स्वर्णकाकः (सुनहरा कौआ)
प्रस्तुतः पाठः श्रीपद्मशास्त्रिणा विरचितात् “विश्वकथाशतकम्” इति कथासङ्ग्रहात् गृहीतोऽस्ति । अत्र विविधराष्ट्रेषु व्याप्तानां शतलोककथानां वर्णनं विद्यते । एषा कथा वर्म (म्यांमार) देशस्य श्रेष्ठा लोककथा अस्ति। अस्यां कथायां लोभस्य दुष्परिणामः तथा च त्यागस्य सुपरिणामः स्वर्णपक्षकाकमाध्यमेन वर्णितोऽस्ति ।
हिन्दी अनुवाद:
यह पाठ श्रीपद्मशास्त्री द्वारा रचित “विश्वकथाशतकम्” नामक कथासंग्रह से लिया गया है। इसमें विभिन्न राष्ट्रों में प्रचलित सौ लोककथाओं का वर्णन है। यह कथा वर्म (म्यांमार) देश की एक श्रेष्ठ लोककथा है। इस कथा में स्वर्णपक्षी कौवे के माध्यम से लोभ के दुष्परिणाम और त्याग के सुपरिणाम का वर्णन किया गया है।
पुरा कस्मिंश्चिद् ग्रामे एका निर्धना वृद्धा स्त्री न्यवसत्। तस्याः च एका दुहिता विनम्रा मनोहरा चासीत्। एकदा माता स्थाल्यां तण्डुलान् निक्षिप्य पुत्रीम् आदिशत्। “सूर्यातपे तण्डुलान् खगेभ्यो रक्ष।” किञ्चित् कालादनन्तरम् एको विचित्रः काकः समुड्डीय तस्याः समीपम् अगच्छत्।
हिन्दी अनुवाद:
प्राचीन काल में किसी ग्राम में एक निर्धन वृद्ध स्त्री निवास करती थी। उसकी एक विनम्र और मनोहर पुत्री थी। एक दिन माता ने थाली में चावल रखकर पुत्री को आदेश दिया, “सूर्य की तपन में चावलों को पक्षियों से सुरक्षित रख।” कुछ समय पश्चात् एक विचित्र कौआ उड़कर उसके समीप आया।
नैतादृशः स्वर्णपक्षो रजतचञ्चुः स्वर्णकाकस्तया पूर्वं दृष्टः। तं तण्डुलान् खादन्तं हसन्तञ्च विलोक्य बालिका रोदितुमारब्धा। तं निवारयन्ती सा प्रार्थयत्- “तण्डुलान् मा भक्षय। मदीया माता अतीव निर्धना वर्तते।” स्वर्णपक्षः काकः प्रोवाच, “मा शुचः। सूर्योदयात्प्राग् ग्रामाद्बहिः पिप्पलवृक्षमनु त्वया आगन्तव्यम्। अहं तुभ्यं तण्डुलमूल्यं दास्यामि।” प्रहर्षिता बालिका निद्रामपि न लेभे।
हिन्दी अनुवाद:
ऐसा स्वर्णिम पंखों और चाँदी की चोंच वाला स्वर्णकाक (सोने जैसा कौआ) उसने पहले कभी नहीं देखा था। उसे चावल खाते और हँसते देखकर बालिका रोने लगी। उसे रोकते हुए उसने प्रार्थना की, “चावल मत खाओ। मेरी माता अत्यंत निर्धन है।” स्वर्णपक्षी कौआ बोला, “शोक मत कर। सूर्योदय से पहले ग्राम के बाहर पीपल वृक्ष के पास आना। मैं तुझे चावलों का मूल्य दूँगा।” प्रसन्न होकर बालिका को रातभर नींद नहीं आई।
सूर्योदयात्पूर्वमेव सा तत्रोपस्थिता। वृक्षस्योपरि विलोक्य सा च आश्चर्यचकिता सञ्जाता यत् तत्र स्वर्णमयः प्रासादो वर्तते। यदा काकः शयित्वा प्रबुद्धस्तदा तेन स्वर्णगवाक्षात्कथितं “हंहो बाले! त्वमागता, तिष्ठ, अहं त्वत्कृते सोपानमवतारयामि, तत्कथय स्वर्णमयं रजतमयं ताम्रमयं वा?” कन्या अवदत् “अहं निर्धनमातुः दुहिता अस्मि। ताम्रसोपानेनैव आगमिष्यामि।” परं स्वर्णसोपानेन सा स्वर्ण-भवनम् आरोहत।
हिन्दी अनुवाद:
सूर्योदय से पहले ही वह वहाँ पहुँच गई। वृक्ष के ऊपर देखकर वह आश्चर्यचकित हो गई, क्योंकि वहाँ एक स्वर्णमय प्रासाद था। जब कौआ सोकर जागा, तो उसने स्वर्णिम खिड़की से कहा, “अरे बालिके! तू आ गई, ठहर, मैं तेरे लिए सीढ़ी उतारता हूँ। बता, स्वर्णमय, रजतमय या ताम्रसीढ़ी?” कन्या बोली, “मैं निर्धन माता की पुत्री हूँ। ताम्रसीढ़ी से ही आऊँगी।” किन्तु स्वर्णपक्षी कौवे ने स्वर्णमय सीढ़ी से उसे स्वर्ण-भवन में चढ़ाया।
चिरकालं भवने चित्रविचित्रवस्तूनि सज्जितानि दृष्ट्वा सा विस्मयं गता। श्रान्तां तां विलोक्य काकः अवदत् – “पूर्वं लघुप्रातराशः क्रियताम् – वद त्वं स्वर्णस्थाल्यां भोजनं करिष्यसि किं वा रजतस्थाल्याम् उत ताम्रस्थाल्याम्?” बालिका अवदत् – “ताम्रस्थाल्याम् एव अहं निर्धना भोजनं करिष्यामि।” तदा सा आश्चर्यचकिता सञ्जाता यदा स्वर्णकाकेन स्वर्णस्थाल्यां भोजनं परिवेषितम्। न एतादृशम् स्वादु भोजनमद्यावधि बालिका खादितवती। काकोऽवदत्- “बालिके! अहमिच्छामि यत् त्वम् सर्वदा अत्रैव तिष्ठ परं तव माता तु एकाकिनी वर्तते। अतः त्वं शीघ्रमेव स्वगृहं गच्छ।”
हिन्दी अनुवाद:
लंबे समय तक भवन में विचित्र और सुन्दर वस्तुएँ देखकर वह विस्मय में डूब गई। उसे थकी देखकर कौआ बोला, “पहले हल्का प्रभात भोजन कर। बता, तू स्वर्णथाली में भोजन करेगी, रजतथाली में या ताम्रथाली में?” बालिका बोली, “मैं निर्धन हूँ, ताम्रथाली में ही भोजन करूँगी।” तब वह आश्चर्यचकित हो गई जब स्वर्णकाक ने स्वर्णथाली में भोजन परोसा। ऐसा स्वादिष्ट भोजन उसने आज तक नहीं खाया था। कौआ बोला, “बालिके! मैं चाहता हूँ कि तू सदा यहीं रहे, परन्तु तेरी माता अकेली है। अतः तू शीघ्र अपने घर लौट जा।”
इत्युक्त्वा काकः कक्षाभ्यन्तरात् तिस्रः मञ्जूषाः निस्सार्य तां प्रत्यवदत् – “बालिके! यथेच्छं गृहाण मञ्जूषामेकाम्।” लघुतमां मञ्जूषां प्रगृह्य बालिकया कथितम् इयत् एव मदीयतण्डुलानां मूल्यम्। गृहमागत्य तया मञ्जूषा समुद्घाटिता, तस्यां महार्हाणि हीरकाणि विलोक्य सा प्रहर्षिता तद्दिनाद्धनिका च सञ्जाता।
हिन्दी अनुवाद:
ऐसा कहकर कौआ ने कक्ष से तीन मञ्जूषाएँ निकालीं और बोला, “बालिके! अपनी इच्छानुसार एक मञ्जूषा ले ले।” बालिका ने सबसे छोटी मञ्जूषा ली और कहा, “इतना ही मेरे चावलों का मूल्य है।” घर लौटकर जब उसने मञ्जूषा खोली, तो उसमें बहुमूल्य हीरे देखकर वह अति प्रसन्न हुई और उसी दिन से धनवान बन गई।
तस्मिन्नेव ग्रामे एका अपरा लुब्धा वृद्धा न्यवसत्। तस्या अपि एका पुत्री आसीत्। ईर्ष्यया सा तस्य स्वर्णकाकस्य रहस्यम् ज्ञातवती। सूर्यातपे तण्डुलान् निक्षिप्य तयापि स्वसुता रक्षार्थं नियुक्ता। तथैव स्वर्णपक्षः काकः तण्डुलान् भक्षयन् तामपि तत्रैवाकारयत्। प्रातस्तत्र गत्वा सा काकं निर्भर्त्सयन्ती प्रावोचत् – “भो नीचकाक! अहमागता, मह्यं तण्डुलमूल्यं प्रयच्छ।” काकोऽब्रवीत्- “अहं त्वत्कृते सोपानम् अवतारयामि। तत्कथय स्वर्णमयं रजतमयं ताम्रमयं वा।” गर्वितया बालिकया प्रोक्तम्- “स्वर्णमयेन सोपानेन अहम् आगच्छामि।” परं स्वर्णकाकस्तत्कृते ताम्रमयं सोपानमेव प्रायच्छत्। स्वर्णकाकस्तां भोजनमपि ताम्रभाजने एव अकारयत्।
हिन्दी अनुवाद:
उसी ग्राम में एक अन्य लोभी वृद्धा रहती थी। उसकी भी एक पुत्री थी। ईर्ष्या के कारण उसने स्वर्णकाक का रहस्य जान लिया। उसने भी सूर्य की तपन में चावल रखे और अपनी पुत्री को उनकी रक्षा के लिए नियुक्त किया। वैसे ही स्वर्णपक्षी कौआ चावल खाता हुआ आया और उसे भी वहाँ बुलाया। प्रभात में वहाँ जाकर उसने कौवे को डाँटते हुए कहा, “रे नीच कौवे! मैं आई हूँ, मुझे चावलों का मूल्य दे।” कौआ बोला, “मैं तेरे लिए सीढ़ी उतारता हूँ। बता, स्वर्णमय, रजतमय या ताम्रसीढ़ी?” गर्वित बालिका बोली, “मैं स्वर्णमय सीढ़ी से आऊँगी।” किन्तु स्वर्णकाक ने उसके लिए केवल ताम्रसीढ़ी दी। उसने भोजन भी ताम्रपात्र में ही परोसा।
प्रतिनिवृत्तिकाले स्वर्णकाकेन कक्षाभ्यन्तरात् तिस्रः मञ्जूषाः तत्पुरः समुत्क्षिप्ताः। लोभाविष्टा सा बृहत्तमां मञ्जूषां गृहीतवती। गृहमागत्य सा तर्षिता यावद् मञ्जूषामुद्घाटयति तावत् तस्यां भीषणः कृष्णसर्पो विलोकितः। लुब्धया बालिकया लोभस्य फलं प्राप्तम्। तदनन्तरं सा लोभं पर्यत्यजत्।
हिन्दी अनुवाद:
लौटते समय स्वर्णकाक ने कक्ष से तीन मञ्जूषाएँ उसके सामने रखीं। लोभवश उसने सबसे बड़ी मञ्जूषा ले ली। घर लौटकर उत्साहपूर्वक जब उसने मञ्जूषा खोली, तो उसमें एक भयंकर काला सर्प दिखा। लोभी बालिका को लोभ का फल प्राप्त हुआ। इसके पश्चात् उसने लोभ त्याग दिया।




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