Notes For All Chapters Hindi Kshitij Class 9
परिचय
- ललद्यद कश्मीरी भाषा की प्रसिद्ध संत-कवयित्री थीं।
- उनका जन्म 1320 ई. के आसपास कश्मीर के पाम्पोर स्थित सिमपुरा गाँव में हुआ था।
- उनके जीवन के बारे में बहुत कम प्रामाणिक जानकारी मिलती है।
- उन्हें लल्लेश्वरी, लला, ललयोगेश्वरी, ललारिफा आदि नामों से भी जाना जाता है।
- उनका निधन 1391 ई. के लगभग हुआ माना जाता है।
रचनात्मक शैली
- ललद्यद की काव्य रचना शैली को “वाख” कहा जाता है।
- जैसे हिंदी में कबीर के दोहे, मीरा के पद और तुलसी की चौपाइयाँ प्रसिद्ध हैं, वैसे ही ललद्यद के वाख प्रसिद्ध हैं।
- वाख छोटे चार पंक्तियों के पद होते हैं जिनमें गहरी भक्ति और जीवन-दर्शन छिपा होता है।
रचनाओं की विशेषताएँ
- भक्ति की भावना – उन्होंने जाति, धर्म और आडंबरों से ऊपर उठकर भक्ति को जीवन से जोड़ने पर जोर दिया।
- धार्मिक आडंबरों का विरोध – उन्होंने बाहरी दिखावे और झूठी साधना का विरोध किया।
- प्रेम का महत्व – प्रेम को उन्होंने सबसे बड़ा मूल्य बताया।
- लोक भाषा का प्रयोग – उन्होंने कठिन संस्कृत या फ़ारसी की बजाय जनता की सरल भाषा में रचना की।
- जनचेतना की झलक – उनकी रचनाएँ आज भी कश्मीरी जनता की वाणी में जीवित हैं।
- आत्मज्ञान का महत्व – उन्होंने कहा कि सच्चा ज्ञान आत्मज्ञान है।
चार वाखों का भावार्थ
वाख 1
रस्सी कच्चे धागे की, खींच रही मैं नाव।
जाने कब सुन मेरी पुकार, करें देव भवसागर पार।
पानी टपके कच्चे सकोरे, व्यर्थ प्रयास हो रहे मेरे।
जी में उठती रह-रह हूक, घर जाने की चाह है घेरे।
भावार्थ:
कवयित्री जीवन रूपी नाव को कमजोर रस्सी (कमजोर साधनों) से खींच रही है। वह ईश्वर से मुक्ति की प्रार्थना करती है पर उसे एहसास होता है कि उसके प्रयास व्यर्थ हैं। उसे आत्मलोक (परमात्मा के घर) लौटने की तीव्र इच्छा है।
वाख 2
खा-खाकर कुछ पाएगा नहीं,
न खाकर बनेगा अहंकारी।
सम खा तभी होगा समभावी,
खुलेगी साँकल बंद द्वार की।
भावार्थ:
कवयित्री कहती हैं कि न तो अधिक भोगने से कुछ मिलेगा और न ही त्याग कर अहंकारी बनने से। जब मनुष्य संतुलित व्यवहार करता है, तभी उसका मन शुद्ध होता है और चेतना के द्वार खुलते हैं।
वाख 3
आई सीधी राह से, गई न सीधी राह।
सुषुम-सेतु पर खड़ी थी, बीत गया दिन आह!
जेब टटोली, कौड़ी न पाई।
माझी को दूँ, क्या उतराई?
भावार्थ:
ललद्यद आत्मालोचन करती हैं। वे स्वीकार करती हैं कि जीवन की सच्ची राह पर चलने के बावजूद सांसारिक मोह में फँस गईं। अब जब आत्मपरीक्षण करती हैं तो पाती हैं कि उनके पास अच्छे कर्म नहीं हैं जो मुक्ति का मूल्य चुकाएँ।
वाख 4
थल-थल में बसता है शिव ही,
भेद न कर क्या हिंदू-मुसलमां।
ज्ञानी है तो स्वयं को जान,
वही है साहिब से पहचान।
भावार्थ:
कवयित्री कहती हैं कि ईश्वर हर जगह, हर प्राणी में समान रूप से विद्यमान है। इसलिए धर्म या जाति का भेद नहीं करना चाहिए। सच्चा ज्ञानी वही है जो अपने भीतर के ईश्वर को पहचानता है।
मुख्य विचार
ईश्वर की प्राप्ति बाहरी कर्मकांडों से नहीं, सच्चे मन और आत्मज्ञान से होती है।
भेदभाव, अहंकार, और आडंबर ईश्वर प्राप्ति में बाधा हैं।
सद्कर्म और प्रेम ही मुक्ति के मार्ग हैं।
ललद्यद की वाणी आज भी समानता, सादगी और आध्यात्मिकता का संदेश देती है।

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