वाडमनःप्राणस्वरूपम् (वाणी मन प्राण का स्वरुप)
प्रस्तुतोऽयं पाठः “छान्दोग्योपनिषदः” षष्ठाध्यायस्य पञ्चमखण्डात् समुद्धृतोऽस्ति। पाठ्यांशे मनोविषयकं प्राणविषयकं वाग्विषयकञ्च रोचक तथ्यं प्रकाशितम् अस्ति। अत्र उपनिषदि वर्णितगुह्यतत्त्वानां सारल्येन अवबोधार्थम् आरुणि-श्वेतकेत्वोः संवादमाध्यमेन वाङ्मनः प्राणानां परिचर्चा कृतास्ति। ऋषिकुलपरम्परायां ज्ञानप्राप्तेः त्रीणि साधनानि सन्ति। तेषु परिप्रश्नोऽपि एकम् अन्यतमं साधनम् अस्ति। अत्र गुरुसेवनपटुः शिष्यः वाङ्मनः प्राणविषयकान् प्रश्नान् पृच्छति, आचार्यश्च तेषां प्रश्नानां समाधानं करोति।
यह पाठ छान्दोग्य उपनिषद् के छठे अध्याय के पांचवें खंड से उद्धृत किया गया है। इस पाठ्यांश में मन, प्राण और वाक् से संबंधित रोचक तथ्य प्रकट किए गए हैं। यहां उपनिषद् में वर्णित गूढ़ तत्त्वों को सरलता से समझने के लिए आरुणि और श्वेतकेतु के संवाद के माध्यम से वाक्, मन और प्राण की चर्चा की गई है। ऋषिकुल परंपरा में ज्ञान प्राप्ति के तीन साधन हैं, जिनमें परिप्रश्न (प्रश्न करना) भी एक महत्वपूर्ण साधन है। यहां गुरु की सेवा में निपुण शिष्य वाक्, मन और प्राण से संबंधित प्रश्न पूछता है, और आचार्य उन प्रश्नों का समाधान करते हैं।
श्वेतकेतुः – भगवन्! श्वेतकेतुरहं वन्दे।
(श्वेतकेतु: हे भगवन! मैं श्वेतकेतु प्रणाम करता हूं।)
आरुणिः – वत्स! चिरञ्जीव।
(आरुणि: पुत्र! दीर्घायु हो।)
श्वेतकेतुः – भगवन्! किञ्चित्प्रष्टुमिच्छामि।
(श्वेतकेतु: हे भगवन! मैं कुछ पूछना चाहता हूं।)
आरुणिः – वत्स! किमद्य त्वया प्रष्टव्यमस्ति?
(आरुणि: पुत्र! आज तुम्हें क्या पूछना है?)
श्वेतकेतुः – भगवन्! इच्छामि यत् किमिदं मनः?
(श्वेतकेतु: हे भगवन! मैं जानना चाहता हूं कि यह मन क्या है?)
आरुणिः – वत्स! अशितस्यान्नस्य योऽणिष्ठः तन्मनः।
(आरुणि: पुत्र! खाए गए अन्न का जो सूक्ष्मतम अंश है, वही मन है।)
श्वेतकेतुः – कश्च प्राणः?
(श्वेतकेतु: और प्राण क्या है?)
आरुणिः – पीतानाम् अपां योऽणिष्ठः स प्राणः।
(आरुणि: पीए गए जल का जो सूक्ष्मतम अंश है, वही प्राण है।)
श्वेतकेतुः – भगवन्! का इयं वाक्?
(श्वेतकेतु: हे भगवन! यह वाक् क्या है?)
आरुणिः – वत्स! अशितस्य तेजसो योऽणिष्ठः सा वाक्। सौम्य! मनः अन्नमयं प्राणः आपोमयः, वाक् च तेजोमयी भवति इत्यप्यवधार्यम्।
(आरुणि: पुत्र! खाए गए तेज (अग्नि) का जो सूक्ष्मतम अंश है, वही वाक् है। हे सौम्य! यह समझो कि मन अन्नमय (अन्न से बना), प्राण आपोमय (जल से बना), और वाक् तेजोमयी (तेज से बनी) होती है।)
श्वेतकेतुः – भगवन्! भूय एव मां विज्ञापयतु।
(श्वेतकेतु: हे भगवन! मुझे और अधिक समझाएं।)
आरुणिः – सौम्य! सावधानं शृणु। मथ्यमानस्य दध्नः योऽणिमा, स ऊर्ध्वं समुदीषति, तत्सर्पिः भवति।
(आरुणि: हे सौम्य! ध्यान से सुनो। जब दही का मंथन किया जाता है, तो उसका जो सूक्ष्मतम अंश है, वह ऊपर उठता है और वही घी बनता है।)
श्वेतकेतुः – भगवन्! भवता घृतोत्पत्तिरहस्यम् व्याख्यातम्। भूयोऽपि श्रोतुमिच्छामि।
(श्वेतकेतु: हे भगवन! आपने घी उत्पत्ति का रहस्य समझाया। मैं और अधिक सुनना चाहता हूं।)
आरुणिः – एवमेव सौम्य अश्यमानस्य अन्नस्य योऽणिमा, स ऊर्ध्वं समुदीषति। तन्मनो भवति। अवगतं न वा?
(आरुणि: उसी प्रकार, हे सौम्य! खाए गए अन्न का जो सूक्ष्मतम अंश है, वह ऊपर उठता है और वही मन बनता है। समझे या नहीं?)
श्वेतकेतुः – सम्यगवगतं भगवन्!
(श्वेतकेतु: पूर्ण रूप से समझ गया, हे भगवन!)
आरुणिः – वत्स! पीयमानानाम् अपां योऽणिमा स ऊर्ध्वं समुदीषति स एव प्राणो भवति।
(आरुणि: पुत्र! पीए गए जल का जो सूक्ष्मतम अंश है, वह ऊपर उठता है और वही प्राण बनता है।)
श्वेतकेतुः – भगवन्! वाचमपि विज्ञापयतु।
(श्वेतकेतु: हे भगवन! वाक् के बारे में भी समझाएं।)
आरुणिः – सौम्य! अश्यमानस्य तेजसो योऽणिमा, स ऊर्ध्वं समुदीषति। सा खलु वाग्भवति। वत्स! उपदेशान्ते भूयोऽपि त्वां विज्ञापयितुमिच्छामि यत् अन्नमयं भवति मनः, आपोमयो भवति प्राणः तेजोमयी च भवति वागिति। किञ्च यादृशमन्नादिकं गृह्णाति मानवस्तादृशमेव तस्य चित्तादिकं भवतीति मदुपदेशसारः। वत्स! एतत्सर्वं हृदयेन अवधारय।
(आरुणि: हे सौम्य! खाए गए तेज का जो सूक्ष्मतम अंश है, वह ऊपर उठता है और वही वाक् बनती है। पुत्र! उपदेश के अंत में मैं तुम्हें फिर से समझाना चाहता हूं कि मन अन्नमय, प्राण आपोमय और वाक् तेजोमयी होती है। और यह भी कि मनुष्य जैसा अन्न आदि ग्रहण करता है, वैसा ही उसका चित्त आदि बनता है—यही मेरे उपदेश का सार है। पुत्र! इस सबको हृदय से समझो।)
श्वेतकेतुः – यदाज्ञापयति भगवन्। एष प्रणमामि।
(श्वेतकेतु: जैसा आप आज्ञा देते हैं, हे भगवन! मैं प्रणाम करता हूं।)
आरुणिः – वत्स! चिरञ्जीव। तेजस्वि नौ अधीतम् अस्तु।
(आरुणि: पुत्र! दीर्घायु हो। हम दोनों का अध्ययन तेजस्वी हो।)


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