ईशावास्यम्इदं सर्वम्
अध्यापिका – अरे बच्चो ! क्या आप जानते हैं ‘ईश्वर कहाँ हैं ?
छात्रा – हम यह मानतें हैं ईश्वर मंदिर में होता है।
अध्यापिका – बच्चो ! ईश्वर केवल मंदिर में ही नहीं बल्कि सब जगह व्याप्त है।
छात्र – वह कैसे आचार्या?
अध्यापिका – ‘ईश्वर सब जगह व्याप्त है’, क्या आपने नहीं सुना ?
छात्र – नहीं, अध्यापिका जी! उसका क्या अर्थ है ?
अध्यापिका – यह सारा संसार ईश्वर के द्वारा ही व्याप्त है। इसका अर्थ है- ‘ईश्वर सब जगह है ।’
छात्रा – मानते हैं! ईश्वर ‘पेड़ पर, कमरे में, चट्टानों पर (पत्थर में) और खेल के मैदान में भी है क्या?
अध्यापिका – हाँ, ईश्वर सब जगह है। प्राचीन काल में आपके जैसा एक छोटा बच्चा ” भगवान सब जगह है ” उसने ऐसा दिखाया है। अब उसी प्रसंग को पढ़ते हैं। बाद में अभिनय सहित नाटक भी करेंगे।
(हिरण्यकशिपोः सभा)
(हिरण्यकशिपु की सभा)
राजभटः – अयि भोः सावधानाः तिष्ठन्तु। राजाधिराजः राजगम्भीरः त्रैलोक्याधिपतिः देवाधिदेवः दैत्यराजः हिरण्यकशिपुः आगच्छति।
(सैनिक: अरे, सावधान रहें! राजाओं के राजा, अत्यंत गंभीर, तीनों लोकों के स्वामी, देवताओं के देव, दैत्यराज हिरण्यकशिपु आ रहे हैं।)
सभासदः – विजयतां महाराज! विजयताम्। विजयतां महाराज! विजयताम्।
(सभासद: महाराज विजयी हों! विजयी हों। महाराज विजयी हों! विजयी हों।)
हिरण्यकशिपुः – ह ह ह ह…. (अट्टहासेन सह) अहम् एव सर्वशक्तिमान् अस्मि। अहम् अमरः अस्मि।
(हिरण्यकशिपु: हा हा हा हा… (ज़ोर से हँसते हुए) मैं ही सर्वशक्तिमान हूँ। मैं अमर हूँ।)
मन्त्री – सत्यं दैत्यराज! सुराः असुराः यक्ष-गन्धर्व-किन्नराः भवतः सर्वे भीताः तिष्ठन्ति।
(मंत्री: सत्य है, दैत्यराज! देवता, असुर, यक्ष, गंधर्व, किन्नर—सभी आपसे भयभीत हैं।)
दैत्यपुरोहितः – भगवन्! देशे सर्वत्र भवतः एव पूजा भवति। अन्यदेवतानाम् पूजाराधनं न भवति। इतः परं यज्ञभागादिकम् अपि देवेभ्यः न केऽपि दास्यन्ति।
(दैत्य पुरोहित: भगवान! पूरे देश में केवल आपकी ही पूजा होती है। अन्य देवताओं की पूजा-आराधना नहीं होती। अब से कोई भी देवताओं को यज्ञ का भाग आदि नहीं देगा।)
हिरण्यकशिपुः – साधु साधु। अयि भोः मन्त्रिन्! सर्वत्र जनाः मामेव ध्यायन्ति खलु!
(हिरण्यकशिपु: बहुत अच्छे, बहुत अच्छे। अरे मंत्री! क्या सभी लोग वास्तव में केवल मेरा ही ध्यान करते हैं?)
मन्त्री – देव! सर्वत्र भवतः एव नामकीर्तनं भवति, किन्तु……… (अधोमुखः मौनं तिष्ठति।)
(मंत्री: देव! हर जगह केवल आपके नाम का कीर्तन होता है, लेकिन… (सिर झुकाकर चुप रहता है।))
हिरण्यकशिपुः – (सक्रोधम्) आः! जानामि जानामि। भवान् मम पुत्रस्य विषये वक्तुम् इच्छति खलु।
(हिरण्यकशिपु: (क्रोध से) आह! जानता हूँ, जानता हूँ। तुम मेरे पुत्र के बारे में कहना चाहते हो, है न?)
मन्त्री – (मन्दध्वनिना) सत्यं देव!
(मंत्री: (धीमी आवाज़ में) सत्य है, देव!)
हिरण्यकशिपुः – मम पुत्रकः एव मम शत्रुः अस्ति। कुलकलङ्कः सः प्रह्लादः अहर्निशं मम शत्रोः हरेः गुणगानं करोति।
(हिरण्यकशिपु: मेरा पुत्र ही मेरा शत्रु है। वह कुल का कलंक प्रह्लाद दिन-रात मेरे शत्रु हरि का गुणगान करता है।)
सेनापतिः – स्वामिन्! गजस्य पद-दलनेन अपि सः जीवति।
(सेनापति: स्वामी! हाथी के पैरों से कुचलने पर भी वह जीवित है।)
हिरण्यकशिपुः – अहो महदाश्चर्यम्!
(हिरण्यकशिपु: अहो, यह बड़ा आश्चर्य है!)
सेनापतिः – भवदाज्ञया वयम् उत्तुङ्गशिखरात् तं पातितवन्तः। तथापि सः न मृतः।
(सेनापति: आपकी आज्ञा से हमने उसे ऊँचे पर्वत के शिखर से गिराया। फिर भी वह नहीं मरा।)
मन्त्री – रज्ज्वा बद्ध्वा समुद्रमध्ये क्षिप्तवन्तः। तथापि…..
(मंत्री: रस्सी से बाँधकर समुद्र के बीच में फेंका। फिर भी…)
हिरण्यकशिपुः – (हस्तौ मर्दयन् सक्रोधम्) आः… किं करवाणि, किं करवाणि एतस्य। (किञ्चिद् विचिन्त्य) आस्तां तावत्। उपायः मया चिन्तितः। द्रक्ष्यामि सः कथं जीविष्यति इति। (वदन् सभातः निर्गतः।)
(हिरण्यकशिपु: (हाथ मलते हुए क्रोध से) आह… इसका क्या करूँ, क्या करूँ। (थोड़ा सोचकर) ठीक है, अभी के लिए रहने दो। मैंने एक उपाय सोचा है। देखता हूँ, वह कैसे जीवित रहता है। (कहते हुए सभा से बाहर निकलता है।))
(सर्वे निष्क्रान्ताः)
(सभी बाहर निकलते हैं।)
हिरण्यकशिपुः – अयि भोः अनुजे! होलिके!! होलिके!!! कुत्र असि त्वम्? इत इतः।
(हिरण्यकशिपु: अरे छोटी बहन! होलिका!! होलिका!!! तुम कहाँ हो? इधर, इधर।)
होलिका – प्रणमामि भ्रातः! कथं मां स्मरसि? किमर्थं दुःखितः भासि? किं कारणम् अस्य दुःखस्य? वद भ्रातः! वद।
(होलिका: भाई को प्रणाम! तुम मुझे क्यों याद कर रहे हो? तुम दुखी क्यों दिख रहे हो? इस दुख का क्या कारण है? बताओ भाई! बताओ।)
हिरण्यकशिपुः – अनुजे! त्वं जानासि एव, मम पुत्रः एव मम शत्रुः जातः। (क्षीणस्वरेण सर्वं वृत्तान्तं कथयति)
(हिरण्यकशिपु: छोटी बहन! तुम तो जानती ही हो, मेरा पुत्र ही मेरा शत्रु बन गया है। (धीमी आवाज़ में सारा वृत्तांत बताता है।))
होलिका – भ्रातः! अलं चिन्तया, ब्रह्मणः वरप्रसादात् अग्निः मां न दहति, अहं ज्वालयिष्यामि प्रह्लादम्। आश्वस्तो भव।
(होलिका: भाई! चिंता छोड़ो, ब्रह्मा के वरदान से अग्नि मुझे नहीं जलाती। मैं प्रह्लाद को जलाऊँगी। निश्चिंत हो।)
(होलिका प्रह्लादकक्षं प्रविशति)
(होलिका प्रह्लाद के कक्ष में प्रवेश करती है।)
प्रह्लादः – (होलिकां दृष्ट्वा) पितृष्वसः! (आलिङ्गति)
(प्रह्लाद: (होलिका को देखकर) पिता की बहन! (गले लगता है।))
होलिका – अयि भोः प्रह्लाद! आगच्छ, आवां क्रीडिष्यावः।
(होलिका: अरे प्रह्लाद! आ, हम दोनों खेलेंगे।)
प्रह्लादः – (सहर्षम्) बाढम्।
(प्रह्लाद: (खुशी से) ठीक है।)
होलिका – प्रथमं त्वं माम् अन्विष्यसि।
(होलिका: पहले तुम मुझे ढूँढोगे।)
प्रह्लादः – (सहर्षम्) साधु।
(प्रह्लाद: (खुशी से) अच्छा।)
(होलिका प्रह्लादस्य नेत्रयोः पट्टिकां बध्नाति। किञ्चित् दूरे अग्निं प्रज्वालयति। स्वयम् अग्नौ उपविश्य करतलध्वनिना आह्वयति।)
(होलिका प्रह्लाद की आँखों पर पट्टी बाँधती है। थोड़ी दूरी पर अग्नि प्रज्वलित करती है। स्वयं अग्नि में बैठकर ताली बजाकर पुकारती है।)
होलिका – अत्र, अहम् अत्र अस्मि, इत इतः।
(होलिका: यहाँ, मैं यहाँ हूँ, इधर, इधर।)
प्रह्लादः – अहो तापम् अनुभवामि खलु अहम्।
(प्रह्लाद: अहो, मैं तो गर्मी महसूस कर रहा हूँ।)
(प्रह्लादः अग्निकुण्डस्य समीपम् गच्छति। होलिका तम् अङ्के स्वीकरोति।)
(प्रह्लाद अग्निकुंड के पास जाता है। होलिका उसे गोद में ले लेती है।)
होलिका – ह…..ह….ह… प्रह्लाद! अहं तव मृत्युः अस्मि। अहं त्वाम् अग्नये दास्यामि।
(होलिका: हा…हा…हा… प्रह्लाद! मैं तेरी मृत्यु हूँ। मैं तुझे अग्नि को दे दूँगी।)
प्रह्लादः – (करौ बद्ध्वा हरिं स्मरति) ॐ नमो नारायणाय, ॐ नमो नारायणाय, ॐ नमो नारायणाय………
(प्रह्लाद: (हाथ जोड़कर हरि का स्मरण करता है) ॐ नमो नारायणाय, ॐ नमो नारायणाय, ॐ नमो नारायणाय…)
(नारायणस्य कृपया प्रह्लादः रक्षितः भवति। ब्रह्मणः वरस्य दुरुपयोगकारणात् अग्निः होलिकाम् एव ज्वालयति। होलिका अग्निदाहात् आर्तनादं कुर्वती प्राणान् त्यजति।)
(नारायण की कृपा से प्रह्लाद सुरक्षित हो जाता है। ब्रह्मा के वरदान के दुरुपयोग के कारण अग्नि होलिका को ही जलाती है। होलिका अग्नि से जलकर चीखते हुए प्राण त्याग देती है।)
दैत्याः – अहो! किमेतत्? होलिका एव दग्धा।
(दैत्य: अहो! यह क्या? होलिका ही जल गई।)
(ततः प्रविशति प्रह्लादः हिरण्यकशिपुः च) (तब प्रह्लाद और हिरण्यकशिपु प्रवेश करते हैं।)
प्रह्लादः – ॐ नमो नारायणाय, ॐ नमो नारायणाय…
(प्रह्लाद: ॐ नमो नारायणाय, ॐ नमो नारायणाय…)
हिरण्यकशिपुः – (सक्रोधं दन्तान् विघट्टयन्) आः, नारायण! नारायण! दर्शय, कुत्र अस्ति तव नारायणः?
(हिरण्यकशिपु: (क्रोध से दाँत पीसते हुए) आह, नारायण! नारायण! दिखा, तेरा नारायण कहाँ है?)
प्रह्लादः – तात! श्रीहरिः तु सर्वत्र अस्ति।
(प्रह्लाद: पिता! श्रीहरि तो सर्वत्र हैं।)
हिरण्यकशिपुः – किं ते हरिः अत्र अस्ति? तत्र अस्ति? सोपानेषु अस्ति? अथवा अस्मिन् स्तम्भे अस्ति?
(हिरण्यकशिपु: क्या तेरा हरि यहाँ है? वहाँ है? सीढ़ियों में है? या इस स्तंभ में है?)
प्रह्लादः – नूनं हरिः सर्वत्र अस्ति। अस्मिन् स्तम्भे अपि अस्ति।
(प्रह्लाद: निश्चित रूप से हरि सर्वत्र हैं। इस स्तंभ में भी हैं।)
हिरण्यकशिपुः – आः, मूढ! पश्य पश्य, अनेन खड्गेन स्तम्भं भङ्क्ष्यामि।
(हिरण्यकशिपु: आह, मूर्ख! देख, देख, इस खड्ग से मैं स्तंभ को तोड़ दूँगा।)
प्रह्लादः – ॐ नमो नारायणाय, ॐ नमो नारायणाय, ॐ नमो नारायणाय…
(प्रह्लाद: ॐ नमो नारायणाय, ॐ नमो नारायणाय, ॐ नमो नारायणाय…)
(हिरण्यकशिपुः स्तम्भं प्रहरति। महता गर्जनेन नृसिंहः स्तम्भात् बहिः आगच्छति)
(हिरण्यकशिपु स्तंभ पर प्रहार करता है। बड़े गर्जन के साथ नृसिंह स्तंभ से बाहर आते हैं।)
नृसिंहः – (क्रोधेन सिंहगर्जनं कुर्वन्) रे पापात्मन्! अद्य तव मृत्युः सन्निहितः। कालोऽहं तव।
(नृसिंह: (क्रोध से सिंह की तरह गर्जते हुए) रे पापी! आज तेरी मृत्यु निकट है। मैं तेरा काल हूँ।)
हिरण्यकशिपुः – (आदौ आश्चर्येण पश्यति पुनः कथयति) आः, असत्यवादिन्! अहं ब्रह्मदेवात् वरं प्राप्य अमरः अस्मि। त्वाम् एव मृत्युलोकं प्रेषयिष्यामि।
(हिरण्यकशिपु: (पहले आश्चर्य से देखता है, फिर कहता है) आह, झूठे! मैंने ब्रह्मदेव से वर प्राप्त कर अमर हो गया हूँ। मैं तुझे ही यमलोक भेज दूँगा।)
(तस्मिन् सन्ध्याकाले नृसिंहः हिरण्यकशिपुं केशेषु गृहीत्वा कर्षति)
(उस संध्या काल में नृसिंह हिरण्यकशिपु को बालों से पकड़कर खींचते हैं।)
नृसिंहः – रे मूर्ख! अधम! त्वं ब्रह्मदेवात् वरं प्राप्तवान् असि, तं वरम् अनुल्लङ्घ्य अहं त्वां मारयिष्यामि।
(नृसिंह: रे मूर्ख! नीच! तूने ब्रह्मदेव से वर प्राप्त किया है, उस वर का उल्लंघन किए बिना मैं तुझे मारूँगा।)
(राजभवनस्य अन्तः बहिः च एतयोः मध्ये विद्यमानायां देहल्यां तं गृह्णाति)
(राजभवन के भीतर और बाहर के बीच में स्थित देहली पर उसे पकड़ते हैं।)
नृसिंहः – मूढ! पश्य, न त्वम् असि भुवि, न च स्वर्गे; न वा पाताले, न च आकाशे; न गृहाभ्यन्तरे, बहिर्भागे वा; नायं दिवसो, न वा रात्रिः; नाहं मनुष्यो, न च पशुः; न अस्त्रेण, न च शस्त्रेण; निजनखैः तव वक्षःस्थलं विदीर्य हनिष्यामि।
(नृसिंह: मूर्ख! देख, न तू पृथ्वी पर है, न स्वर्ग में; न पाताल में, न आकाश में; न घर के भीतर, न बाहर; न यह दिन है, न रात; न मैं मनुष्य हूँ, न पशु; न अस्त्र से, न शस्त्र से; अपने नाखूनों से तेरी छाती चीरकर तुझे मारूँगा।)
हिरण्यकशिपुः – (भीतः) प्रभो! क्षमस्व मां, क्षमस्व।
(हिरण्यकशिपु: (भयभीत) प्रभु! मुझे क्षमा करो, क्षमा करो।)
नृसिंहः – अधम! न तेऽपराधः क्षम्यः। (सिंहगर्जनं कुर्वन् हिरण्यकशिपोः वक्षःस्थलं भिनत्ति।)
(नृसिंह: नीच! तेरा अपराध क्षमा योग्य नहीं है। (सिंह की तरह गर्जते हुए हिरण्यकशिपु की छाती चीरते हैं।))
अध्यापिका – एवं बालः प्रह्लादः ईश्वरः सर्वत्र अस्ति इति दर्शितवान्। अत एव उच्यते, ‘ईशावास्यम् इदं सर्वम्’ इति।
(अध्यापिका: इस प्रकार बालक प्रह्लाद ने दिखाया कि ईश्वर सर्वत्र हैं। इसलिए कहा जाता है, ‘यह सब ईश्वर से व्याप्त है’।)






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