वाडमनःप्राणस्वरूपम् (वाणी मन प्राण का स्वरुप)
स्रोत:प्रस्तुतः पाठः “छान्दोग्योपनिषदः” षष्ठाध्यायस्य पञ्चमखण्डात् समुद्धृतः।
(यह पाठ छान्दोग्य उपनिषद के छठे अध्याय के पाँचवें खंड से लिया गया है।)
विषय: अस्मिन् पाठे श्वेतकेतु-आरुणयोः संवादेन वाङ्मनःप्राणानां स्वरूपं वर्णितम्। श्वेतकेतुः मनः, प्राणः, वाक् च किम् इति पृच्छति। आरुणिः समाधानति यत् अन्नस्य अणिष्ठः भागः मनः, अपां अणिष्ठः भागः प्राणः, तेजसः अणिष्ठः भागः वाक् च भवति। सः दधिमथनस्य दृष्टान्तेन उपदिशति यत् अन्नमयं मनः, आपोमयः प्राणः, तेजोमयी वाक् च भवति। यद् मानवः गृह्णाति, तादृशं तस्य चित्तं भवति।
(इस पाठ में श्वेतकेतु और आरुणि के संवाद के माध्यम से वाक्, मन और प्राण का स्वरूप बताया गया है। श्वेतकेतु पूछता है कि मन, प्राण और वाक् क्या हैं। आरुणि उत्तर देते हैं कि अन्न का सबसे सूक्ष्म भाग मन, जल का सूक्ष्म भाग प्राण और तेज का सूक्ष्म भाग वाक् है। वह दही मथने के उदाहरण से समझाते हैं कि मन अन्नमय, प्राण आपोमय और वाक् तेजोमयी होती है। मनुष्य जो ग्रहण करता है, उसका चित्त भी वैसा ही होता है।)
नैतिक शिक्षा: यद् गृह्णामः, तादृशं भवामः।
(जैसा हम ग्रहण करते हैं, वैसे ही बनते हैं।)
कथासारः (कहानी का सार)
श्वेतकेतोः प्रश्नाः (श्वेतकेतु के प्रश्न):
श्वेतकेतुः गुरुं आरुणिं प्रणमति, “किञ्चित् प्रष्टुमिच्छामि।”
(श्वेतकेतु गुरु आरुणि को प्रणाम कर कहता है, “मैं कुछ पूछना चाहता हूँ।”)
सः पृच्छति, “किमिदं मनः? कः प्राणः? का वाक्?”
(वह पूछता है, “मन क्या है? प्राण क्या है? वाक् क्या है?”)
आरुणेः समाधानम् (आरुणि का समाधान):
आरुणिः कथति, “अशितस्य अन्नस्य योऽणिष्ठः तन्मनः, पीतानाम् अपां योऽणिष्ठः स प्राणः, अशितस्य तेजसो योऽणिष्ठः सा वाक्।”
(आरुणि कहते हैं, “खाए गए अन्न का सबसे सूक्ष्म भाग मन है, पिए गए जल का सूक्ष्म भाग प्राण है, और तेज का सूक्ष्म भाग वाक् है।”)
सः दृष्टान्तेन उपदिशति, “मथ्यमानस्य दध्नः योऽणिमा स सर्पिः भवति। एवमेव अन्नस्य, अपां, तेजसः च अणिमा मनः, प्राणः, वाक् च भवति।”
(वह उदाहरण देते हैं, “दही मथने से जो सूक्ष्म भाग निकलता है, वह घी बनता है। उसी तरह अन्न, जल और तेज का सूक्ष्म भाग क्रमशः मन, प्राण और वाक् बनता है।”)
उपदेशस्य सारः (उपदेश का सार):
आरुणिः कथति, “अन्नमयं मनः, आपोमयः प्राणः, तेजोमयी वाक्। यद् मानवः गृह्णाति, तादृशं तस्य चित्तं भवति।”
(आरुणि कहते हैं, “मन अन्नमय है, प्राण आपोमय है, वाक् तेजोमयी है। मनुष्य जो ग्रहण करता है, उसका चित्त भी वैसा ही होता है।”)
सः श्वेतकेतुं हृदयेन अवधारयितुं कथति, “वत्स! एतत् सर्वं हृदयेन अवधारय।”
(वह श्वेतकेतु से कहते हैं, “हे पुत्र! इसे हृदय से समझो।”)
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