाय खलस्य साधोः विपरीतम् एतत् ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय।
(शब्द-विभाजन: विद्या, विवादाय, धनं, मदाय, शक्तिः, परेषाम्, परिपीडनाय, खलस्य, साधोः, विपरीतम्, एतत्, ज्ञानाय, दानाय, च, रक्षणाय।)
अन्वय: खलस्य विद्या विवादाय, धनं मदाय, शक्तिः परेषां परिपीडनाय (च भवति)। (परं) साधोः एतद्-विपरीतं (विद्या) ज्ञानाय (धनं) दानाय (शक्तिः) रक्षणाय च (भवति)।
(वाक्य-क्रम: दुष्ट व्यक्ति की विद्या विवाद के लिए, धन अभिमान के लिए और शक्ति दूसरों को पीड़ा देने के लिए होती है। लेकिन सज्जन के लिए यह विपरीत है—विद्या ज्ञान के लिए, धन दान के लिए और शक्ति रक्षा के लिए होती है।)
भावार्थ: दुष्टः जनः विद्यायाः उपयोगं कलहार्थं करोति। धनस्य उपयोगम् अहङ्कारार्थं करोति। सामर्थ्यस्य उपयोगम् अन्येषां पीडनार्थं च करोति, किन्तु सज्जनस्य स्वभावः एतस्य विपरीतः भवति। सः विद्यायाः उपयोगम् अन्येषां ज्ञानवर्धनार्थं करोति। धनस्य उपयोगं दानार्थं करोति। सामर्थ्यस्य उपयोगं दुर्बलानां रक्षणार्थं च करोति।
(अर्थ: दुष्ट व्यक्ति विद्या का उपयोग झगड़े के लिए, धन का उपयोग अहंकार के लिए और शक्ति का उपयोग दूसरों को कष्ट देने के लिए करता है। लेकिन सज्जन का स्वभाव इसके विपरीत होता है। वह विद्या का उपयोग दूसरों के ज्ञानवर्धन के लिए, धन का उपयोग दान के लिए और शक्ति का उपयोग कमजोरों की रक्षा के लिए करता है।)
येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः।
ते मर्त्यलोके भुवि भारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ॥ ४ ॥
(जिनके पास न विद्या, न तप, न दान, न ज्ञान, न शील, न गुण, न धर्म है, वे इस मृत्युलोक में पृथ्वी पर भार बनकर मनुष्य रूप में पशुओं की तरह विचरते हैं।)
पदच्छेद: येषाम् न विद्या न तपः न दानम् ज्ञानम् न शीलम् न गुणः न धर्मः ते मर्त्य-लोके भुवि भार-भूताः मनुष्य-रूपेण मृगाः चरन्ति।
(शब्द-विभाजन: येषाम्, न, विद्या, न, तपः, न, दानम्, ज्ञानम्, न, शीलम्, न, गुणः, न, धर्मः, ते, मर्त्य-लोके, भुवि, भार-भूताः, मनुष्य-रूपेण, मृगाः, चरन्ति।)
अन्वय: येषां (जनानां) विद्या न, तपः न, दानं न, ज्ञानं न, शीलं न, गुणः न, धर्मः (अपि) न (अस्ति), ते मर्त्यलोके भुवि भारभूताः मृगाः मनुष्यरूपेण चरन्ति।
(वाक्य-क्रम: जिन लोगों के पास विद्या, तप, दान, ज्ञान, शील, गुण और धर्म नहीं है, वे मृत्युलोक में पृथ्वी पर भार बनकर मनुष्य रूप में पशुओं की तरह विचरते हैं।)
भावार्थ: ये जनाः विद्यां न अर्जयन्ति, कठिनव्रतं न आचरन्ति, दानं न कुर्वन्ति, ज्ञानं न अर्जयन्ति, उत्तमचरित्रवन्तः न भवन्ति, गुणवन्तः न सन्ति, धर्माचरणं न कुर्वन्ति, ते अस्यां भूमौ भारभूताः सन्तः पशवः इव इतस्ततः भ्रमन्ति।
(अर्थ: जो लोग विद्या, तप, दान, ज्ञान, उत्तम चरित्र, गुण और धर्म का आचरण नहीं करते, वे इस पृथ्वी पर भार बनकर पशुओं की तरह इधर-उधर भटकते हैं।)
तदा वृत्तिश्च कीर्तिश्च लक्ष्मीर्वाणी यशस्विनी।
तत्त्वज्ञानं परा शान्तिर्यदा विद्या भवेत्तव ॥ ५ ॥
(जब तुम्हें विद्या प्राप्त होती है, तब आजीविका, कीर्ति, धन, यशस्विनी वाणी, तत्त्वज्ञान और परम शांति प्राप्त होती है।)
पदच्छेद: तदा वृत्तिः च कीर्तिः च लक्ष्मीः वाणी यशस्विनी तत्त्वज्ञानम् परा शान्तिः यदा विद्या भवेत् तव।
(शब्द-विभाजन: तदा, वृत्तिः, च, कीर्तिः, च, लक्ष्मीः, वाणी, यशस्विनी, तत्त्वज्ञानम्, परा, शान्तिः, यदा, विद्या, भवेत्, तव।)
अन्वय: यदा विद्या भवेत्, तदा तव वृत्तिः, कीर्तिः, लक्ष्मीः, यशस्विनी वाणी, तत्त्वज्ञानं, परा शान्तिः च (भवेत्)।
(वाक्य-क्रम: जब विद्या प्राप्त होती है, तब तुम्हें आजीविका, कीर्ति, धन, यशस्विनी वाणी, तत्त्वज्ञान और परम शांति प्राप्त होती है।)
भावार्थ: यदि त्वं विद्याम् अर्जयसि तर्हि त्वम् उद्योगं, यशः, धनं, कीर्तिप्रदां वाणीं, वास्तविकं ज्ञानम् उत्तमां शान्तिं च प्राप्नोषि, अतः निरन्तरं विद्यार्जनं करणीयम्।
(अर्थ: यदि तुम विद्या अर्जित करते हो, तो तुम्हें रोजगार, यश, धन, कीर्ति देने वाली वाणी, वास्तविक ज्ञान और उत्तम शांति प्राप्त होती है। इसलिए निरंतर विद्या अर्जन करना चाहिए।)
विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनं
विद्या भोगकरी यशःसुखकरी विद्या गुरूणां गुरुः।
विद्या बन्धुजनो विदेशगमने विद्या परा देवता,
विद्या राजसु पूज्यते न हि धनं विद्याविहीनः पशुः ॥ ६ ॥
(विद्या मनुष्य का श्रेष्ठ रूप, गुप्त धन, भोग, यश और सुख देने वाली, गुरुओं की गुरु, विदेश में बंधु, परम देवता है। राजाओं में विद्या की पूजा होती है, धन की नहीं; विद्या-रहित व्यक्ति पशु समान है।)
पदच्छेद: विद्या नाम नरस्य रूपम् अधिकम् प्रच्छन्न-गुप्तं धनम् विद्या भोगकरी यशः-सुखकरी विद्या गुरूणाम् गुरुः विद्या बन्धु-जनः विदेश-गमने विद्या परा देवता विद्या राजसु पूज्यते न हि धनम् विद्या-विहीनः पशुः।
(शब्द-विभाजन: विद्या, नाम, नरस्य, रूपम्, अधिकम्, प्रच्छन्न-गुप्तं, धनम्, विद्या, भोगकरी, यशः-सुखकरी, विद्या, गुरूणाम्, गुरुः, विद्या, बन्धु-जनः, विदेश-गमने, विद्या, परा, देवता, विद्या, राजसु, पूज्यते, न, हि, धनम्, विद्या-विहीनः, पशुः।)
अन्वय: विद्या नाम नरस्य अधिकं रूपं प्रच्छन्नगुप्तं धनं (च अस्ति)। विद्या भोगकरी यशःसुखकरी (च अस्ति)। विद्या गुरूणां गुरुः (अस्ति)। विद्या विदेशगमने बन्धुजनः (भवति)। विद्या परा देवता (अस्ति)। विद्या राजसु पूज्यते, धनं न हि (पूज्यते)। विद्याविहीनः (जनः) पशुः (भवति)।
(वाक्य-क्रम: विद्या मनुष्य का श्रेष्ठ रूप और गुप्त धन है। विद्या भोग, यश और सुख देने वाली है। विद्या गुरुओं की गुरु है। विदेश यात्रा में विद्या बंधु है। विद्या परम देवता है। राजसभाओं में विद्या की पूजा होती है, धन की नहीं। विद्या-रहित व्यक्ति पशु है।)
भावार्थ: विद्या मनुष्यस्य श्रेष्ठं सौन्दर्यम् अस्ति, अदृश्यं गुप्तं च धनम् अस्ति। विद्या आनन्दं जनयति, कीर्तिं वर्धयति, सुखं च प्रददाति। विद्या गुरूणां गुरुः अस्ति। विदेशयात्रायां विद्या बन्धुः भवति। विद्या प्रधाना देवता अस्ति। राजसभासु विदुषाम् एव सम्मानः भवति, न तु धनिकस्य, अतः यः विद्याहीनः भवति सः पशुसमानः भवति।
(अर्थ: विद्या मनुष्य का सर्वश्रेष्ठ सौंदर्य और अदृश्य गुप्त धन है। विद्या आनंद, कीर्ति और सुख देती है। विद्या गुरुओं की गुरु है। विदेश यात्रा में विद्या बंधु है। विद्या श्रेष्ठ देवता है। राजसभाओं में विद्वानों का सम्मान होता है, धनवानों का नहीं। इसलिए विद्या-रहित व्यक्ति पशु के समान है।)
शनैः पन्थाः शनैः कन्था शनैः पर्वतलङ्घनम्।
शनैर्विद्या शनैर्वित्तं पञ्चैतानि शनैः शनैः ॥ ७ ॥
(मार्ग धीरे-धीरे चलना, कन्था धीरे-धीरे सिलना, पर्वत धीरे-धीरे लाँघना, विद्या और धन धीरे-धीरे अर्जित करना—ये पाँच कार्य धीरे-धीरे करने चाहिए।)
पदच्छेद: शनैः पन्थाः शनैः कन्था शनैः पर्वत-लङ्घनम् शनैः विद्या शनैः वित्तम् पञ्च एतानि शनैः शनैः।
(शब्द-विभाजन: शनैः, पन्थाः, शनैः, कन्था, शनैः, पर्वत-लङ्घनम्, शनैः, विद्या, शनैः, वित्तम्, पञ्च, एतानि, शनैः, शनैः।)
अन्वय: पन्थाः शनैः, कन्था शनैः, पर्वतलङ्घनं शनैः, विद्या शनैः, वित्तं शनैः च एतानि पञ्च (कार्याणि) शनैः शनैः (करणीयानि)।
(वाक्य-क्रम: मार्ग धीरे-धीरे, कन्था धीरे-धीरे, पर्वतारोहण धीरे-धीरे, विद्या धीरे-धीरे, धन धीरे-धीरे—ये पाँच कार्य धीरे-धीरे करने चाहिए।)
भावार्थ: मनुष्यः सर्वदा गमनसमये सावधानं चलेत्। वस्त्रस्य सीवनं जागरूकतया कुर्यात्। पर्वतस्य उपरि आरोहणं क्रमेण कुर्यात्। विद्यां धनं च निरन्तरं प्रयत्नेन अर्जयेत्। एतानि पञ्च कार्याणि शनैः अर्थात् सोपानक्रमेण एव कुर्यात्।
(अर्थ: मनुष्य को हमेशा चलते समय सावधानी से चलना चाहिए। वस्त्र की सिलाई सतर्कता से करनी चाहिए। पर्वत पर चढ़ना क्रमबद्ध करना चाहिए। विद्या और धन निरंतर प्रयास से अर्जित करना चाहिए। ये पाँच कार्य धीरे-धीरे, अर्थात् क्रमिक रूप से करने चाहिए।)
न विद्यया विना सौख्यं नराणां जायते ध्रुवम्।
अतो धर्मार्थमोक्षेभ्यो विद्याभ्यासं समाचरेत् ॥ ८ ॥
(विद्या के बिना मनुष्यों का निश्चित सुख प्राप्त नहीं होता। इसलिए धर्म, अर्थ और मोक्ष के लिए विद्या का अभ्यास करना चाहिए।)
पदच्छेद: न विद्यया विना सौख्यम् नराणाम् जायते ध्रुवम् अतः धर्म-अर्थ-मोक्षेभ्यः विद्याभ्यासम् समाचरेत्।
(शब्द-विभाजन: न, विद्यया, विना, सौख्यम्, नराणाम्, जायते, ध्रुवम्, अतः, धर्म-अर्थ-मोक्षेभ्यः, विद्याभ्यासम्, समाचरेत्।)
अन्वय: विद्यया विना नराणां ध्रुवं सौख्यं न जायते। अतः धर्म-अर्थ-मोक्षेभ्यः विद्याभ्यासं समाचरेत्।
(वाक्य-क्रम: विद्या के बिना मनुष्यों का निश्चित सुख प्राप्त नहीं होता। इसलिए धर्म, अर्थ और मोक्ष के लिए विद्या का अभ्यास करना चाहिए।)
भावार्थ: मानवानां कृते विद्यार्जनम् अत्यन्तम् अनिवार्यं भवति। यदि नराः विद्यार्जनं न कुर्वन्ति तर्हि स्थिरं सुखं न प्राप्नुवन्ति। अतः धर्मसाधनाय अर्थलाभाय मोक्षं प्राप्तुं च विद्याभ्यासं कुर्यात्।
(अर्थ: मनुष्यों के लिए विद्या अर्जन अत्यंत आवश्यक है। यदि लोग विद्या अर्जन नहीं करते, तो उन्हें स्थायी सुख नहीं मिलता। इसलिए धर्म, अर्थ और मोक्ष की प्राप्ति के लिए विद्या का अभ्यास करना चाहिए।)
ताराणां भूषणं चन्द्रः लतानां भूषणं सुमम्।
पृथिव्याः भूषणं राजा विद्या सर्वस्य भूषणम् ॥ ९ ॥
(चंद्रमा तारों का, पुष्प लताओं का, राजा पृथ्वी का और विद्या सभी का आभूषण है।)
पदच्छेद: ताराणाम् भूषणम् चन्द्रः लतानाम् भूषणम् सुमम् पृथिव्याः भूषणम् राजा विद्या सर्वस्य भूषणम्।
(शब्द-विभाजन: ताराणाम्, भूषणम्, चन्द्रः, लतानाम्, भूषणम्, सुमम्, पृथिव्याः, भूषणम्, राजा, विद्या, सर्वस्य, भूषणम्।)
अन्वय: चन्द्रः ताराणां भूषणम् (अस्ति), सुमं लतानां भूषणम् (अस्ति), राजा पृथिव्याः भूषणम् (अस्ति), (परं) विद्या सर्वस्य भूषणम् (अस्ति)।
(वाक्य-क्रम: चंद्रमा तारों का भूषण है, पुष्प लताओं का भूषण है, राजा पृथ्वी का भूषण है, लेकिन विद्या सभी का भूषण है।)
भावार्थ: तारकाः चन्द्रेण सह शोभन्ते। लताः कुसुमैः सह शोभन्ते। राजा पृथिव्याः शोभां वर्धयति। विद्यया सर्वेषां मनुष्याणां शोभा वर्धते।
(अर्थ: तारे चंद्रमा के साथ शोभायमान होते हैं। लताएँ पुष्पों के साथ शोभायमान होती हैं। राजा पृथ्वी की शोभा बढ़ाता है। विद्या से सभी मनुष्यों की शोभा बढ़ती है।)
न चोरहार्यं न च राजहार्यं न भ्रातृभाज्यं न च भारकारि।
व्यये कृते वर्धत एव नित्यं विद्याधनं सर्वधनप्रधानम् ॥ १० ॥
(विद्या-धन न चोर चुरा सकता है, न राजा हर सकता है, न भाइयों में बाँटा जा सकता है, न भारी है। इसे खर्च करने से यह बढ़ता ही है; यह सभी धनों में प्रधान है।)
पदच्छेद: न चोर-हार्यम् न च राज-हार्यम् न भ्रातृ-भाज्यम् न च भारकारि व्यये कृते वर्धते एव नित्यम् विद्या-धनम् सर्व-धन-प्रधानम्।
(शब्द-विभाजन: न, चोर-हार्यम्, न, च, राज-हार्यम्, न, भ्रातृ-भाज्यम्, न, च, भारकारि, व्यये, कृते, वर्धते, एव, नित्यम्, विद्या-धनम्, सर्व-धन-प्रधानम्।)
अन्वय: (विद्याधनं) चोरहार्यं न (अस्ति), राजहार्यं न (अस्ति), भ्रातृभाज्यं न (अस्ति), भारकारि च न (अस्ति), व्यये कृते (विद्याधनं) नित्यं वर्धते एव, (अतः) विद्याधनं सर्वधनप्रधानम् (अस्ति)।
(वाक्य-क्रम: विद्या-धन न चोर द्वारा चुराया जा सकता है, न राजा द्वारा हरा जा सकता है, न भाइयों में बाँटा जा सकता है, न भारी है। इसे खर्च करने से यह हमेशा बढ़ता ही है। इसलिए विद्या-धन सभी धनों में प्रधान है।)
भावार्थ: चोरः धनं चोरयितुं शक्नोति। राजा धनम् अपहर्तुं शक्नोति। भ्रातृषु धनस्य विभाजनं भवितुम् अर्हति। धनस्य व्ययेन धनं न्यूनं भवति, किन्तु विद्यारूपं धनं चोरः चोरयितुं न शक्नोति। राजा तस्य अपहरणं कर्तुं न शक्नोति। विद्याधनस्य विभाजनं न भवति। विद्या भारयुक्ता न भवति। विद्यायाः वितरणेन विद्याधनम् इतोऽपि वर्धते, अतः सर्वधनेषु विद्याधनम् एव प्रमुखं धनम् अस्ति।
(अर्थ: चोर धन चुरा सकता है। राजा धन हर सकता है। भाइयों में धन का बँटवारा हो सकता है। धन खर्च करने से कम होता है, लेकिन विद्या रूपी धन को न चोर चुरा सकता है, न राजा हर सकता है। इसका बँटवारा नहीं होता। यह भारी नहीं होती। विद्या के वितरण से यह और बढ़ती है। इसलिए सभी धनों में विद्या-धन ही प्रमुख है।)
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