भारतीवसन्तगीतिः (भारतीय वसंत गीत)
📜 संस्कृत में सारांशः
अयं पाठः आधुनिकसंस्कृतकविना पण्डितजानकीवल्लभशास्त्रिणा रचितस्य “काकली” इति गीतसंग्रहात् संगृहीतः अस्ति। कविः अत्र प्रकृतेः सौन्दर्यम् अत्यन्तं रमणीयं वर्णयति। तस्य भावः अस्ति — प्रकृतेः शोभां दृष्ट्वा एव सरस्वत्याः वीणाया मधुरनिनादः संभवति।
कविः वाणीं प्रार्थयति — “हे वाणि! नवीनामये वीणां निनादय। मृदु गीतिं गाय।” वसन्तऋतौ सर्वत्र हरितपल्लवाः, सुमनः, कोकिलाः च लसन्ति। मंदमंदः समीरः वहति, कलिन्दात्मजा यमुना तीरे जलं चलति, अलीनां गुंजनं श्राव्यं भवति।
एवं सर्वा प्रकृतिः वसन्ते गीतिमयी भवति। तस्मिन् समये कविः सरस्वतीं वीणावादनाय प्रार्थयति यत् तस्याः मधुरध्वनिः प्रकृतेः गीतेन सह समन्वितो भवेत्।
अन्ते कविः भावं प्रकाशयति यत् सरस्वत्याः वीणानिनादः मानवमनसि शान्तिं, कोमलतां, सौन्दर्यबुद्धिं च उत्पादयति। एवं अस्य काव्यस्य मुख्यभावः अस्ति — प्रकृति-सौन्दर्यस्य सरस्वती-गीतेन मिलनम्।
🌸 हिन्दी में सारांश
यह कविता आधुनिक संस्कृत कवि पंडित जानकीवल्लभ शास्त्री के गीत-संग्रह “काकली” से ली गई है। इस रचना में कवि ने प्रकृति की सुंदरता का अत्यंत मधुर वर्णन किया है। कवि का विश्वास है कि प्रकृति के सौंदर्य को देखकर ही सरस्वती की वीणा मधुर स्वर उत्पन्न करती है।
कवि वाणी (सरस्वती देवी) से प्रार्थना करता है कि वे अपनी वीणा को नए, कोमल और मधुर स्वर में बजाएँ — ऐसा स्वर जो सच्चाई, सुंदरता और शांति से भरा हुआ हो। वसंत ऋतु के आगमन पर चारों ओर हरियाली, फूलों की महक, कोयलों की मधुर काकली और मंद समीर का प्रवाह मन को आनंदित कर देता है।
कवि कहता है कि जब यमुना नदी के तट पर मंद-मंद पवन बहता है, बेलों के बीच मधुमक्खियाँ गुनगुनाती हैं, और पेड़-पौधे नई पत्तियों व फूलों से सजते हैं, तब सारी प्रकृति एक मधुर संगीत-समारोह जैसी लगती है। ऐसे वातावरण में कवि सरस्वती से प्रार्थना करता है कि वे अपनी वीणा से उस प्राकृतिक संगीत में और मधुरता भर दें।
अंत में कवि यह भावना प्रकट करता है कि जैसे प्रकृति के स्पर्श से हृदय में शांति और सजीवता आती है, वैसे ही सरस्वती की वीणा के मधुर स्वर से मानव मन में कोमलता, सौंदर्य और संस्कृति का संचार होता है।
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