वाडमनः प्राणस्वरूपम् (वाणी मन प्राण का स्वरुप)
🌸 संस्कृत में सारांशः —
अयं पाठः “छान्दोग्योपनिषदे” उद्धृतः अस्ति। अस्मिन् पाठे आरुणिः ऋषिः स्वस्य शिष्यं श्वेतकेतुम् अध्यापयति। अस्य संवादस्य माध्यमेन वाक्, मनः, प्राणस्य स्वरूपं स्पष्टं भवति।
आरुणिः कथयति — “अन्नस्य सूक्ष्मभागः मनो भवति, आपां सूक्ष्मभागः प्राणः भवति, तेजसः सूक्ष्मभागः वाक् भवति।” यथा दध्नः मन्थनात् सर्पिः उत्पाद्यते, तथैव अन्नादेः मनः, आपोभ्यः प्राणः, तेजसः वाक् उत्पद्यते।
एवं ज्ञायते यत् यथा-आहारः तथा-मनः। मनुष्यस्य चित्तं, बुद्धिः, वाणी च आहारशुद्ध्या निर्मलानि भवन्ति। अतः शुद्धं अन्नं, शुद्धं जलं, तथा संयमिता वाणी आवश्यकाऽस्ति।
अन्ते आरुणिः उपदिशति —
“अन्नमयं मनः, आपोमयः प्राणः, तेजोमयी वाक् इति।”
एषः उपदेशः मनुष्यं शिक्षयति यत् आहारशुद्धेः सत्त्वशुद्धिः, सत्त्वशुद्धेः ज्ञानप्राप्तिः भवति।
🌼 हिन्दी में सारांश —
यह अध्याय छान्दोग्य उपनिषद् के षष्ठ अध्याय के पाँचवें खंड से लिया गया है। इसमें ऋषि आरुणि और उनके शिष्य श्वेतकेतु के बीच संवाद हुआ है। इस संवाद के माध्यम से यह बताया गया है कि मन, वाणी (वाक्) और प्राण का आपस में क्या संबंध है और उनका मूल स्रोत क्या है।
आरुणि श्वेतकेतु को समझाते हैं कि मन अन्न (खाद्य पदार्थ) से बनता है। जैसे हम जो अन्न खाते हैं, उसका सबसे सूक्ष्म भाग मन बन जाता है। उसी प्रकार प्राण जल से उत्पन्न होता है, अर्थात् हम जो जल पीते हैं, उसका सबसे सूक्ष्म अंश प्राण के रूप में कार्य करता है। और वाणी तेज (अग्नि) से उत्पन्न होती है, अर्थात् वाणी का संबंध प्रकाश और ऊर्जा से है।
ऋषि यह भी बताते हैं कि जैसे दही को मथने पर ऊपर घी (सर्पि) निकलता है, उसी प्रकार अन्न, जल और तेज को ग्रहण करने पर उनसे क्रमशः मन, प्राण और वाणी की उत्पत्ति होती है। इसका अर्थ है कि मनुष्य का शरीर और चित्त उसके आहार और जीवनशैली से प्रभावित होते हैं। इसलिए मनुष्य को शुद्ध अन्न, शुद्ध जल और संयमित वाणी का पालन करना चाहिए।
अंत में आरुणि श्वेतकेतु से कहते हैं — “वत्स! जो अन्नमय है वही मन है, जो आपोमय है वही प्राण है, और जो तेजोमयी है वही वाणी है।” यह उपदेश हमें सिखाता है कि शुद्ध आहार, शुद्ध विचार और शुद्ध वाणी ही मनुष्य को तेजस्वी और ज्ञानी बनाती है।
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