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दीपकम् Class 7 Chapter 8 हिंदी में अनुवाद Deepakam Sanskrit NCERT

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हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः


एका छात्रा – गुरुजी ! आज मेरी माता ने मुझे एक सूक्ति ‘सत्यं वद, धर्मं चर’ पढ़ाई ।

द्वितीया छात्रा – गुरुजी !, ‘सूक्ति’ यह कहने का क्या मतलब (अर्थ) है?

आचार्य – सूक्तिः यह कहने का अर्थ है ‘सुन्दर वचन’। सूक्तियों में जीवनमूल्य निहित होते हैं।

एक छात्र – श्रीमान जी, सूक्तियाँ हमें श्रेष्ठ मार्ग की तरफ़ ले जाती हैं, ऐसा मैंने सुना है।

आचार्य – सच है। सूक्तियाँ जीवन में हमारा मार्गदर्शन करती हैं। संस्कृत साहित्य में सूक्तियों का भण्डार है ।

द्वितीया छात्रा – गुरुजी ! हममें जिज्ञासा बढ़ती जा रही है। हम यह सूक्तियाँ पढ़ते हैं।

आचार्य – न केवल पढ़ते हैं, बल्कि याद करते हैं और जीवन में आचरण करते हैं।


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१. माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः ॥

पदच्छेदः – माता भूमिः पुत्रः अहम् पृथिव्याः।

(शब्द-विभाजन: माता, भूमिः, पुत्रः, अहम्, पृथिव्याः।)

अन्वयः – भूमिः माता (अस्ति) अहं पृथिव्याः पुत्रः (अस्मि)।

(वाक्य-क्रम: भूमि माता है, मैं पृथ्वी का पुत्र हूँ।)

भावार्थः – पृथ्वी अस्मान् माता इव लालयति पालयति च। अतः भूमिः अस्माकं सर्वेषां माता अस्ति। वयं सर्वे अस्याः पृथिव्याः सन्तानाः स्मः। एषा सर्वदा पूज्या अस्ति।

(अर्थ: पृथ्वी हमारा माता की तरह पालन-पोषण करती है। इसलिए भूमि हम सभी की माता है। हम सभी इस पृथ्वी के सन्तान हैं। यह सदा पूजनीय है।)


२. न रत्नमन्विष्यति, मृग्यते हि तत् ॥

पदच्छेदः – न रत्नम् अन्विष्यति मृग्यते हि तत्।

(शब्द-विभाजन: न, रत्नम्, अन्विष्यति, मृग्यते, हि, तत्।)

अन्वयः – रत्नं न अन्विष्यति, तत् मृग्यते हि।

(वाक्य-क्रम: रत्न स्वयं खोज नहीं करता, वह खोजा जाता है।)

भावार्थः – हीरकादीनि रत्नानि ग्राहकस्य अन्वेषणं न कुर्वन्ति अपितु ग्राहकाः एव रत्नानाम् अन्वेषणं कुर्वन्ति। तथैव अस्मासु यदि गुणाःन्ति तर्हि गुणज्ञाः स्वयमेव अस्मान् अन्विष्य आगच्छन्ति।

(अर्थ: हीरे जैसे रत्न ग्राहक की खोज नहीं करते, बल्कि ग्राहक ही रत्नों की खोज करते हैं। उसी तरह, यदि हममें गुण हैं, तो गुणों को पहचानने वाले स्वयं हमारी खोज में आते हैं।)


३. शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम् ॥

पदच्छेदः – शरीरम् आद्यम् खलु धर्मसाधनम्।

(शब्द-विभाजन: शरीरम्, आद्यम्, खलु, धर्मसाधनम्।)

अन्वयः – शरीरं खलु आद्यं धर्मसाधनम्।

(वाक्य-क्रम: शरीर निश्चित रूप से धर्म का प्रथम साधन है।)

भावार्थः – यदि अस्माकं शरीरं स्वस्थम् अस्ति तर्हि वयं स्वकर्तव्यस्य पालनं कर्तुं शक्नुमः, अतः अस्माभिः स्वशरीरस्य रक्षा सर्वथा करणीया यतः शरीरम् एव धर्मपालनस्य प्रथमं साधनम् अस्ति।

(अर्थ: यदि हमारा शरीर स्वस्थ है, तभी हम अपने कर्तव्यों का पालन कर सकते हैं। इसलिए हमें अपने शरीर की रक्षा हर तरह से करनी चाहिए, क्योंकि शरीर ही धर्म पालन का पहला साधन है।)


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४. क्षणशः कणशश्चैव विद्यामर्थं च साधयेत् ॥

पदच्छेदः – क्षणशः कणशः च एव विद्याम् अर्थम् च साधयेत्।

(शब्द-विभाजन: क्षणशः, कणशः, च, एव, विद्याम्, अर्थम्, च, साधयेत्।)

अन्वयः – क्षणशः (एव) विद्यां कणशः एव अर्थं च साधयेत्।

(वाक्य-क्रम: प्रत्येक क्षण में विद्या और प्रत्येक कण में धन को प्राप्त करना चाहिए।)

भावार्थः – ज्ञानं प्राप्तुं समयस्य निरन्तरम् उपयोगः करणीयः। एकस्य अपि क्षणस्य नाशः न करणीयः। एवम् एव यदि कोऽपि धनस्य सङ्ग्रहं कर्तुम् इच्छति तर्हि सः निरन्तरं रूप्यकस्य सङ्ग्रहणं कुर्यात्। ‘क्षणत्यागे कुतो विद्या, कणत्यागे कुतो धनम्।’

(अर्थ: ज्ञान प्राप्त करने के लिए समय का निरंतर उपयोग करना चाहिए। एक भी क्षण नष्ट नहीं करना चाहिए। उसी तरह, यदि कोई धन संग्रह करना चाहता है, तो उसे निरंतर रुपये का संग्रह करना चाहिए। ‘क्षण के त्याग से विद्या कहाँ, कण के त्याग से धन कहाँ।’)


५. सुखार्थिनः कुतो विद्या, कुतो विद्यार्थिनः सुखम् ॥

पदच्छेदः – सुखार्थिनः कुतः विद्या कुतः विद्यार्थिनः सुखम्।

(शब्द-विभाजन: सुखार्थिनः, कुतः, विद्या, कुतः, विद्यार्थिनः, सुखम्।)

अन्वयः – सुखार्थिनः विद्या कुतः (भवेत्), विद्यार्थिनः सुखं कुतः (भवेत्)।

(वाक्य-क्रम: सुख चाहने वाले को विद्या कहाँ से मिलेगी, विद्या चाहने वाले को सुख कहाँ से मिलेगा।)

भावार्थः – यः सदैव सुखम् इच्छति, परिश्रमं न करोति, अलसः अस्ति, सः कथं विद्यां प्राप्तुं शक्नोति? अतः यः ज्ञानं लब्धुम् इच्छति सः आलस्यं सुखं च त्यक्त्वा निरन्तरं विद्यार्जनं कुर्यात्।

(अर्थ: जो हमेशा सुख चाहता है, परिश्रम नहीं करता, आलसी है, वह विद्या कैसे प्राप्त कर सकता है? इसलिए जो ज्ञान प्राप्त करना चाहता है, उसे आलस्य और सुख का त्याग कर निरंतर विद्या अर्जन करना चाहिए।)


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६. गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न च लिङ्गं न च वयः ॥

पदच्छेदः – गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न च लिङ्गम् न च वयः।

(शब्द-विभाजन: गुणाः, पूजास्थानं, गुणिषु, न, च, लिङ्गम्, न, च, वयः।)

अन्वयः – गुणिषु गुणाः (एव) पूजास्थानं (भवन्ति) लिङ्गं च न (भवति) वयः च न (भवति)।

(वाक्य-क्रम: गुणी व्यक्तियों में गुण ही पूजा के स्थान हैं, न लिंग और न आयु।)

भावार्थः – गुणानां सर्वदा एव आदरः भवति। गुणवान् जनः पुरुषः स्त्री वा भवेत्, बालः वृद्धः वा भवेत्, सः सर्वदा पूजनीयः एव भवति। आदरस्य कृते लिङ्गम् आयुः वा महत्त्वपूर्णं न भवति।

(अर्थ: गुणों का सदा आदर होता है। गुणवान व्यक्ति पुरुष हो या स्त्री, बालक हो या वृद्ध, वह सदा पूजनीय होता है। आदर के लिए लिंग या आयु महत्वपूर्ण नहीं होती।)


७. मा ब्रूहि दीनं वचः ॥

पदच्छेदः – मा ब्रूहि दीनम् वचः।

(शब्द-विभाजन: मा, ब्रूहि, दीनम्, वचः।)

अन्वयः – (त्वं) दीनं वचः मा ब्रूहि।

(वाक्य-क्रम: तुम दयनीय वचन मत बोलो।)

भावार्थः – समाजे सर्वविधाः जनाः भवन्ति। केचित् साहाय्यं कुर्वन्ति। केचित् केवलं विकत्थनं कुर्वन्ति, अतः स्वाभिमानी जनः यस्य कस्यापि पुरतः साहाय्यस्य याचनां न कुर्यात्।

(अर्थ: समाज में हर प्रकार के लोग होते हैं। कुछ सहायता करते हैं, कुछ केवल डींग हाँकते हैं। इसलिए स्वाभिमानी व्यक्ति को किसी के सामने सहायता की याचना नहीं करनी चाहिए।)


८. यस्तु क्रियावान् पुरुषः स विद्वान् ॥

पदच्छेदः – यः तु क्रियावान् पुरुषः सः विद्वान्।

(शब्द-विभाजन: यः, तु, क्रियावान्, पुरुषः, सः, विद्वान्।)

अन्वयः – यः तु क्रियावान् पुरुषः सः विद्वान् (भवति)।

(वाक्य-क्रम: जो कर्मशील पुरुष है, वही विद्वान है।)

भावार्थः – अर्जितस्य ज्ञानस्य जीवने आचरणेन, व्यवहारे च प्रयोगेण हि मनुष्यः वास्तविकः विद्वान् भवति न तु केवलम् अध्ययनेन। विद्या अनुकूल-कर्मणा विना व्यर्था भवति। ‘ज्ञानं भारः क्रियां विना’।

(अर्थ: प्राप्त ज्ञान का जीवन में आचरण और व्यवहार में प्रयोग करने से ही मनुष्य वास्तविक विद्वान बनता है, केवल पढ़ाई से नहीं। बिना कर्म के विद्या व्यर्थ है। ‘ज्ञान बिना क्रिया के बोझ है’।)


९. शीलं परं भूषणम् ॥

पदच्छेदः – शीलम् परम् भूषणम्।

(शब्द-विभाजन: शीलम्, परम्, भूषणम्।)

अन्वयः – शीलं परं भूषणम् (अस्ति)।

(वाक्य-क्रम: शील सर्वश्रेष्ठ आभूषण है।)

भावार्थः – मनुष्यस्य आचरणम् एव श्रेष्ठम् आभूषणम् अस्ति। सदाचारं विना अन्ये गुणाः निरर्थकाः भवन्ति।

(अर्थ: मनुष्य का आचरण ही सबसे उत्तम आभूषण है। सदाचार के बिना अन्य गुण निरर्थक हो जाते हैं।)


१०. हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः ॥

पदच्छेदः – हितम् मनोहारि च दुर्लभम् वचः।

(शब्द-विभाजन: हितम्, मनोहारि, च, दुर्लभम्, वचः।)

अन्वयः – हितं मनोहारि च वचः दुर्लभं (भवति)।

(वाक्य-क्रम: हितकर और मनोहर वचन दुर्लभ है।)

भावार्थः – केचन हितकारकं वचनं वदन्ति किन्तु तत् कठोरतया वदन्ति। केचन मनोरञ्जकं वाक्यं वदन्ति किन्तु तत् हितकारकं न भवति। तादृशं वचनं दुर्लभं भवति यत् हितकारकम् अपि स्यात्, मनोरमम् अपि स्यात्।

(अर्थ: कुछ लोग हितकर वचन बोलते हैं, लेकिन वह कठोर होता है। कुछ मनोरंजक वाक्य बोलते हैं, लेकिन वह हितकर नहीं होता। ऐसा वचन दुर्लभ है जो हितकर भी हो और मनोरम भी।)

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