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Revision Notes for Class 11 Hindi “Aroh” Chapter 20 Aao Milke Bachaye

कविता का सारांश

इस कविता में दोनों पक्षों का यथार्थ चित्रण हुआ है। बृहतर संदर्भ में यह कविता समाज में उन चीजों को बचाने की बात करती है जिनका होना स्वस्थ सामाजिक-प्राकृतिक परिवेश के लिए जरूरी है। प्रकृति के विनाश और विस्थापन के कारण आज आदिवासी समाज संकट में है, जो कविता का मूल स्वरूप है। कवयित्री को लगता है कि हम अपनी पारंपरिक भाषा, भावुकता, भोलेपन, ग्रामीण संस्कृति को भूलते जा रहे हैं। प्राकृतिक नदियाँ, पहाड़, मैदान, मिट्टी, फसल, हवाएँ-ये सब आधुनिकता के शिकार हो रहे हैं। आज के परिवेश, में विकार बढ़ रहे हैं, जिन्हें हमें मिटाना है। हमें प्राचीन संस्कारों और प्राकृतिक उपादानों को बचाना है। कवयित्री कहती है कि निराश होने की जरूरत नहीं है, क्योंकि अभी भी बचाने के लिए बहुत कुछ शेष है।

व्याख्या एवं अर्थग्रहण संबंधी प्रश्न

1. अपनी बस्तियों की
नगी होने से
शहर की आबो-हवा से बचाएँ उसे
अपने चहरे पर
सथिल परगान की माटी का रंग

बचाएँ डूबने से
पूरी की पूरी बस्ती को
हड़िया में
भाषा में झारखडीपन

शब्दार्थ

नंगी होना-मर्यादाहीन होना। आबो-हवा-वातावरण। हड़िया-हड्डयों का भंडार। माटी-मिट्टी। झारखंडीपन-झारखंड का पुट।
प्रसंग-प्रस्तुत काव्यांश पाठ्यपुस्तक आरोह भाग-1 में संकलित कविता ‘आओ, मिलकर बचाएँ’ से उद्धृत है। यह कविता संथाली कवयित्री निर्मला पुतुल द्वारा रचित है। यह कविता संथाली भाषा से अनूदित है। कवयित्री अपने परिवेश को नगरीय अपसंस्कृतिक से बचाने का आहवान करती है।

व्याख्या-कवयित्री लोगों को आहवान करती है कि हम सब मिलकर अपनी बस्तियों को शहरी जिंदगी के प्रभाव से अमर्यादित होने से बचाएँ। शहरी सभ्यता ने हमारी बस्तियों का पर्यावरणीय व मानवीय शोषण किया है। हमें अपनी बस्ती को शोषण से बचाना है नहीं तो पूरी बस्ती हड्डयों के ढेर में दब जाएगी। कवयित्री कहती है कि हमें अपनी संस्कृति को बचाना है। हमारे चेहरे पर संथाल परगने की मिट्टी का रंग झलकना चाहिए। भाषा में बनावटीपन न होकर झारखंड का प्रभाव होना चाहिए।

विशेष-
1. कवयित्री में परिवेश को बचाने की तड़प मिलती है।
2. ‘शहरी आबो-हवा’ अपसंस्कृति का प्रतीक है।
3. ‘नंगी होना’ के अनेक अर्थ हैं।
4. प्रतीकात्मकता है।
5. भाषा प्रवाहमयी है।
5. उर्दू मिश्रित खड़ी बोली है।
6. काव्यांश मुक्त छद तथा तुकांतरहित है।

अर्थग्रहण संबंधी प्रश्न

1. कवयित्री वक्या बचाने का आहवान करती है?
2. संथाल परगना की क्या समस्या है?
3. झारखंडीपन से क्या आशय है?
4. काव्यांश में निहित संदेश स्पष्ट कीजिए।

उत्तर –
1. कवयित्री आदिवासी संथाल बस्ती को शहरी अपसंस्कृति से बचाने का आहवान करती है।
2. संथाल परगना की समस्या है कि यहाँ कि भौतिक संपदा का बेदर्दी से शोषण किया गया है, बदले में यहाँ लोगों को कुछ नहीं मिलता। बाहरी जीवन के प्रभाव से संथाल की अपनी संस्कृति नष्ट होती जा रही है।
3. इसका अर्थ है कि झारखंड के जीवन के भोलेपन, सरलता, सरसता, अक्खड़पन, जुझारूपन, गर्मजोशी के गुणों को बचाना।
4. काव्यांश में निहित संदेश यह है कि हम अपनी प्राकृतिक धरोहर नदी, पर्वत, पेड़, पौधे, मैदान, हवाएँ आदि को प्रदूषित होने से बचाएँ। हमें इन्हें समृद्ध करने का प्रयास करना चाहिए।

2. ठडी होती दिनचय में
जीवन की गर्माहट
मन का हरापन

भोलापन दिल का
अक्खड़पन, जुझारूपन भी

शब्दार्थ
ठंडी होती-धीमी पड़ती। दिनचर्या-दैनिक कार्य। गर्माहट-नया उत्साह। मन का हरापन-मन की खुशियाँ। अक्खड़पन-रुखाई, कठोर होना। जुझारूपन-संघर्ष करने की प्रवृत्ति।
प्रसंग-प्रस्तुत काव्यांश पाठ्यपुस्तक आरोह भाग-1 में संकलित कविता ‘आओ, मिलकर बचाएँ’ से उद्धृत है। यह कविता संथाली कवयित्री निर्मला पुतुल द्वारा रचित है। यह कविता संथाली भाषा से अनूदित है। कवयित्री अपने परिवेश को नगरीय अपसंस्कृतिक से बचाने का आहवान करती है।

व्याख्या-कवयित्री कहती है कि शहरी संस्कृति से इस क्षेत्र के लोगों की दिनचर्या धीमी पड़ती जा रही है। उनके जीवन का उत्साह समाप्त हो रहा है। उनके मन में जो खुशियाँ थीं, वे समाप्त हो रही हैं। कवयित्री चाहती है कि उन्हें प्रयास करना चाहिए ताकि लोगों के मन उत्साह, दिल का भोलापन, अक्खड़पन व संघर्ष करने की क्षमता वापिस लौट आए।

विशेष
1. कवयित्री का संस्कृति प्रेम मुखर हुआ है।
2. प्रतीकात्मकता है।
3. भाषा प्रवाहमयी है।
4. काव्यांश मुक्त छंद तथा तुकांतरहित है।

अर्थग्रहण संबंधी प्रश्न

1. आम व्यक्ति की दिनचर्या पर क्या प्रभाव पड़ा है?
2. जीवन की गर्माहट से क्या आशय है?
3. कवयित्री आदिवासियों की किस प्रवृत्ति को बचाना चाहती है?
4. मन का हरापन से क्या तात्पर्य है?

उत्तर –
1. शहरी प्रभाव से आम व्यक्ति की दिनचर्या ठहर-सी गई है। उनमें उदासीनता बढ़ती जा रही है।
2. ‘जीवन की गरमाहट’ का आशय है-कार्य करने के प्रति उत्साह, गतिशीलता।
3. कवयित्री आदिवासियों के भोलेपन, अक्खड़पन व संघर्ष करने की प्रवृत्ति को बचाना चाहती है।
4. ‘मन का हरापन’ से तात्पर्य है-मन की मधुरता, सरसता व उमंग।

3. भीतर की आग
धनुष की डोरी
तीर का नुकीलापन
कुल्हाड़ी की धार
जगंल की ताज हवा

नदियों की निर्मलता
पहाड़ों का मौन
गीतों की धुन
मिट्टी का सोंधाप
फसलों की लहलहाहट

शब्दार्थ
आग-गर्मी। निर्मलता-पवित्रता। मौन-चुप्पी। सोंधापन-खुशबू। लहलहाहट-लहराना।
प्रसंग-प्रस्तुत काव्यांश पाठ्यपुस्तक आरोह भाग-1 में संकलित कविता ‘आओ, मिलकर बचाएँ’ से उद्धृत है। यह कविता संथाली कवयित्री निर्मला पुतुल द्वारा रचित है। यह कविता संथाली भाषा से अनूदित है। कवयित्री अपने परिवेश को नगरीय अपसंस्कृतिक से बचाने का आहवान करती है।

व्याख्या-कवयित्री कहती है कि उन्हें संघर्ष करने की प्रवृत्ति, परिश्रम करने की आदत के साथ अपने पारंपरिक हथियार धनुष व उसकी डोरी, तीरों के नुकीलेपन तथा कुल्हाड़ी की धार को बचाना चाहिए। वह समाज से कहती है कि हम अपने जंगलों को कटने से बचाएँ ताकि ताजा हवा मिलती रहे। नदियों को दूषित न करके उनकी स्वच्छता को बनाए रखें। पहाड़ों पर शोर को रोककर शांति बनाए रखनी चाहिए। हमें अपने गीतों की धुन को बचाना है, क्योंकि यह हमारी संस्कृति की पहचान हैं। हमें मिट्टी की सुगंध तथा लहलहाती फसलों को बचाना है। ये हमारी संस्कृति के परिचायक हैं।

विशेष-
1.कवयित्री लोक जीवन की सहजता को बनाए रखना
2.प्रतीकात्मकता है। चाहती है।
3.भाषा आडंबरहीन है।
4.छोटे-छोटे वाक्य प्राकृतिक बिंब को दर्शाते हैं।
5.छदमुक्त एवं अतुकांत कविता है।
6.मिश्रित शब्दावली में सहज अभिव्यक्ति है।

अर्थग्रहण संबंधी प्रश्न

1. आदिवासी जीवन के विषय में बताइए।
2. आदिवासियों की दिनचर्या का अंग कौन-सी चीजें हैं?
3. कवयित्री किस-किस चीज को बचाने का आहवान करती है?
4. ‘भीतर की आग’ से क्या तात्पर्य है?

उत्तर –
1.आदिवासी जीवन में तीर, धनुष, कुल्हाड़ी का प्रयोग किया जाता है। आदिवासी जंगल, नदी, पर्वत जैसे प्राकृतिक चीजों से सीधे तौर पर जुड़े हैं। उनके गीत विशिष्टता लिए हुए हैं।
2. आदिवासियों की दिनचर्या का अंग धनुष, तीर, व कुल्हाड़ियाँ होती हैं।
3. कवयित्री जंगलों की ताजा हवा, नदियों की पवित्रता, पहाड़ों के मौन, मिट्टी की खुशबू, स्थानीय गीतों व फसलों की लहलहाहट को बचाना चाहती है।
4. इसका तात्पर्य है-आतरिक जोश व संघर्ष करने की क्षमता।

4. नाचने के लिए खुला आँगन
गाने के लिए गीत
हँसने के लिए थोड़ी-सी खिलखिलाहट
रोने के लिए मुट्ठी भर एकात

बच्चों के लिए मैदान
पशुओं के लिए हरी-हरी घास
बूढ़ों के लिए पहाड़ों की शांति

शब्दार्थ

खिलखिलाहट-खुलकर हँसना। मुट्ठी भर-थोड़ा-सा। एकांत-अकेलापन।
प्रसंग-प्रस्तुत काव्यांश पाठ्यपुस्तक आरोह भाग-1 में संकलित कविता ‘आओ, मिलकर बचाएँ’ से उद्धृत है। यह कविता संथाली कवयित्री निर्मला पुतुल द्वारा रचित है। यह कविता संथाली भाषा से अनूदित है। कवयित्री अपने परिवेश को नगरीय अपसंस्कृतिक से बचाने का आहवान करती है।

व्याख्या-कवयित्री कहती है कि आबादी व विकास के कारण घर छोटे होते जा रहे हैं। यदि नाचने के लिए खुला आँगन चाहिए तो आबादी पर नियंत्रण करना होगा। फिल्मी प्रभाव से मुक्त होने के लिए अपने गीत होने चाहिए। व्यर्थ के तनाव को दूर करने के लिए थोड़ी हँसी बचाकर रखनी चाहिए ताकि खिलखिला कर हँसा जा सके। अपनी पीड़ा को व्यक्त करने के लिए थोड़ा-सा एकांत भी चाहिए। बच्चों को खेलने के लिए मैदान, पशुओं के चरने के लिए हरी-हरी घास तथा बूढ़ों के लिए पहाड़ी प्रदेश का शांत वातावरण चाहिए। इन सबके लिए हमें सामूहिक प्रयास करने होंगे।

विशेष-
1. आदिवासियों की जरूरत के विषय में बताया गया है।
2. भाषा सहज व सरल है।
3. ‘हरी-हरी’ में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।
4. ‘मुट्ठी भर एकांत’ थोड़े से एकांत के लिए प्रयुक्त हुआ है।
5. काव्यांश छदमुक्त तथा अतुकांत है।

अर्थग्रहण संबंधी प्रश्न

1. हँसने और गाने के बारे में कवयित्री क्या कहना चाहती है?
2. कवयित्री एकांत की इच्छा क्यों रखती है।
3. बच्चों, पशुओं व बूढ़ों को किनकी आवश्यकता है?
4. कवयित्री शहरी प्रभाव पर क्या व्यंग्य करती है?

उत्तर –
1. कवयित्री कहती है कि झारखंड के क्षेत्र में स्वाभाविक हँसी व गाने अभी भी बचे हुए हैं। यहाँ संवेदना अभी पूर्णत: मृत नहीं हुई है। लोगों में जीवन के प्रति प्रेम है।
2. कवयित्री एकांत की इच्छा इसलिए करती है ताकि एकांत में रोकर मन की पीड़ा, वेदना को कम कर सके।
3. बच्चों को खेलने के लिए मैदान, पशुओं के लिए हरी-हरी घास तथा बूढ़ों को पहाड़ों का शांत वातावरण चाहिए।
4. कवयित्री व्यंग्य करती है कि शहरीकरण के कारण अब नाचने-गाने के लिए स्थान नहीं है, लोगों की हँसी गायब होती जा रही है, जीवन की स्वाभाविकता समाप्त हो रही है। यहाँ तक कि रोने के लिए भी एकांत नहीं बचा है।

5. और इस अविश्वास-भरे दौर में
थोड़ा-सा विश्वास
थोड़ी-सी उम्मीद
थोडे-से सपने

आओ, मिलकर बचाएँ
कि इस दौर में भी बचाने को
बहुत कुछ बचा हैं
अब भी हमारे पास!

शब्दार्थ-
अविश्वास-दूसरों पर विश्वास न करना। दौर-समय। सपने-इच्छाएँ।
प्रसंग-प्रस्तुत काव्यांश पाठ्यपुस्तक आरोह भाग-1 में संकलित कविता ‘आओ, मिलकर बचाएँ’ से उद्धृत है। यह कविता संथाली कवयित्री निर्मला पुतुल द्वारा रचित है। यह कविता संथाली भाषा से अनूदित है। कवयित्री अपने परिवेश को नगरीय अपसंस्कृतिक से बचाने का आहवान करती है।

व्याख्या-कवयित्री कहती है कि आज चारों तरफ अविश्वास का माहौल है। कोई किसी पर विश्वास नहीं करता। अत: ऐसे माहौल में हमें थोड़ा-सा विश्वास बचाए रखना चाहिए। हमें अच्छे कार्य होने के लिए थोड़ी-सी उम्मीदें भी बचानी चाहिए। हमें थोड़े-से सपने भी बचाने चाहिए ताकि हम अपनी कल्पना के अनुसार कार्य कर सकें। अंत में कवयित्री कहती है कि हम सबको मिलकर इन सभी चीजों को बचाने का प्रयास करना चाहिए, क्योंकि आज आपाधापी के इस दौर में अभी भी हमारे पास बहुत कुछ बचाने के लिए बचा है। हमारी सभ्यता व संस्कृति की अनेक चीजें अभी शेष हैं।

विशेष
1. कवयित्री का जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण है।
2. ‘आओ, मिलकर बचाएँ’ में खुला आहवान है।
3. ‘थोड़ा-सा’ की आवृत्ति से भाव-गांभीर्य आया है।
4. मिश्रित शब्दावली है।
5. भाषा में प्रवाह है।
6. काव्यांश छंदमुक्त एवं तुकांतरहित है।

अर्थग्रहण संबंधी प्रश्न

1. कवयित्री ने आज के युग को कैसा बताया है?
2. कवयित्री क्या-क्या बचाना चाहती है?
3. कवयित्री ने ऐसा क्यों कहा कि बहुत कुछ बचा है, अब भी हमारे पास!
4. कवयित्री का स्वर आशावादी है या निराशावादी?

उत्तर –
1. कवयित्री ने आज के युग को अविश्वास से युक्त बताया है। आज कोई एक-दूसरे पर भरोसा नहीं करता।

2. कवयित्री थोड़ा-सा विश्वास, उम्मीद व सपने बचाना चाहती है।

3. कवयित्री कहती है कि हमारे देश की संस्कृति व सभ्यता के सभी तत्वों का पूर्णत: विनाश नहीं हुआ है। अभी भी हमारे पास अनेक तत्व मौजूद हैं जो हमारी पहचान के परिचायक हैं।

4. कवयित्री का स्वर आशावादी है। वह जानती है कि आज घोर अविश्वास का युग है, फिर भी वह आस्था व सपनों के जीवित रखने की आशा रखे हुए है।

काव्य-सौंदर्य संबंधी प्रश्न

1. अपनी बस्तियों को
नंगी होने सं
शहर को आबो-हवा से बचाएँ उसे
बचाएँ डूबने से
पूरी की पूरी बस्ती की

हड़िया में
अपने चहरे पर
संथाल परगना की माटी का रंग
भाषा में झारखंडीपन

प्रश्न
1.भाव-सौंदर्य स्पष्ट करें।
2.शिल्प-सौंदर्य स्पष्ट करें।

उत्तर –
1.इस काव्यांश में कवयित्री स्थानीय परिवेश को बाहय प्रभाव से बचाना चाहती है। बाहरी लोगों ने इस क्षेत्र के प्राकृतिक व मानवीय संसाधनों को बुरी तरह से दोहन किया है। वह अपने संथाली लोक-स्वभाव पर गर्व करती है।
2.प्रस्तुत काव्यांश में प्रतीकात्मकता है।
‘माटी का रंग’ लाक्षणिक प्रयोग है। यह सांस्कृतिक विशेषता का परिचायक है।
‘नंगी होना’ के कई अर्थ है-
मर्यादा छोड़ना।
कपड़े कम पहनना।
वनस्पतिहीन भूमि।
उर्दू व लोक प्रचलित शब्दों का प्रयोग है।
छदमुक्त कविता है।
खड़ी बोली में सहज अभिव्यक्ति है।

2. ठंडी होती दिनचर्या में
जीवन की गर्माहट
मन का हरापन

भोलापन दिल का
अक्खड़पन, जुझारूपन भी

प्रश्न
1. भाव-सौंदर्य स्पष्ट करें।
2. शिल्प-सौंदर्य स्पष्ट करें।

उत्तर –
1. इस काव्यांश में कवयित्री ने झारखंड प्रदेश की पहचान व प्राकृतिक परिवेश के विषय में बताया है। वह लोकजीवन की सहजता को बनाए रखना चाहती है। वह पर्यावरण की स्वच्छता व निदषता को बचाने के लिए प्रयासरत है।
2. ‘भीतर की आग” मन की इच्छा व उत्साह का परिचायक है।
भाषा सहज व सरल है।
छोटे-छोटे वाक्यांश पूरे बिंब को समेटे हुए हैं।
खड़ी बोली है।
अतुकांत शैली है।

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