भ्रान्तो बालः (भ्रमित बच्चा / भटका हुआ बच्चा)
🌸 संस्कृत में सारांशः —
पञ्चमः पाठः “भ्रान्तो बालः” “संस्कृत-प्रौढपाठावलिः” इति कथाग्रन्थात् सम्पादितः सङ्गृहीतः, अस्मिन् कथायाम् एकः तन्द्रालुः बालः स्वाध्यायापेक्षया क्रीडने रुचिं दर्शति, सः सर्वदा क्रीडनार्थं अभिलषति परं तस्य सखायः स्वकर्मणि व्यग्राः भवन्ति, अतः ते तेन सह न क्रीडन्ति, एकाकी सः नैराश्यं प्राप्य विचिन्तति यत् सः एव इतस्ततः भ्रान्ति, कालान्तरे सः बोधति यत् सर्वेऽपि स्वकार्यं कुर्वन्ति, अतः तेनापि तत् कर्तव्यं येन कालः सार्थकः भवति। कथा आरम्भति भ्रान्तः बालः पाठशालागमनवेलायां क्रीडितुं गच्छति, परं वयस्याः पूर्वदिनपाठान् स्मृत्वा त्वरमाणाः, तन्द्रालुः बालः लज्जया एकाकी उद्यानं प्राविशति, सः अचिन्तयत् “विरमन्तु एते पुस्तकदासाः, अहं आत्मानं विनोदयिष्यामि”, ततः पुष्पोद्याने मधुकरं क्रीडितुं आह्वयति, परं मधुकरः “वयं मधुसङ्ग्रहव्यग्राः” इति तिरस्करोति, बालः तं मिथ्यागर्वितं मत्वा चटकं दृष्ट्वा “एहि चटकपोत, मम मित्रं भव, स्वादून् भक्ष्यकवालान् दास्यामि” इति वदति, परं चटकः “मया वटद्रुमस्य शाखायां नीडं कार्यम्” इति स्वकर्मव्यग्रः भवति, खिन्नः बालः श्वानं दृष्ट्वा “रे मानुषाणां मित्र, प्रच्छायशीतलं तरुमूलं आश्रयस्व” इति वदति, श्वा उत्तरति “यो मां पुत्रप्रीत्या पोषयति स्वामिनो गृहे तस्य रक्षानियोगकरणान्न मया भ्रष्टव्यमीषदपि” इति, सर्वैः निषिद्धः बालः अचिन्तयत् “सर्वं स्वकर्मणि निमग्नं, अहम् एव वृथा कालं क्षेपामि”, ततः सः विद्याव्यसनी भूत्वा महतीं वैदुषीं प्राप्नोति। कथा नैतिकं ददाति यत् समयस्य सार्थकता स्वकर्मणि, यः समयेन कार्यं न करोति सः कालं व्यर्थं करोति। पाठे एकपदेन, पूर्णवाक्येन उत्तराणि, श्लोकभावार्थं, स्थूलपदाधारितप्रश्ननिर्माणं, चतुर्थीविभक्तेः प्रयोगं, समस्तपदविग्रहं, विशेषणविशेष्यचयनं च अभ्यासाः विद्यन्ते, यैः संस्कृतभाषायाः कौशलं वर्धति।
🌼 हिन्दी में सारांश —
(यह पाठ “भ्रान्तो बालः” “संस्कृत-प्रौढपाठावली” कथा ग्रंथ से संपादित कर लिया गया है, इस कहानी में एक आलसी बालक का चित्रण है जो पढ़ाई से ज्यादा खेलने में रुचि रखता है, वह हमेशा खेलना चाहता है लेकिन उसके मित्र अपने कार्यों में व्यस्त रहते हैं, इसलिए वे उसके साथ नहीं खेलते, अकेला वह निराश होकर सोचता है कि वह खाली इधर-उधर भटक रहा है, बाद में उसे समझ आता है कि सभी अपने काम कर रहे हैं, इसलिए उसे भी वही करना चाहिए जिससे उसका समय सार्थक हो। कहानी शुरू होती है जब भटकता बालक स्कूल जाने के समय खेलने जाता है, लेकिन मित्र पिछले दिन के पाठ याद कर जल्दी में हैं, आलसी बालक शर्म से अकेले बगीचे में जाता है, वह सोचता है “इन किताबों के गुलामों को छोड़ो, मैं खुद मनोरंजन करूँगा”, फिर बगीचे में भौंरे को खेलने बुलाता है, लेकिन भौंरा “हम मधु संग्रह में व्यस्त हैं” कहकर मना करता है, बालक उसे घमंडी मानकर गौरैया को देखकर “आ गौरैया, मेरा मित्र बन, स्वादिष्ट भोजन दूँगा” कहता है, लेकिन गौरैया “मुझे बरगद की शाखा पर घोंसला बनाना है” कहकर अपने काम में व्यस्त हो जाती है, निराश बालक कुत्ते को देखकर “मनुष्यों के मित्र, ठंडी छाया वाले पेड़ के नीचे आ” कहता है, कुत्ता जवाब देता है “जो मुझे बेटे की तरह पालता है, उसके घर की रक्षा के कर्तव्य से मैं जरा भी नहीं चूक सकता”, सभी के मना करने से बालक सोचता है “सब अपने काम में डूबे हैं, मैं ही समय बर्बाद कर रहा हूँ”, फिर वह विद्या का आदी होकर महान विद्वता प्राप्त करता है। कहानी सिखाती है कि समय की सार्थकता अपने काम में है, जो समय पर काम नहीं करता वह समय व्यर्थ करता है। पाठ में एक पद में, पूर्ण वाक्य में उत्तर, श्लोक का भावार्थ, स्थूल पद पर प्रश्न निर्माण, चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग, समस्त पद विग्रह, विशेषण-विशेष्य चयन आदि अभ्यास हैं, जो संस्कृत भाषा का कौशल बढ़ाते हैं।)
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